छुट्टियों और विदेश दौरों के बाद राहुल गांधी में हमेशा बदलाव देखने को मिलता रहा है. पहले राहुल की गैरमौजूदगी में कांग्रेस की ओर से उनके लिए वेलकम नोट तैयार किये जाते रहे हैं. राहुल गांधी आते उसमें हिस्सा लेते, थोड़ी बहुत चर्चा होती - और फिर हफ्ते भर बाद मामला ठंडा पड़ जाता. खास बात ये है कि ताजा बदलाव लंबे वक्त तक टिका हुआ नजर आ रहा है. ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस में राहुल गांधी के लिए नयी टैग लाइन गढ़ी गयी हो - अबकी बार नया अवतार. अमेरिका में राहुल के कार्यक्रमों की निगरानी सैम पित्रोदा कर रहे थे. अब तक उसका असर तो बरकरार है ही, राहुल गांधी की चाल ढाल से लेकर हाव भाव तक तमाम तब्दीलियां नोटिस की जा सकती हैं.
कटाक्ष
राहुल गांधी तीन-तीन दिन के गुजरात दौरे पर दो बार जा चुके हैं. नवसर्जन यात्रा पर जब वो निकले तो सड़क किनारे लोगों से मिलते रहे, गांवों में किसानों और महिलाओं से मिलकर उनसे सवाल जवाब भी किया - और रास्ते में मंदिरों में भी मत्था टेकते हुए आगे बढ़े. साथ ही, उनकी टीम सोशल मीडिया पर भी एक्टिव रह रही है और हर वक्त राहुल गांधी के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी रहती है.
हम आपके हैं कौन...
जिस तरह चांद-तारे तोड़ कर लाने की बातें हुआ करती हैं, उसी लहजे में राहुल गांधी ने मोदी को लेकर एक बड़ा कटाक्ष किया है. उनके दो तीखे ट्वीट बता रहे हैं कि आगे भी उनका इरादा क्या रहने वाला है.
राहुल गांधी के सधे हुए और सटीक ट्वीट के पीछे एक मजबूत टीम काम कर रही है. राहुल गांधी की सोशल मीडिया टीम की अगुवाई कर रही हैं दिव्या स्पंदना जिन्हें लोग साउथ की फिल्मों की एक्टर राम्या के नाम से भी जानते हैं. गुजरात में 'विकास पागल हो गया है' कैंपेन भी दिव्या के दिमाग की ही उपज है जिसने बीजेपी को नाको चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया है.
2014 में आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद हरियाणा कांग्रेस के नेता दीपेंद्र हुडा को हटाकर दिव्या को ये जिम्मेदारी सौंपी गयी थी और तभी से वो अपने काम में जुटी हुई हैं. दिव्या ने 2012 में कांग्रेस ज्वाइन किया था और 2013 में कर्नाटक की मंड्या सीट पर उपचुनाव जीत कर सांसद भी बन गयीं.
सवाल ये उठता है कि क्या दिव्या के आक्रामक रुख और धारदार कैंपेन के पीछे क्या सिर्फ उनकी काबिलियत है या कुछ और भी? उपचुनाव में दिव्या ने जेडीएस उम्मीदवार को तो हरा दिया लेकिन 2014 की मोदी लहर में वो अपना सीट नहीं बचा सकीं. जाहिर है मन में कोई टीस तो रही ही होगी और वो गुबार के साथ निकल रही है जो बीजेपी पर भारी पड़ रही है.
जिस तरह गुजरात को लेकर राहुल गांधी ने रॉकेट और चांद से जोड़ कर कहानी गढ़ी है, उसी तरह हिमाचल प्रदेश में उन्होंने चप्पल को लेकर एक किस्सा सुनाया था.
किस्सागोई
राहुल गांधी के लिए लिखी जा रही नयी स्क्रिप्ट में थ्रिल, एक्शन के साथ साथ ड्रामा भी भरपूर डाला जा रहा है. कहानियां तो उन्हें पहले भी सुनाने के लिए सुनायी जाती रही हैं - लेकिन अब वो खुद भी उसमें रमे नजर आ रहे हैं. हाल फिलहाल राहुल गांधी ने जताने की कोशिश की है कि उन्हें किस्सागोई भी खूब आती है. ये बात अलग है उन्होंने ये सीखा अभी अभी है.
रॉकेट और चांद की तरह ही हिमाचल प्रदेश में राहुल गांधी ने एक काल्पनिक किस्सा सुनाया था - 'रिपोर्टर-मोदी संवाद'. ये किस्सा राहुल गांधी ने कुछ ऐसे सुनाया कि लोगों के सामने विजुअल उभर आयें. राहुल ने बताया कि एक बार एक रिपोर्टर ने प्रधानमंत्री मोदी से पहाड़ों की यात्रा को लेकर कुछ सवाल पूछे थे तो जवाब मिला - मुझे पहाड़ बहुत अच्छे लगते हैं. जब रिपोर्टर ने ये पूछा कि पहाड़ों पर आप कहां कहां गये हैं तो जवाब मिला - मैं तो कई पहाड़ों की यात्रा कर चुका हूं. फिर रिपोर्टर का सवाल था कि कितनी ऊंचाई तक आप पहाड़ों पर गये हैं, जवाब था - मैं 25 हजार फीट तक की ऊंचाई पर पहाड़ घूम आया हूं.' फिर राहुल गांधी ने टिप्पणी की कि हमारे प्रधानमंत्री केवल चप्पल पहनकर ही कंचनजंघा घूम आये हैं.
मेरी बात सुनो...
सामने बैठे लोगों को मालूम था कि किस्सा कोरी कल्पना है, फिर भी उन्हें राहुल के सुनाने का तरीका दिलचस्प लगा. कहानी खत्म होने पर लोगों ने जोरदार ठहाके लगाये. कहने का मतलब ये है कि राहुल गांधी लोगों से कनेक्ट होने लगे हैं. लोग उनकी बात सुनने लगे हैं. अब अगर लोग नेता की बात सुनने लगें तो बाकी बातों की जरूरत रह कहां जाती है?
कंटेंट
राहुल गांधी अपनी स्पीच में अब ज्यादा फोकस नजर आते हैं. पहले गुस्से से भरपूर नजर आते थे, लेकिन अब वो तारीफ के साथ साथ बीच बीच में तंज भी कसते रहते हैं. अब ऐसा बिलकुल नहीं दिखता कि राहुल गांधी लगातार मोदी को कोसते रहते हों, बल्कि थोड़ी सी तारीफ के साथ जीभर खिंचाई करते हैं. शब्द भी बेहद नपे-तुले, सीधे सपाट और सरल होते हैं.
अमेरिका में राहुल गांधी ने कहा था कि ये बढ़ती बेरोजगारी ही वजह रही जब भारत में नरेंद्र मोदी और अमेरिका में डोनॉल्ड ट्रंप का उभार हुआ. बेरोजगारी के मुद्दे पर राहुल गांधी ने माना कि यूपीए सरकार से बड़ी चूक हुई और उसकी वजह भी बतायी कि नेताओं में गुरूर आ गया था. पहले भी देखने को मिला कि यूपी चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने समाजवादी पार्टी के साथ कॉमन एजेंडे में किसानों के हितों की बात शामिल की थी और उसी दबाव के चलते बीजेपी को भी किसानों के कर्जमाफी का वादा करना और निभाना भी पड़ा.
अब तक राहुल के भाषण में सिर्फ सरकार की आलोचना वाले स्लोगन छाये रहते थे - सूट बूट की सरकार, फेयर एंड लवली स्कीम. कोई अपना प्रोग्राम नहीं नजर आता था. अब वो बता रहे हैं कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर जीएसटी की समीक्षा की जाएगी. रोजगार के इंतजाम पर जोर होगा और किसानों के हितों के लिए काम करेंगे. एक तरह से राहुल ने जीएसटी के बहाने व्यापारियों, रोजगार के बहाने युवाओं और किसानों की बात कर बड़े तबके पर फोकस किया है.
कॉन्फिडेंस
राहुल में सबसे बड़ा बदलाव ये देखने को मिला है कि वो आत्मविश्वास से भरपूर नजर आ रहे हैं. पहले वाले राहुल से तुलना करें तो तब वो ओवर कॉन्फिडेंस हुआ करते थे, अब हकीकत से रू-ब-रू लग रहे हैं. आत्मविश्वास का ये नमूना कुछ वैसे ही है जैसे 2014 के आम चुनाव के प्रचार के आखिरी दौर में नरेंद्र मोदी कहने लगे थे - वोट मुझे दीजिए भाइयो बहनों. इसके बाद तो मोदी सामने नजर आ रहे थे और बीजेपी पीछे छूट जा रही थी. लेकिन यही बात लोगों को अच्छी लगी और उन्हें अच्छे दिनों के आने का यकीन भी हो गया. राहुल गांधी भी अब लोगों से उसी अंदाज में बात कर रहे हैं. हो सकता है अमेरिका में उनके उस बयान के बाद ऐसा हो रहा हो जिसमें उन्होंने कहा था - अगर पार्टी चाहती है तो वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने को तैयार हैं.
अपने अमेठी दौरे पर राहुल गांधी ने कठौरा गांव में चौपाल लगाई थी. चौपाल में उनकी बात गौर करने लायक रही, "दो मुद्दे हैं हिंदुस्तान में - किसान और रोजगार का मसला. इनका समाधान सरकार को करना चाहिए. मोदी जी नहीं कर सकते तो कह दें कि वो नहीं कर सकते. कहें कांग्रेस पार्टी आ जाए और वो मेरा काम कर दे तो हम वो काम छह महीने के अंदर करके दिखा देंगे."
'छह महीने के अंदर करके दिखा देंगे...' ऐसा कॉन्फिडेंस राहुल गांधी में पहली बार देखने को मिला है. अगर पहले कभी ऐसी बात कही भी है तो वो पासिंग रेफरेंस से ज्यादा असर नहीं डाल पाया है.
बीजेपी नेता राहुल गांधी को अब भी बच्चे की तरह ट्रीट कर रहे हैं. उनका कहना है कि राहुल गांधी रटा-रटाया भाषण पढ़ते हैं. मान लेते हैं कि राहुल गांधी जो भी कर रहे हैं उसकी पूरी स्क्रिप्ट पहले से लिखी हुई होती है. फिर भी उनकी अदायकी काफी निखरी हुई नजर आ रही है. हर कोई प्रधानमंत्री मोदी की तरह सामने बैठे लोगों से कनेक्ट नहीं हो सकता. दुनिया के कई नेता तो पहले से ये बात मानते थे, अब राहुल गांधी भी ये स्वीकार कर चुके हैं. लिखा हुआ पढ़ने में कोई बुराई नहीं है. सोनिया गांधी भी भाषण पढ़ती ही हैं और मायावती तो अटक अटक कर पढ़ती हैं. मतलब तो ये है कि बातों का असर कितना होता है.
ये सही है कि वो लोगों से जुड़ने के सही तौर तरीके अपना रहे हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि भजन कीर्तन में उनकी हिस्सेदारी दलितों के घर लंच की तरह नहीं खटकती और आदिवासियों के साथ डांस में उनके स्टेप्स भी सही जगह पड़ रहे हैं - कम से कम पॉलिटिकली तो करेक्ट हैं ही. वे दिन गये जब अरुण जेटली कहा करते थे - मालूम नहीं कब बड़े होंगे. जरा गौर से देखिये राहुल गांधी अब बड़े बन गये हैं और बीजेपी के लिए ये खतरे की घंटी है.
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