यूपी में गधे पर चल रही गर्मागर्म बहस पर अब सियासी रंग भी चढ़ चुका है. 11 मार्च को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने हैं और दो दिन बाद होली है. होली पर अमूमन देखा गया है कि लाल और हरे रंग का ही ज्यादा प्रभाव रहता है. हर्बल गुलाल की भी वैसे तो अच्छी खासी रेंज है लेकिन वहां भी इन्हीं दोनों का दबदबा दिखता है. संयोग से समाजवादी पार्टी के झंडे में भी ये ही दोनों रंग हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि इस बार होली पर केसरिया रंग चढ़ा होगा. बात सियासी रंगों की और बढ़ चली है तो मालूम होना चाहिये कि चुनावी बाजार में एक और रंग है नीला, ये बात अलग है कि इसे तमाम सर्वे रिपोर्ट में उसे हल्के में लिया जाता रहा है.
फर्क नहीं पड़ता
औपचारिक तौर पर चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के पहले से ही कई सर्वे आते रहे हैं. ज्यादातर सर्वे में लड़ाई में बीएसपी को भी बताया जाता है. भले ही त्रिशंकु विधानसभा की बात हो लेकिन शायद ही किसी सर्वे में बीएसपी को लीड करते बताया गया हो. वैसे इन बातों से मायावती को कोई फर्क नहीं पड़ता. मायावती अपने दलित समर्थकों को बड़े आराम से समझा लेती हैं, "ओपिनियन पोल पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. हम अपने बूते सरकार बनाएंगे. ओपिनियन पोल की पोल खुल जाएगी."
अब सवाल ये है कि यूपी में अगर त्रिशंकु विधानसभा के कयास लगाये जा रहे हैं तो मायावती उसमें कहां खड़ी हैं? और अगर त्रिभुज के एक छोर पर खड़ी हैं तो उनके आगे बढ़ने में बड़ा रोड़ा कौन बन रहा है - बीजेपी या समाजवादी गठबंधन?
खामोश कदमों की आहट
2012 की हार के बाद मायावती ने किसी उपचुनाव में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उन्हें व्यर्थ ऊर्जा खर्च करने में यकीन नहीं है. 2014 के जब नतीजे आये तो...
यूपी में गधे पर चल रही गर्मागर्म बहस पर अब सियासी रंग भी चढ़ चुका है. 11 मार्च को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने हैं और दो दिन बाद होली है. होली पर अमूमन देखा गया है कि लाल और हरे रंग का ही ज्यादा प्रभाव रहता है. हर्बल गुलाल की भी वैसे तो अच्छी खासी रेंज है लेकिन वहां भी इन्हीं दोनों का दबदबा दिखता है. संयोग से समाजवादी पार्टी के झंडे में भी ये ही दोनों रंग हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि इस बार होली पर केसरिया रंग चढ़ा होगा. बात सियासी रंगों की और बढ़ चली है तो मालूम होना चाहिये कि चुनावी बाजार में एक और रंग है नीला, ये बात अलग है कि इसे तमाम सर्वे रिपोर्ट में उसे हल्के में लिया जाता रहा है.
फर्क नहीं पड़ता
औपचारिक तौर पर चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के पहले से ही कई सर्वे आते रहे हैं. ज्यादातर सर्वे में लड़ाई में बीएसपी को भी बताया जाता है. भले ही त्रिशंकु विधानसभा की बात हो लेकिन शायद ही किसी सर्वे में बीएसपी को लीड करते बताया गया हो. वैसे इन बातों से मायावती को कोई फर्क नहीं पड़ता. मायावती अपने दलित समर्थकों को बड़े आराम से समझा लेती हैं, "ओपिनियन पोल पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. हम अपने बूते सरकार बनाएंगे. ओपिनियन पोल की पोल खुल जाएगी."
अब सवाल ये है कि यूपी में अगर त्रिशंकु विधानसभा के कयास लगाये जा रहे हैं तो मायावती उसमें कहां खड़ी हैं? और अगर त्रिभुज के एक छोर पर खड़ी हैं तो उनके आगे बढ़ने में बड़ा रोड़ा कौन बन रहा है - बीजेपी या समाजवादी गठबंधन?
खामोश कदमों की आहट
2012 की हार के बाद मायावती ने किसी उपचुनाव में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उन्हें व्यर्थ ऊर्जा खर्च करने में यकीन नहीं है. 2014 के जब नतीजे आये तो मायावती अलर्ट हो गयीं, ये बात अलग है कि बाद के उपचुनावों से भी वो दूर ही रहीं. केंद्र में मोदी के सत्ता संभालने के साथ ही मायावती अपने मिशन में जुट चुकी थीं.
2014 में बीएसपी को भले ही कोई सीट नहीं मिली लेकिन वोट शेयर ने मायावती को काफी बल दिया. तब तक मायावती ये भी समझ चुकी थीं कि दलितों में जाटव तो उनके साथ है, लेकिन गैर जाटव उनसे दूर जा चुके हैं. पश्चिम यूपी में जाटों और बाकी हिस्सों में सवर्ण वोटों का मोदी लहर में बह जाने को भी मायावती ने गंभीरता से लिया.
यही वो वक्त रहा जब मायावती ने मुस्लिम वोट बैंक पर फोकस किया. मायावती को समझ आ गया कि यही वो वोट है जिसे वो अगर समाजवादी पार्टी से झटक लें तो सत्ता में वापसी संभव है. मायावती जानती थीं कि गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित भी भले ही बीजेपी की ओर हो लें लेकिन अगर मुस्लिम समुदाय उनके साथ आ जाये तो बात बन सकती है.
मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का पुराना फॉर्मूला छोड़ कर दलित और मुस्लिम गठजोड़ का फैसला किया और चुपचाप तैयारियों में लग गयीं.
तैयारियों में सबसे आगे
चुनावी तैयारियों के हिसाब से देखें तो बीएसपी सबसे आगे रही. मायावती ने सबसे पहले विधानसभा प्रभारियों की नियुक्ति की. ये प्रभारी ही मायावती के भावी उम्मीदवार थे जिसमें संशोधनों के लिए उन्होंने पूरी गुंजाइश छोड़ रखी थी.
समाजवादी पार्टी जहां घर के झगड़े में उलझी रही वहीं बीजेपी टिकट के दावेदारों की तादाद देखकर आखिर तक फैसला ही टालती रही. कई सीटों पर तो बीजेपी ने नामांकन से दो दिन पहले उम्मीदवार घोषित किये - और जहां पहले घोषणा कर डाली वहां के बवाल सबने देखे ही.
टिकट बंटवारे में बीजेपी को देर हुई लेकिन चुनाव प्रचार के मामले में वो समाजवादी पार्टी से आगे रही. मायावती ने तो कई चरणों में रैलियां कीं - और उनके जरिये धीरे धीरे अपना इरादा जाहिर करती गईं.
बहुजन से सर्वजन की ओर
जिस बहुजन के नाम पर बीएसपी बनी उसे बदलते वक्त के साथ मायावती ने सर्वजन में तब्दील कर दिया - और अब वो उसी की बात करती हैं. सिर्फ मुख्यमंत्री पद या उत्तराधिकारी को लेकर - जो सिर्फ दलित या मुस्लिम हो सकता है.
नये गठजोड़ की बात रखने से पहले मायावती शुरुआती रैलियों में 'तिलक तराजू और तलवार...' जैसे नारों पर सफाई देती रहीं. मकसद साफ था ब्राह्मण और दूसरे सवर्ण पूरी तरह नाराज न हो जाये.
लेकिन एक बात पर उनका पूरा जोर रहा - वो आरक्षण कभी खत्म नहीं होने देंगी. हां, वो गरीब सवर्णों को भी आरक्षण देने की बात करने लगी हैं. जब उन्हें लगा कि उनकी बनवाई मूर्तियां, विकास के मुद्दे के बीच बाधा बनेंगी तो उन्होंने वादा किया कि आगे से वो ऐसा नहीं करने वाली हैं. मायावती समझ चुकी थीं कि मोदी और अखिलेश दोनों विकास की बात करेंगे. वैसे ये तब की बात है जब अखिलेश यादव ने पत्थरवाली सरकार कहना नहीं शुरू किया था - और जब न तो कब्रिस्तान, कसाब का जिक्र हुआ था और न ही गधे पर बहस.
दुश्मन नंबर 1 कौन?
समाजवादी पार्टी और बीएसपी दोनों के लिए सांप्रदायिकता के नाम पर अपने वोटर को एकजुट करने का सबसे बढ़िया हथियार बीजेपी ही कारगर लगती है. बीजेपी का डर दिखाकर दोनों ही मुस्लिम समुदाय को खुद से जोड़ने की कोशिश करते हैं.
अपने ऊपर होने वाली टिप्पणियों के जवाब में मायावती अखिलेश को दागी तो अमित शाह को सबसे बड़ा कसाब तक बता चुकी हैं. मुलायम पर हमले के लिए वो अक्सर सहानुभूति के साथ शिवपाल का नाम लेती रहती हैं. लेकिन बलिया में सतीश चंद्र मिश्रा से जब एक पत्रकार ने पूछा कि क्या चुनाव बाद आप शिवपाल यादव से गठबंधन करेंगे? उन्होंने साफ तौर पर कहा - ऐसी जरूरत नहीं पड़ेगी.
असल बात तो ये है कि मायावती की राह में सबसे बड़ा रोड़ा वो है जो अपनी गलतियों के कारण कमजोर पड़ रहा हो. बीजेपी कार्यकर्ताओं के असंतोष से जूझ रही है तो समाजवादी पार्टी घर के झगड़े से अब तक नहीं उबर पायी है. तीसरे चरण की वोटिंग में साफ नजर आया कि यादव परिवार कितना साथ है.
अखिलेश यादव विकास और बिजली की बात तो करते हैं लेकिन हकीकत बिलकुल अलग है. विकास लखनऊ तक सीमित लगता है तो बिजली के घंटे सिर्फ कागजों पर बढ़ें हैं, बिजली आती तो वैसे ही है - ये बात अलग है कि उसे लोकल फॉल्ट बता कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. अच्छी बात ये है कि इसमें गांव और शहर में बहुत ज्यादा भेदभाव नहीं किया जाता.
बीजेपी अपनी रणनीतिक गलतियों पर पर्दा ढकने लिए विकास की सीढ़ी से उतर कर श्मशान और कब्रिस्तान के चक्कर लगाने लगी है और बहस मुद्दों से छिटक कर कसाब और गधे पर जा पहुंची है - बिहार चुनाव की ही तरह निजी हमले तो लोग देख सुन ही रहे हैं.
ये कहना तो मुश्किल है कि मायावती पर सबसे ज्यादा हमले कौन करता है, लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि इन सब बातों से मायावती के समर्थकों पर कितना असर होता है. अखिलेश यादव चाहे जितनी बार 'पत्थर वाली सरकार' बोलें मायावती के दलित वोटर पर इसका कोई असर नहीं होने वाला. बीएसपी समर्थकों पर अगर किसी बात का असर होगा तो सिर्फ उन बातों का जैसी बातें दयाशंकर सिंह ने कही थीं.
जब मोदी ने खुद को यूपी का गोद लिया बेटा बताया तो प्रियंका गांधी ने कहा कि इसके लिए यूपी के लड़के ही काफी हैं, लेकिन मायावती ने उसे बेटे-बेटी में उलझा दिया - कुर्सी पर तो बस यूपी की बेटी ही बैठेगी. जी हां, दलित की बेटी.
हालांकि, इन बहसों और निजी हमलों से मायावती की रैलियों में जुटने वाली भीड़ पर कोई फर्क नहीं पड़ा है - उनके लिए डर की बात बस ये हो सकती है कि कहीं ये भी 2012 और 2014 वाली भीड़ तो नहीं.
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