राजनीति नित नए नारे गढ़ती और सीमा विस्तार में अधिक विश्वास करती है. देश की राजनीति और राजनेताओं के लिए कुछ शब्द बेहद संवेदनशील और सियासी नफे नुकसान के लिए लोकप्रिय हैं. जिसमें दलित, गाय, हिंदू, सेक्युलर, अल्पसंख्यक काफी लोकप्रिय और संवेदनशील हैं. इसपर खूब सियासत होती है. लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है. महामहिम के चुनाव को लेकर आजकल राजनीति गरम है. जिस राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में हजारों किस्म और रंगों के फूल खिलते हैं. वह गरिमामय पद जात-पात के कीचड़ में उलझ गया है.
राजनीति में दलितवाद को लेकर बेहद उदारता दिखाई जा रही है. दलित शब्द बेहद लोकप्रिय हो चला है. राजनीतिक दल इस पर जरुरत से अधिक सहानुभूति उड़ेल रहे हैं. राजनीति में इस शब्द की महत्ता को देख कर हमें समुंद्र मंथन का दृष्टांत सामने दिखता है. दलित शब्द मथानी हो चला है. जबकि कोविंद और मीरा कुमार उस मथानी की डोर बने हैं, कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकद से इसे अपनी तरफ खींचने में लगे हैं.
रामनाथ कोविंद हों या फिर मीरा कुमार, दोनों की योग्यता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं. राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए भाजपा और कांग्रेस की तरफ से घोषित दोनों उम्मीदवारों पर कभी राजनीतिक कदाचार का आरोप नहीं लगा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों व्यक्तित्व महामहिम की पद और गरिमा के बिल्कुल योग्य हैं. इनकी दक्षता, शिष्टता, योग्यता पर किसी प्रकार की अंगूली नहीं उठाई जा सकती है. लेकिन फिर भी एक सवाल कचोटता है. वो ये कि इस पद पर घोषित उम्मीदवार सर्व सम्मति से होना चाहिए था लेकिन ऐसा न होना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है. जहां तक दलित और अल्पसंख्यक का सवाल है तो इसके पहले भी संबंधित जाति से लोग इसपर आसीन हो चुके हैं. सत्ता और प्रतिपक्ष के पास यह अच्छा मौका था, लेकिन फिलहाल आम सहमति नहीं बन सकी. निश्चित तौर पर दलित, पिछड़ों और समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिए. उन्हें समाज में बराबरी का...
राजनीति नित नए नारे गढ़ती और सीमा विस्तार में अधिक विश्वास करती है. देश की राजनीति और राजनेताओं के लिए कुछ शब्द बेहद संवेदनशील और सियासी नफे नुकसान के लिए लोकप्रिय हैं. जिसमें दलित, गाय, हिंदू, सेक्युलर, अल्पसंख्यक काफी लोकप्रिय और संवेदनशील हैं. इसपर खूब सियासत होती है. लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है. महामहिम के चुनाव को लेकर आजकल राजनीति गरम है. जिस राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में हजारों किस्म और रंगों के फूल खिलते हैं. वह गरिमामय पद जात-पात के कीचड़ में उलझ गया है.
राजनीति में दलितवाद को लेकर बेहद उदारता दिखाई जा रही है. दलित शब्द बेहद लोकप्रिय हो चला है. राजनीतिक दल इस पर जरुरत से अधिक सहानुभूति उड़ेल रहे हैं. राजनीति में इस शब्द की महत्ता को देख कर हमें समुंद्र मंथन का दृष्टांत सामने दिखता है. दलित शब्द मथानी हो चला है. जबकि कोविंद और मीरा कुमार उस मथानी की डोर बने हैं, कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकद से इसे अपनी तरफ खींचने में लगे हैं.
रामनाथ कोविंद हों या फिर मीरा कुमार, दोनों की योग्यता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं. राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए भाजपा और कांग्रेस की तरफ से घोषित दोनों उम्मीदवारों पर कभी राजनीतिक कदाचार का आरोप नहीं लगा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों व्यक्तित्व महामहिम की पद और गरिमा के बिल्कुल योग्य हैं. इनकी दक्षता, शिष्टता, योग्यता पर किसी प्रकार की अंगूली नहीं उठाई जा सकती है. लेकिन फिर भी एक सवाल कचोटता है. वो ये कि इस पद पर घोषित उम्मीदवार सर्व सम्मति से होना चाहिए था लेकिन ऐसा न होना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है. जहां तक दलित और अल्पसंख्यक का सवाल है तो इसके पहले भी संबंधित जाति से लोग इसपर आसीन हो चुके हैं. सत्ता और प्रतिपक्ष के पास यह अच्छा मौका था, लेकिन फिलहाल आम सहमति नहीं बन सकी. निश्चित तौर पर दलित, पिछड़ों और समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिए. उन्हें समाज में बराबरी का सम्मान मिलना चाहिए. ऐसे लोगों का आर्थिक सामाजिक विकास होना चाहिए. लेकिन राजनीति में जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय की मनिया कब तक जपी जाती रहेगी, सवाल यह है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति पद की अपनी गरिमा है. यह संवैधानिक और सम्मानित पद है, जाति, धर्म की गंदी राजनीति में महामहिम को घसीटना गरिमा से भौंड़ा मजाक है. उम्मीदवार किसी जाति, धर्म, रंग का हो उससे क्या फर्क पड़ने वाला है. राष्ट्रपति पद पर कोविंद का चुनाव हो या फिर मीरा कुमार का, देश की व्यवस्था में भला क्या परिवर्तन होने वाला है. महामहिम की कुर्सी पर विराजमान होने वाला व्यक्ति भारतीय गणराजय एंव संप्रभु राष्ट का राष्टाध्यक्ष होता है. संवैधानिक व्यवस्था में उसका उतना ही सम्मान और अधिकार संरक्षित होगा जितना इस परंपरा के दूसरे व्यक्तियों का रहा है. दलित शब्द जुड़ने मात्र से उस पद की गरिमा नहीं बढ़ जाएगी. राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों में कोई बदलाव नहीं आएगा. राष्ट्रपति को असीमित अधिकार नहीं मिल जाएंगे. संसद को जो विशेषाधिकार है वह राष्ट्रपति को नहीं है. महामहिम दलितों के लिए कोई अलग से कानून नहीं बन पाएंगे. भारतीय गणराज्य के संविधान में सभी नागरिकों को समता, समानता का अधिकार है, फिर वह दलित हो ब्राहमण, हिंदू, सिख, ईसाई, मुसलमान सभी को यह अधिकार है. हमार संविधान जाति, धर्म, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव की बात नहीं करता है. फिर महामहिम जैसे प्रतिष्ठित पद के लिए दलित शब्द की बात कहां से आई. सिर्फ दलित समुदाय में पैदा होना ही क्या दलिद्रता, विपन्नता की पहचान है.
भाजपा रामनाथ कोविंद और कांग्रेस और समर्थित दल मीरा कुमार को लेकर लामबंद हैं. क्योंकि दोनों उम्मीदवार दलित समुदाय से हैं. वास्तव में क्या कोविंद और मीरा कुमार की हैसियत एक दलित की है. क्या दोनों व्यक्ति आम दलित की परिभाषा में आते हैं. देश की संवैधानिक व्यवस्था में दोनों व्यक्तित्वों का जो सम्मान है क्या उसी तरह का सम्मान एक आम दलित का है. सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक हैसियत में क्या एक आम दलित मायावती, मीरा कुमार, रामनाथ कोविंद, सुशील कुमार शिंदे जैसा है. अगर नहीं तो फिर जाति को जिंदा करने का सच क्या है. बार-बार दलित और गरीब की राजनीति क्यों की जाती है. दलितों की चिंता और गरीबी मिटाने पर घड़ियाली आंसू क्यों बहाए जाते हैं.
देश में हजारों दलित नेता हुए जिन्होंने समाज की मुख्यधारा से हटकर अपनी अलग पहचान बनाई. डा. भीमराव अंबेड़कर का पूरा जीवन ही दलितोत्थान के लिए समर्पित रहा. सामाजिक परिवर्तन में कई हस्तियों ने अहम भूमिका निभाई हैं. मायावती जैसी दलित नेता यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं. इन सबके बाद भी आम दलित के हालात में क्या सुधार हुआ. क्या दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर विराम लगा. क्या ऊना जैसी घटनाएं अब नहीं होंगी. सहारनपुर में क्या फिर संघर्ष की घटनाएं नहीं होंगी. इस तरह की घटनाओं से इतिहास अटा पड़ा है. फिर राजनीति दलित पर घड़ियाली आंसू क्यों बहाती है.
महामहिम जैसे सम्मानित पद के लिए रामननाथ कोविंद एवं मीरा कुमार का नाम ही स्वयं में पर्याप्त है, उस पर जाति की चाश्नी चढ़ाना क्यों आवश्यक है. क्या कलावती और दलितों के यहां भोजन करने से उनके हालातों में सुधार आएगा. राजनीति का मकसद सिर्फ साम्राज्य विस्तार में हैं. वह अपने हित के अनुसार शब्दों का मायाजाल गढ़ती और उसी के अनुसार प्रयोग करती है. उसे वोट बैंक की राजनीति अधिक पसंद है. जिसकी वजह है राजनीति में जाति, धर्म, भाषा सबसे प्रिय विषय है. लेकिन समय-समय पर यह मंत्र उसके लिए अमृत का काम करता है. वह हर सर्जिकल स्टाइक को अपने अनुसार भुनाती है.
इसके पीछे भी राजनीतिक कारण रहे हैं. क्योंकि 60 सालों के राजनीतिक इतिहास में सत्ता की चाबी कांग्रेस के पास रही है. भाजपा के लिए पहली बार अपनी राजनीति साधने का मौका मिला, भला उस स्थिति में वह अपने सियासी दांव से कैसे पीछे रह सकती. दूसरी बात कांग्रेस पतन की तरफ बढ़ रही है. भाजपा इसी जरिए कांग्रेस मुक्त भारत, अभियान को आगे जारी रखना चाहती है. दलित जाति से रामनाथ कोबिंद को उम्मीदवार बनाकर जहां भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. वहीं इसी बहाने मोदी और शाह की जोड़ी आडवाणी और जोशी जैसे राजनीतिक दिग्गजों को किनारे लगाने में कामयाब रही है.
दूसरी बात 2019 को देखते हुए भाजपा दलित वोटों को पार्टी के पक्ष में लामबंद करने के लिए यह चाल चली है. भाजपा इससे जहां मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरों के मुंह बंद करने में कामयाब रही है वहीं हाल के सालों में कुछ राज्यों में होने वाले चुनाव में दलित वोट बैंक उसके निशाने पर हैं. कोविंद मूलत उत्तर प्रदेश के कानपुर के परौंख गांव से आते हैं. यूपी दलित मतों के लिहाज से लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका निभा सकता है. ऐसी स्थिति में रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना भाजपा की सोची समझी रणनीति है.
अभी तक यह कयास लगाए जा रहे थे कि लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्रपति बनाया जा सकता है. लेकिन मोदी एंड शाह की जोड़ी ने सारे कयासों पर पानी फेर दिया. हलांकि यह सब संघ की हरी झंडी के बाद ही हुआ है. कोविंद को उम्मीदवार बनाने में संघ की खासी भूमिका दिखती है. लेकिन भाजपा जाति का दांव खेलकर सभी राजनीतिक दलों को चित्त कर दिया. ऐसे में कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को उतारना कांग्रेस और प्रतिपक्ष की मजबूरी बन गयी थी. हालांकि चुनाव नजीते जो भी हों, लेकिन कोविंद के सामने मीरा कुमार हर स्थिति में फिट बैठती हैं.
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