लालू प्रसाद के बयान की बात करें तो लालकृष्ण आडवाणी भी राष्ट्रपति पद की रेस में थे. मोदी सरकार की ओर से आडवाणी को उम्मीदवार बनाने की संभावना तो कम ही थी, अगर लालू और उनकी पार्टी का कोई और इरादा था, ये तो वही जानें.
मोदी की ओर से आडवाणी को उम्मीदवार नहीं बनाये जाने के दो कारण साफ थे. पहला, मोदी और आडवाणी के बीच मतभेद इतने गहरे रहे कि इसकी संभावना नहीं के बराबर थी. दूसरा, बाबरी केस सुप्रीम कोर्ट में था और अदालत का रुख कुछ भी हो सकता था - और उससे पहले ऐसा होना मुमकिन न था.
बहरहाल, फिलहाल विपक्ष की ओर से कोशिश यही है कि एक मजबूत उम्मीदवार लाया जाये जो बीजेपी के कैंडिडेट को कड़ी टक्कर दे सके.
अब तक की लड़ाई
राष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष ही आमने सामने होते हैं. एक बार ऐसा भी हुआ कि सत्ता पक्ष में ही दो पक्ष बन गये और आमने सामने हो गये.
ये वाकया है कि 1969 के राष्ट्रपति चुनाव का जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. तब कांग्रेस पार्टी की ओर से नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित हुआ, लेकिन इंदिरा गांधी को वो पसंद नहीं थे. इंदिरा ने वीवी गिरि का नाम आगे किया. दोनों ने इंडिपेंडेंट कैंडिडेट के तौर पर नामांकन भरा. नेताओं के सामने सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया वे जायें तो किधर जाएं? इसका भी हल इंदिरा गांधी ने ही निकाला. इंदिरा ने सासंदों और विधायकों को अपनी मन की बात सुनने को कहा.
चुनाव हुआ तो इलेक्टोरल वोट में वीवी गिरि को 4,20,077 और नीलम संजीव रेड्डी को 4,05,427 वोट मिले - इंदिरा की पसंद गिरि ही राष्ट्रपति बने. फिर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार के दौरान रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने. 1997 में कांग्रेस के केआर नाराणयन को पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चुनौती तो दी लेकिन बहुत कम वोट पा सके.
महागठबंधन के लिए वॉर्मअप सेशन है राष्ट्रपति चुनाव
मौजूदा सत्ताधारी बीजेपी इससे पहले सिर्फ 2002 में अपनी पसंद का राष्ट्रपति चुनने की स्थिति में रही. यही वो दौर था जब बीजेपी के शासन वाला गुजरात दंगों के कारण दुनिया भर में चर्चा में रहा. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी प्रमुख पद पर एक मुस्लिम की दरकार थी. यही वो परिस्थितियां रहीं जिसके पैरामीटर पर एपीजे अब्दुल कलाम पूरी तरह फिट बैठ रहे थे. कलाम में ऐसे कई गुण भी थे जो बीजेपी और संघ के राष्ट्रवादी मुस्लिम खांचे में उन्हें करीने से पिरो दे रहे थे.
कलाम पसंद तो वाजपेयी को भी थे लेकिन उनका नाम आगे बढ़ाया समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने. फिर एनडीए सरकार और सीपीएम को छोड़ कर विपक्षी दलों की सहमति से कलाम ने इंडिपेंडेंट कैंडिडेट के तौर पर नामांकन भरा और जीते भी. कलाम के खिलाफ सीपीएम ने आईएनए की कैप्टन लक्ष्मी सहगल को चुनाव में उतारा था.
2007 में सत्ताधारी कांग्रेस की प्रतिभा पाटील के खिलाफ पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत चुनाव लड़े थे जिन्हें एनडीए का समर्थन हासिल था. शेखावत को हरा कर प्रतिभा पाटील राष्ट्रपति बनीं. इसी तरह 2012 में यूपीए के प्रणब मुखर्जी के खिलाफ एनडीए ने पीए संगमा को विपक्ष का उम्मीदवार बनाया था.
एक बार फिर विपक्ष सत्ता पक्ष को मजबूत टक्कर देने की तैयारी में जुटा है - और कोशिश है कि एकजुटता 2019 के लिए महागठबंधन का आधार भी बने. दरअसल, मोदी सरकार अब भी अपने बूते अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने की स्थिति में नहीं है. ये बात अलग है कि यूपी चुनाव और गोवा और मणिपुर में सरकार बना लेने से फासला कम हो गया है.
ऐसे में सत्ता पक्ष को किसी और पार्टी के सहयोग की जरूरत होगी. AIADMK से बीजेपी को बड़ी उम्मीद थी लेकिन तमिलनाडु का मौजूदा नेतृत्व केंद्र के प्रति वो भाव नहीं रखता जैसी नजदीकी कभी जयललिता के साथ रही. सक्रिय विपक्षी दलों को इसमें अब बीजेडी और AIADMK के भी साथ देने की उम्मीद बढ़ गयी है. उनके अलावा विपक्ष को बीजेपी और शिवसेना के रिश्ते को देखते हुए भी कुछ आशा है. वैसे भी पिछले दो चुनावों में शिवसेना ने विपक्ष का साथ न देकर सत्ता पक्ष के उम्मीदवार का सपोर्ट किया था.
राष्ट्रपति चुनाव में इस बार भी ममता बनर्जी 2012 की तरह खासी सक्रिय हैं. पिछली बार ममता और मुलायम ने फिर से पूर्व राष्ट्रपति कलाम के नाम का प्रस्ताव रखा था, लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम के यूटर्न से मामला गड़बड़ हो गया. ममता ने लिए ये उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा धोखा था.
कैसा हो कैंडिडेट
राष्ट्रपति चुनाव असल में विपक्षी दलों के सामने 2019 के आम चुनाव के लिए वॉर्मअप सेशन साबित हो रहा है. ममता बनर्जी एक बार फिर सक्रिय हैं और ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से उनकी मुलाकात भी इसी सिलसिले में समझी जा रही है. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एक्टिव लोगों में सबसे आगे नीतीश कुमार हैं और सोनिया गांधी से उनकी ताजा मुलाकात इसीलिए चर्चा में है. ममता और नीतीश के अलावा शरद पवार ने भी खासी दिलचस्पी दिखाई है.
नीतीश कुमार चाहते हैं कि बीजेपी और मोदी के खिलाफ पूरे देश में बिहार जैसा ही महागठबंधन खड़ा हो. बिहार जैसे से मतलब तो यही हुआ कि उसके नेता भी नीतीश ही हों - लेकिन नेता के नाम पर कांग्रेस को राहुल गांधी के अलावा शायद ही कोई नाम मंजूर हो. मौके की नजाकत को देखते हुए नीतीश की ओर से गेंद कांग्रेस की ओर उछाल दी गयी है - बड़ी विपक्षी पार्टी होने के कारण महागठबंधन की अगुवाई भी कांग्रेस ही करे. कम से कम राष्ट्रपति चुनाव में तो इसमें कोई रुकावट भी नहीं है.
सबसे बड़ा सवाल यही है कि राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष का उम्मीदवार कैसा हो? बेहतर तो यही होगा कि ऐसा उम्मीदवार हो जिसे खारिज करना सत्ता पक्ष के लिए बेहद मुश्किल हो. आदर्श स्थिति तो ये होगी कि वो संघ और मोदी के एजेंडे और आइडियोलॉजी को सीधे सीधे चैलेंज करे या फिर ऐसा हो कि एनडीए के बीच भी इतनी स्वीकार्यता हो कि क्रॉस वोटिंग का खतरा पैदा हो जाये.
एक बात तो साफ है कि विपक्ष अगर फिर से किसी मुस्लिम कैंडिडेट के बारे में सोचता है तो मोदी न तो वाजपेयी हैं और न अब उन्हें उतना सॉफ्ट बनने की जरूरत है. संघ प्रमुख मोहन भागवत, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह खुद भी ऐसे ही किसी उम्मीदवार की तलाश में होंगे जो उनके हर पैमाने पर खरा उतरता हो. इसलिए विपक्ष को अपना उम्मीदवार चुनते वक्त इन बातों का भी ध्यान रखना होगा.
खबरों को खंगालें तो कम ही संभावना है कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के रेस से बाहर होने के बाद सुषमा स्वराज या सुमित्रा महाजन को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाये. झारखंड की राज्यपाल दीप्ति मूर्मू की संभावना अभी इसलिए भी प्रबल है क्योंकि दलित महिला होने के साथ साथ वो ओडीशा से भी हैं जहां सीएम की कुर्सी पर बीजेपी पहले से ही नजर टिका चुकी है.
राष्ट्रपति पद के लिए अजीम प्रेमजी, एन नारायण मूर्ति और रतन टाटा से लेकर अमिताभ बच्चन तक के नाम चर्चा में आ चुके हैं. अगर ये सत्ता समीकरणों में फिट नहीं हो पाते तो विपक्ष एक बार उनके बारे में सोच तो सकता ही है. सुनी सुनाई है कि शरद यादव ने अनिच्छा जता दी है तो शरद पवार जीत की संभावना तलाश रहे हैं - और फिर मुलायम सिंह ही क्यों नहीं? कभी लालू प्रसाद ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था - क्या अब वो उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनते भी नहीं देखना चाहते? और फिर मायावती क्यों नहीं? वैसे भी अब वो महागठबंधन में शामिल होने के लिए हामी भर ही दी है.
चाहे जो भी हो, राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की हिस्सेदारी सांकेतिक और संगठित विरोध भर होगी. नतीजा भले ही कुछ हासिल न हो - लेकिन 2019 के लिए एक रास्ता तो बन ही सकता है.
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