नोटबंदी के फ़ैसले को अब पूरे एक महीने होने को है और इस दौरान देश ने एक लंबी दूरी तय कर ली है. देश ने एक नई करवट ली है, जिसके कई रंग और पहलू हैं. इसमें बहुतों के लिए बहुत कुछ सीखने को था, जो इस देश के समाज और राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ा है. राजनीतिक दृष्टिकोण से बात करें, तो एक बड़ा वर्ग अपने-अपने तरीके से अब भी विरोध में जुड़ा है, नए तरीक़े जुगाड़ने में लगा है, भारत बंद की पुकार देकर भी देख लिया गया. वित्तीय आपातकाल से लेकर सेना की मदद से तख्तापलट तक के आरोप सामने आ गए. संभव है कुछ और अभी भी आने वाले होंगे. पर बड़ा सवाल यह कि आख़िर इस विऱोध से हासिल क्या हुआ?
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फाइल फोटो- ममता बनर्जी और अरविंद केजरिवाल |
संसद का लगभग आधा सत्र इस विरोध की भेंट चढ़ गया. विपक्ष के विरोध की रणनीति देखकर अब समझ नहीं आ रहा कि इसकी सीमा या दायरा क्या होगा. विरोध करते-करते शायद विपक्ष भी उस चौराहे पर पहुँच गया है कि जहाँ से उसे कहाँ और किस दिशा में आगे बढ़ना है, तय नहीं कर पा रहा. इस बीच नए महीने में लोगों के खातों में सैलरी भी आ गई और क़तारें फिर से दिखने लगी है. पर कुछ लोगों को दर्द या पीड़ा इस बात की है और देश में कहीं क़ानून-व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ पा रही, लोग धैर्य और संयम से क़तार में क्यों लगे हैं, बग़ावत की स्थिति क्यों नहीं पैदा हो पा रही, किसान सड़कों पर क्यों नहीं उतर रहे, ग़रीब-मज़दूर का दर्द मीडिया क्यों नहीं दिखा रहा, उद्घोग जगत-व्यापारी वर्ग अपने नुकसान की दुहाई देकर छाती क्यों नहीं पीट रहा, सब्ज़ियाँ महँगी होने की बजाय सस्ती क्यों होने लगीं, नमक-चीनी-आटा के संकट की जो अफ़वाह फैलाई गई, उसे बल या समर्थन क्यों नहीं मिला, वग़ैरह-वग़ैरह. अफ़वाह यहाँ तक फैलाई गई कि सरकार के पास करेंसी ख़त्म हो गई है, 500 और 2000 के नए नोट के प्रिटिंग का काम बंद है, लिहाजा नोट संकट बढ़ेगा और यह स्थिति जल्दबाज़ी में फ़ैसला लिए जाने की वजह से पैदा हुई है.
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चर्चा इस बात को लेकर भी ज़ोर पकड़ने लगी है कि आख़िर इस तरह का बड़ा फ़ैसला लेकर सरकार को क्या मिला. सवाल पूछे जा रहे है और पूछे जाएँगे कि क्या काला धन वापस आ गया, क्या जिस 14 लाख करोड़ देश के अंदर काला धन होने की बात कही जा रही थी, क्या राशि उतनी ही बड़ी और उसे हासिल करने में कुछ सफलता मिली भी या नहीं, और अगर पैसा आया तो आने वाले दिनों में जिन्होंने 50 दिनों के संकट में सरकार का साथ दिया, उनके अच्छे दिन आएँगे भी या नहीं. बहस इस विषय यह भी है कि जिस तेज़ी से हम कैशलेस सोसाइटी की बात कर रहे हैं, उसके लिए क्या देश या समाज तैयार है. पिछले दिनों जिस तरह बड़े पैमाने पर कई बड़े बैंकों के क़रीब अस्सी हज़ार कस्टमर के डाटा लीक होने की ख़बर आई, जिसके बाद उन बैंकों ने अपने-अपने ग्राहकों से अपनी पिन, पासवर्ड तत्काल चेंज करने की मुहिम चलाई, ऐसे में जिस आनलाइन ट्राजेक्शन पर ज़ोर देने की हम बात कर रहे हैं, वह पूरी तरह से सुरक्षित है भी या नहीं.
सरकार के फ़ैसले के औचित्य की चर्चा करें तो एक तुलना से कुछ तथ्य स्पष्ट हो जाएँगे. स्थिति यह है कि काले धन को सफ़ेद करने की जो आईडीएस (इनकम डिक्लरेशन स्कीम) सरकार लेकर आई, जिसकी आख़िरी तारीख 30 सितंबर मुर्करर की गई थी, उसके तहत क़रीब 59 हज़ार करोड़ रूपए जमा हुए थे और अब 8 नवंबर के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद से क़रीब 11 लाख करोड़ रूपए जमा हुए हैं. छिपाने और जुगाड़ लगाने की भी कई कोशिशें दिखी, जो अब भी जारी है और यह जुगाड़ इस उम्मीद पर टिकी हैं कि शायद सरकार राजनीतिक दबाव में आकर अपने फ़ैसले पर ग़ौर कर ले या कुछ ढील दे दे. पर हर नई घोषणा के साथ यह उम्मीदें भी टूटती जा रही है. हालात ऐसे हैं कि फैसला करेंसी को लेकर हुआ और लोग सोना तक छिपाने में जुट गए. हाल यह है कि 10 नवंबर के बाद से देश भर के हवाई अड्डों से 164 क़िलो सोना ज़ब्त हो चुका है, साथ ही 40 करोड़ रूपए भी सिर्फ हवाई अड्डों से जब्त हो चुके हैं.
पुराने नोट के ज़ब्त होने, फेंके जाने, छिपाने और नई करेंसी के पकड़ने जाने का सिलसिला जारी है. सुरक्षा एजेंसियों की मानें तो बांग्लादेश और मालदा से रास्ते जो नक़ली नोट के भारत में घुसने का एक नेटवर्क बन चुका था, पिछले एक महीने से यह नेटवर्क पूरी तरह से बंद पड़ा है, न जाली नोट बने और न ही उनकी सप्लाई हो रही है और न उनकी ज़ब्ती हो रही है. घाटी में पाँच बैंक लूट लिए गए, क्योंकि हवाला से पैसे की सप्लाई पर पहले ही नकेल कसी जा चुकी है और अलगाववादियों के जो पैसे थे, वो किसी काम के नहीं रहे. सूचना यह भी आ रही है कि पत्थरबाज़ फ़िलहाल कंधों को आराम देने में लगे हैं, क्योंकि इस काम के लिए जहाँ से पैसे मिल रहे थे, उन्हें भी नई करेंसी चाहिए. नक्सलियों की कैश सप्लाई पर ग्रहण लगा हुआ है, लिहाज़ा होम मिनिस्ट्री के आँकड़ों की मानें तो 10 नवंबर के बाद अब तक क़रीब 564 नक्सली भी सरेंडर कर चुके हैं. जिन नक्सलियों ने सरेंडर किया, उन्होंने जो बयान दिया, उसके मुताबिक दिक़्क़त उन्हें भी महसूस हो रही थी, क्योंकि न कैश बचा और न मोटिवेशन. अब इसका भी आंकलन अपने-अपने तरीक़े से संभव है.
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इनके सबके बीच, सरकार फ़िलहाल सैलरी के संकट से निपटने में लगी है. अच्छी बात यह है देश के क़रीब 2.2 लाख एटीएम में क़रीब 75 फ़ीसदी एटीएम के कैलिब्रेशन का काम पूरा हो चुका है, नई करेंसी की सप्लाई बढ़ने से आने वाले दिनों में भीड़ छँटने की उम्मीद है, यूँ भी क़तार अब सिर्फ दिल्ली और एनसीआर टाउन में ज्यादा दिख रही हैं. गाँव या छोटे शहर में न तो बैंकों में क़तार दिख रही और मीडिया वहाँ तक नहीं पहुँच पा रही है. लेकिन इन सबके बीच सवाल घूम फिरकर वहीं उठ रहा कि आख़िर पूरे फ़ैसले का विरोध कर लोगों ने क्या हासिल कर लिया. अलबत्ता नुक़सान यह हुआ कि जिस मोदी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष ने बार-बार एकजुटता दिखाने का प्रयास किया, उसमें एकता कम, दरार ज़्यादा दिख गई. तीन दिन में फ़ैसला नहीं वापस लेने की स्थिति में बग़ावत की धमकी देने वाले केजरीवाल शांत हो गए, ममता बनर्जी सरकार को विरोध करते-करते विपक्ष के विरोध का शिकार होने लगी हैं. पटना की रैली के बाद ममता और नीतिश के बीच जो हुआ, उसे सबने देख लिया.
ममता कह रही हैं कि लोगों ने उन्हें धोखा दे दिया, जिन्हें बख़्शा नहीं जाएगा, जबकि जनता दल (यू) ने चिट-फ़ंड घोटाले का हवाला देकर ममता के अभियान पर ही सवाल खड़ा कर दिया, केसी त्यागी ने यहां तक कह दिया कि ममता दीदी, लिहाजा दादा बनने की कोशिश न करें. संसद की तस्वीर पर नज़र डालें तो वहाँ तो और भी अजीबोग़रीब तमाशा जारी है. अब तक के गतिरोध के कारणों पर नजर डालें तो लग यही रहा है कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि लोगों को किस तरह की परेशानी हो रही है, किसान परेशान हैं, मजदूर को मजदूरी नहीं मिल रही, फैक्ट्रियों में छंटनी हो रही है, छोटे व्यापारियों के व्यापार को झटका लगा है. लोकसभा में तीन हफ़्ते से चर्चा इस मुद्दे पर अटकी है कि बहस नियम 56 के तहत हो या 193 के तहत. तीन हफ्ते से नियम 56 के तहत बहस की मांग करने वाली कांग्रेस ने सोमवार को अचानक अपना सुर बदल दिया और मांग हो रही है कि बहस 184 के तहत कराई जाए.
अब अचानक यह सुर क्यों बदला, यह अलग चर्चा का विषय है. राज्यसभा में आधे रास्ते पर आकर बहस इसलिए अटकी पड़ी है कि विपक्ष की मांग है कि प्रधानमंत्री माफ़ी मांगे. यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है या नहीं किया जा रहा कि प्रधानमंत्री को आख़िर माफ़ी किस चीज को लेकर माँगनी है. पहले माँग हुई कि प्रधानमंत्री सदन में आएं औऱ बहस में हिस्सा लें, जब मोदी सदन में आए और कहा गया कि प्रधानमंत्री बहस में हिस्सा लेंगे, तो माँग की गई की वह यही बैठे रहकर पूरी बहस सुने और तब जवाब दें, जब चेयर ने इस माँग का समर्थन नहीं किया तब से रट लगी है कि प्रधानमंत्री माफ़ी माँगे. दरअसल, विपक्ष की स्थिति उस अभिमन्यु की तरह हो गई है जिसे चक्रव्यूह में घुसने का तरीक़ा या मंत्र तो पता था, पर निकलने का नहीं और इस पूरे तौर-तरीक़े पर बाहर किरकिरी हो रही हो सो अलग.
कांग्रेस कह रही है कि वह नोटबंदी के फ़ैसले के साथ है, पर साथ देने का जो तरीक़ा अपनाया गया है, उसमें समर्थन कम, विरोध के तेवर ज्यादा दिख रहे हैं. जिस जनता की परेशानी के नाम पर विरोध किया जा रहा है, वो लोग मीडिया के कैमरों के सामने से स्वीकार कर रहे है कि उन्हें परेशानी तो है, पर वे फ़ैसले के साथ हैं. राहुल गांधी बैंक की लाइन के लेकर रात में सरोजिनी नगर मार्केट तक घूम आए, पर दर्द कम मोदी-मोदी के नारे ज्यादा सुनने को मिले. आने वाले दिनों में सवाल जरूर पूछे जाएंगे कि आखिर नियम प्रमुख है या लोगों का दर्द. बहस 56 के तहत हो, या 184 या 193 के तहत, उससे कतारों में खड़े लोगों को क्या लेना-देना. किसान हो, मजदूर हो, महानगरों में आकर पढ़ने वाले स्टूडेंट हो, किरायों पर रह रहे परिवार हो, उन्हें नियम के अंतर्गत बहस से ज्यादा उपाय चाहिए, जिससे उनके दैनिक व्यवस्था में आ रही चुनौतियों के कम कर सके. वरना बहस हो भी जाए और आम जनजीवन को कोई राहत न मिले, तो इस विरोध का भी क्या फायदा.
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