बाकी बस यही बचा है कि बीजेपी ने स्वामी प्रसाद मौर्य या ऐसे ही किसी मेहमान को यूपी में सीएम कैंडिडेट नहीं घोषित किया है. अभी तक तो बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाराजगी के वाकये देखने को मिल रहे थे, अब खबर है कि आरएसएस कार्यकर्ताओं में भी घोर असंतोष है. दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी ने जब किरण बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया तो जो स्थितियां बनीं, यूपी का मौजूदा माहौल भी तकरीबन वैसा ही हो गया है.
ऐसी नाराजगी!
सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी से हुआ सियासी नफा नुकसान तो जहां का तहां है, बीजेपी को यूपी में रोजाना कार्यकर्ताओं की नाराजगी से दो चार होना पड़ रहा है. 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं के असंतोष की बातें होती तो रहीं लेकिन जो नजारे यूपी में इन दिनों देखने को मिल रहे हैं वैसे कभी नहीं दिखे.
लोक सभा चुनाव से पहले, 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 31 सीटें मिली थीं, जबकि आम आदमी पार्टी को 28 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी. ये चुनाव बीजेपी ने डॉ. हर्षवर्धन की अगुवाई में लड़ा था लेकिन अच्छे प्रदर्शन के बावजूद अगले ही चुनाव में उन्हें हाशिये पर डाल दिया गया. सतीश उपाध्याय बस नाम के अध्यक्ष बने रहे. उनकी मर्जी से किसी को टिकट देना तो दूर, बताया गया कि किसी ने उनसे ये पूछना भी मुनासिब नहीं समझा कि वो खुद चुनाव लड़ना चाहते हैं या नहीं.
सर्वे भले ही बीजेपी को यूपी में सबसे आगे बता रहे हों - लेकिन जीत के लिए जो जमीनी हकीकत होनी चाहिए वो बिलकुल अलग है. बनारस से लेकर बस्ती तक और गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक कार्यकर्ताओं का गुस्सा सड़क पर उतर आया है - और बीजेपी के लिए फिलहाल ये सबसे बड़ी चुनौती है.
संघ कार्यकर्ता भी...
बाकी बस यही बचा है कि बीजेपी ने स्वामी प्रसाद मौर्य या ऐसे ही किसी मेहमान को यूपी में सीएम कैंडिडेट नहीं घोषित किया है. अभी तक तो बीजेपी कार्यकर्ताओं की नाराजगी के वाकये देखने को मिल रहे थे, अब खबर है कि आरएसएस कार्यकर्ताओं में भी घोर असंतोष है. दिल्ली में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी ने जब किरण बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया तो जो स्थितियां बनीं, यूपी का मौजूदा माहौल भी तकरीबन वैसा ही हो गया है.
ऐसी नाराजगी!
सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी से हुआ सियासी नफा नुकसान तो जहां का तहां है, बीजेपी को यूपी में रोजाना कार्यकर्ताओं की नाराजगी से दो चार होना पड़ रहा है. 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं के असंतोष की बातें होती तो रहीं लेकिन जो नजारे यूपी में इन दिनों देखने को मिल रहे हैं वैसे कभी नहीं दिखे.
लोक सभा चुनाव से पहले, 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 31 सीटें मिली थीं, जबकि आम आदमी पार्टी को 28 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी. ये चुनाव बीजेपी ने डॉ. हर्षवर्धन की अगुवाई में लड़ा था लेकिन अच्छे प्रदर्शन के बावजूद अगले ही चुनाव में उन्हें हाशिये पर डाल दिया गया. सतीश उपाध्याय बस नाम के अध्यक्ष बने रहे. उनकी मर्जी से किसी को टिकट देना तो दूर, बताया गया कि किसी ने उनसे ये पूछना भी मुनासिब नहीं समझा कि वो खुद चुनाव लड़ना चाहते हैं या नहीं.
सर्वे भले ही बीजेपी को यूपी में सबसे आगे बता रहे हों - लेकिन जीत के लिए जो जमीनी हकीकत होनी चाहिए वो बिलकुल अलग है. बनारस से लेकर बस्ती तक और गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक कार्यकर्ताओं का गुस्सा सड़क पर उतर आया है - और बीजेपी के लिए फिलहाल ये सबसे बड़ी चुनौती है.
संघ कार्यकर्ता भी खफा
बीजेपी कार्यकर्ता ही नहीं चुनावों पार्टी की रीढ़ बन कर मैदान में डटे रहने वाले आरएसएस कार्यकर्ता भी टिकट बंटवारे में जमीनी कार्यकर्ताओं पर बाहरियों और रिश्तेदारों को तरजीह देने से बेहद खफा हैं. यूपी में संघ की छह यूनिट काम कर रही हैं और इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से चार यूनिट के कार्यकर्ताओं की एक ही राय है.
रिपोर्ट के मुताबिक इस नाराजगी का आलम ये है कि कांग्रेस से बीजेपी में आई रीता बहुगुणा जोशी ने संघ के एक पदाधिकारी से सपोर्ट के लिए मुलाकात करनी चाही तो उन्होंने मिलने से इंकार कर दिया.
संघ के एक प्रचारक के हवाले से रिपोर्ट में बताया गया है कि बीजेपी नेताओं ने उम्मीदवारों के नाम पर उनसे सलाह तो ली लेकिन कोई तवज्जो नहीं दिया. उन्हें बताया गया कि ज्यादातर टिकट काम करने वालों को दिया जाएगा और जो बचेगा उनमें बाहर से आये नेताओं और रिश्तेदारों को दिया जाएगा, लेकिन हुआ बिलकुल इसका उल्टा.
दिल्ली की तरह मुख्यमंत्री उम्मीदवार वाला प्रयोग बीजेपी ने न तो बिहार में किया और न ही असम को छोड़ कर उसके बाद के चुनावों में. इस बार भी गोवा को छोड़कर बीजेपी का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं.
बीजेपी के बड़े नेता टिकट न मिलने से नाराज नेताओं के मान मनौव्वल में लगे हैं तो संघ के पदाधिकारी भी प्रचारकों को ये समझाने में जुटे हैं कि बीजेपी की जीत सबसे अहम है इसलिए वो कुछ देर के लिए बाकी बातें भुला दें, लेकिन उन पर इन बातों का कोई खास असर नहीं दिख रहा. जिस डर से बीजेपी सीएम कैंडिडेट घोषित करने से बचती रही है, वो स्थितियां तो टिकट बंटवारे से ही पैदा हो गई हैं.
इन्हें भी पढ़ें -
यूपी में सियासी पेंडुलम बीजेपी से एसपी-कांग्रेस गठबंधन की ओर मुड़ना शुरू
बीजेपी के लिए यूपी में 'बाहरी' वाली चुनौती से तो बड़ा संकट भीतरी कलह है
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.