कहते हैं कि आत्मविश्वास होना अच्छी चीज है, मगर जब यही आत्मविश्वास अति आत्मविश्वास में बदल जाती है तो यह इंसान को मुश्किल में डाल देती है. अति आत्मविश्वास का यही नजारा पिछले एक साल में ब्रिटेन के दो प्रधानमंत्रियों में देखने को मिला, डेविड कैमरन को जहाँ अपनी अति आत्मविश्वास का खामियाजा अपनी कुर्सी गवां कर भुगतना पड़ा तो वर्तमान प्रधानमंत्री थेरेसा मे को यही खामियाजा अपनी बहुमत गँवा कर भुगतना पड़ रहा है.
क्या था मामला....
अगर आप से कोई कहे की आप बिना किसी चुनावी झंझट में पड़े अगले तीन साल यानि साल 2020 तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रह सकते हैं तो शायद ही कोई चुनावी झंझट में पड़ना चाहेगा. मगर अपनी जीत को लेकर अति आत्मविश्वास से लबरेज थेरेसा मे ने इससे उलट फैसला किया. मे ने ब्रेग्जिट से जुड़े फैसले लेने में सुविधा के खातिर समय से तीन साल पहले ही मध्यावधि चुनाव कराने का फैसला कर लिया, ब्रिटेन का पिछला चुनाव साल 2015 में ही सम्पन्न हुआ था जब की अगला चुनाव 2020 में होना था. हालाँकि, चुनाव परिणामों में कंज़र्वेटिव पार्टी को साल 2015 के चुनावों से भी 13 सीट कम ही मिली, और पार्टी बहुमत के 326 के आकंड़े से 8 सीट दूर ही रह गयी. प्रचंड बहुमत की आस लगाए थेरेसा मे के लिए यह किसी झटके से कम न था. अब अति आत्मविश्वास में लिया गया थेरेसा मे का यह फैसला आ बैल मुझे मार कहावत को चरितार्थ करते नजर आ रही है, मे अब प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए संघर्षरत हैं.
डेविड कैमरन को भी गंवानी पड़ी थी कुर्सी.... अति आत्मविश्वास का ऐसा ही वाकया इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन द्वारा भी देखा गया था. ब्रिटेन के यूरोपीयन यूनियन में बने रहने या बाहर...
कहते हैं कि आत्मविश्वास होना अच्छी चीज है, मगर जब यही आत्मविश्वास अति आत्मविश्वास में बदल जाती है तो यह इंसान को मुश्किल में डाल देती है. अति आत्मविश्वास का यही नजारा पिछले एक साल में ब्रिटेन के दो प्रधानमंत्रियों में देखने को मिला, डेविड कैमरन को जहाँ अपनी अति आत्मविश्वास का खामियाजा अपनी कुर्सी गवां कर भुगतना पड़ा तो वर्तमान प्रधानमंत्री थेरेसा मे को यही खामियाजा अपनी बहुमत गँवा कर भुगतना पड़ रहा है.
क्या था मामला....
अगर आप से कोई कहे की आप बिना किसी चुनावी झंझट में पड़े अगले तीन साल यानि साल 2020 तक प्रधानमंत्री के पद पर बने रह सकते हैं तो शायद ही कोई चुनावी झंझट में पड़ना चाहेगा. मगर अपनी जीत को लेकर अति आत्मविश्वास से लबरेज थेरेसा मे ने इससे उलट फैसला किया. मे ने ब्रेग्जिट से जुड़े फैसले लेने में सुविधा के खातिर समय से तीन साल पहले ही मध्यावधि चुनाव कराने का फैसला कर लिया, ब्रिटेन का पिछला चुनाव साल 2015 में ही सम्पन्न हुआ था जब की अगला चुनाव 2020 में होना था. हालाँकि, चुनाव परिणामों में कंज़र्वेटिव पार्टी को साल 2015 के चुनावों से भी 13 सीट कम ही मिली, और पार्टी बहुमत के 326 के आकंड़े से 8 सीट दूर ही रह गयी. प्रचंड बहुमत की आस लगाए थेरेसा मे के लिए यह किसी झटके से कम न था. अब अति आत्मविश्वास में लिया गया थेरेसा मे का यह फैसला आ बैल मुझे मार कहावत को चरितार्थ करते नजर आ रही है, मे अब प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए संघर्षरत हैं.
डेविड कैमरन को भी गंवानी पड़ी थी कुर्सी.... अति आत्मविश्वास का ऐसा ही वाकया इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन द्वारा भी देखा गया था. ब्रिटेन के यूरोपीयन यूनियन में बने रहने या बाहर जाने के फैसले को लेकर पिछले साल एक जनमत संग्रह कराया गया था, कैमरन चाहते थे कि इंग्लैंड यूरोपियन यूनियन में बना रहा और ऐसी ही उम्मीद उन्हें वहां की जनता से भी थी. हालाँकि, जब जनमत संग्रह के नतीजे आये तो कैमरन के उम्मीद के विपरीत ब्रिटेन की जनता ने यूरोपियन यूनियन से बाहर रहने का फैसला सुनाया, और इसी फैसले के बाद कैमरन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. हालाँकि अगर कैमरन चाहते तो जनमत संग्रह नहीं भी करा सकते थे, मगर कैमरन का अति आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा.
अटल बिहारी वाजपेयी भी हुए थे अति आत्मविश्वास के शिकार... चुनावों में अपनी जीत को लेकर आस्वस्त होने के कुछ उद्धरण भारत में भी मौजूद है. साल 2004 में भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की एनडीए सरकार थी, अपने किये गए कामों और हालिया संपन्न हुए राज्य चुनावों के परिणाम के बाद सत्ता में बैठी सरकार को यह उम्मीद थी की फिर से सत्ता में उन्ही की वापसी होगी और इसी खुशफहमी में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अवधि पूरे होने के पहले छह महीने पहले ही चुनाव करवा दिए. हालाँकि उन चुनावों में बीजेपी और सहयोगी दलों को हार का मुंह देखना पड़ा और एनडीए सरकार सत्ता से बाहर हो गयी.
1975 में इमरजेंसी लगाने के बाद साल 1977 के चुनावों में इंदिरा गाँधी अपनी प्रचंड जीत को लेकर आस्वस्थ थी हालाँकि चुनाव नतीजे इसके उलट आये और कांग्रेस की चुनावी हार हुई, यहाँ तक कि इंदिरा गाँधी अपनी सीट तक नहीं बचा सकी.
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