यूपी में योगी सरकार के छह महीने पूरे होते होते मदरसों को लेकर दो विवाद हो चुके हैं - और दोनों में महज महीने भर का फासला है. दोनों ही विवादों की जड़ में मदरसों को भेजी गयी सरकारी चिट्ठियां हैं. अगस्त में भेजी गयी चिट्ठी पर जहां सरकार को सफाई देनी पड़ी थी, वहीं दूसरी चिट्ठी के मामले में तो पीछे ही हटना पड़ा है.
ताजा विवाद की खासियत ये है कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ा हुआ है - और किसी को सही जवाब नहीं सूझ रहा है.
संवाद पर विवाद
अभी अगस्त में ही मदरसों को एक सरकारी चिट्टी मिली थी. उस चिट्ठी में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कौन से कार्यक्रम होंगे ये तो बताया ही गया था, कार्यक्रम की वीडियोग्राफी का भी फरमान था. उसके महीने भर के भीतर ही मदरसों को दूसरी चिट्ठी मिली जिसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी के संवाद कार्यक्रम के लिए कम से कम 25 महिलाओं को भेजें. मदरसा प्रबंधकों के ये सरकारी फरमान अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इसके लिए साफ तौर पर मना कर दिया.
प्रधानमंत्री मोदी दो दिन के वाराणसी दौरे पर 22 सितंबर को वाराणसी जाने वाले हैं. इसी दौरान मोदी के साथ मुस्लिम महिलाओं से संवाद का कार्यक्रम रखा गया था. विरोध के चलते ये कार्यक्रम अब टाल दिया गया है. मीडिया के सवालों पर स्थानीय प्रशासन अलग अलग बहाने बना रहा है.
अब सवाल ये है कि भला प्रधानमंत्री को मुस्लिम महिलाओं से ऐसे संवाद की जरूरत क्यों पड़ी?
ये कौन सा संवाद है?
मुस्लिम महिलाओं से संवाद की पहल तो बहुत अच्छी है, लेकिन उसका तरीका बड़ा ही अटपटा है. ये संवाद से तो कहीं ज्यादा किसी राजनीतिक पार्टी की रैली जैसा लग रहा है. रैलियों को लेकर खबरें आती हैं कि किस तरह बसों...
यूपी में योगी सरकार के छह महीने पूरे होते होते मदरसों को लेकर दो विवाद हो चुके हैं - और दोनों में महज महीने भर का फासला है. दोनों ही विवादों की जड़ में मदरसों को भेजी गयी सरकारी चिट्ठियां हैं. अगस्त में भेजी गयी चिट्ठी पर जहां सरकार को सफाई देनी पड़ी थी, वहीं दूसरी चिट्ठी के मामले में तो पीछे ही हटना पड़ा है.
ताजा विवाद की खासियत ये है कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ा हुआ है - और किसी को सही जवाब नहीं सूझ रहा है.
संवाद पर विवाद
अभी अगस्त में ही मदरसों को एक सरकारी चिट्टी मिली थी. उस चिट्ठी में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कौन से कार्यक्रम होंगे ये तो बताया ही गया था, कार्यक्रम की वीडियोग्राफी का भी फरमान था. उसके महीने भर के भीतर ही मदरसों को दूसरी चिट्ठी मिली जिसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी के संवाद कार्यक्रम के लिए कम से कम 25 महिलाओं को भेजें. मदरसा प्रबंधकों के ये सरकारी फरमान अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इसके लिए साफ तौर पर मना कर दिया.
प्रधानमंत्री मोदी दो दिन के वाराणसी दौरे पर 22 सितंबर को वाराणसी जाने वाले हैं. इसी दौरान मोदी के साथ मुस्लिम महिलाओं से संवाद का कार्यक्रम रखा गया था. विरोध के चलते ये कार्यक्रम अब टाल दिया गया है. मीडिया के सवालों पर स्थानीय प्रशासन अलग अलग बहाने बना रहा है.
अब सवाल ये है कि भला प्रधानमंत्री को मुस्लिम महिलाओं से ऐसे संवाद की जरूरत क्यों पड़ी?
ये कौन सा संवाद है?
मुस्लिम महिलाओं से संवाद की पहल तो बहुत अच्छी है, लेकिन उसका तरीका बड़ा ही अटपटा है. ये संवाद से तो कहीं ज्यादा किसी राजनीतिक पार्टी की रैली जैसा लग रहा है. रैलियों को लेकर खबरें आती हैं कि किस तरह बसों में भर भर कर लोगों को जुटाया गया. कई बार तो रैली में जाने के बदले लोग बताते हैं कि उन्हें पैसे भी मिले.
प्रधानमंत्री के संवाद कार्यक्रम का बुलावा भी रैलियों के लिए जुटाई जाने वाली भीड़ से ही मिलता जुलता है. रैलियों में भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी पार्टी कार्यकर्ताओं पर होती है और इस मामले में अफसरों पर.
संवाद कार्यक्रम के लिए मुस्लिम महिलाओं को जुटाने का हुक्म जिला प्रशासन को जारी हुआ होगा. फिर जिला प्रशासन ने उसे अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के पास बढ़ा दिया. अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ने बाकायदा चिट्ठी लिख कर मदरसों से कम से कम 25-25 महिलाओं को भेजने को कह दिया. मदरसा प्रबंधकों को भी संवाद के लिए महिलाओं के बुलाये जाने पर नहीं बल्कि बुलाये जाने के तरीके पर ऐतराज हुआ. उनका कहना है कि किसी के जाने पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन दबाव में वे ऐसे काम नहीं करेंगे.
मुस्लिम महिलाओं से संवाद की जरूरत क्यों?
यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था. बीजेपी ने मैसेज तो ये दिया कि उसे मुस्लिम सपोर्ट की जरूरत नहीं, हिंदू वोटों का एकजुट समर्थन ही उसके लिए काफी है - और सफाई दी कि मुस्लिम समुदाय से उसे कोई जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिल पाया था. लेकिन उसके कुछ दिन बाद जब पश्चिम बंगाल में नगर निगमों के चुनाव हुए तो सिर्फ तीन नगर निगमों में उसने दस उम्मीदवार उतारे. हालांकि, इससे बीजेपी को कोई फायदा नहीं हुआ. यूपी सरकार में एक मुस्लिम मंत्री को शामिल किया गया है और अभी अभी उन्हें विधान परिषद के जरिये लाया गया है. दादरी के एखलाक से लेकर पहलू खान और जुनैद की हत्या तक सभी मामलों में बीजेपी और उसकी सरकारें घिरी नजर आई हैं. एखलाक की हत्या के वक्त बीजेपी की सिर्फ केंद्र में सरकार रही, लेकिन बाद में जिन राज्यों में ऐसी घटनाएं हुईं वहां भी बीजेपी की सरकारें हैं. यहां तक कि बिहार में नीतीश के साथ गठबंधन होते ही गौरक्षकों का उत्पात शुरू हो गया.
सवाल ये है कि जब बीजेपी को मुस्लिम सपोर्ट की जरूरत नहीं फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुस्लिमों को लेकर बयान देने और कार्यक्रम रखने की जरूरत क्यों पड़ रही है. 11 सितंबर को स्वामी विवेकानंद की जयंती पर भी प्रधानमंत्री का बयान आया कि कोई क्या खाये क्या पीये इससे किसी और को कोई मतलब नहीं होना चाहिये.
एक बार मोदी के मुस्लिम टोपी न पहनने को लेकर भी खासा विवाद हुआ था. तब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थे. बाद में जब मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो इंडिया टीवी के कार्यक्रम आपकी अदालत में तशरीफ लाये.
कार्यक्रम के होस्ट रजत शर्मा ने जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का सवाल मोदी के सामने रखा, "नरेंद्र मोदी पंजाब गये वहां सरदारों की दस्तार कबूल की. अरुणाचल प्रदेश गये उनकी टोपी कबूल की. असम गये तो उनकी वेशभूषा कबूल की. लेकिन जब इमाम साहब ने टोपी पहनाने की कोशिश की तो लौटा दिया - इंकार कर दिया."
सवाल के जवाब में मोदी ने कहा कि टोपी पहनने से ही एकता का प्रतीक कोई नहीं बन जाता, "मैंने अब तक गांधी जी को ऐसी कोई टोपी पहने देखा नहीं है. मैंने सरदार पटेल को इस प्रकार की टोपी पहन के फोटो निकाला हुआ देखा नहीं है. मैंने पंडित नेहरू को भी कभी इस प्रकार का टोपी पहना हुआ देखा नहीं है. तो ये एक भारत की राजनीति में विकृति आई है. और विकृति आई है कि एपीजमेंट के लिए कुछ भी करो. मैं मानता हूं मेरा काम है सब संप्रदाय का सम्मान करना. सब परंपरा का सम्मान करना. पर मेरी जो परंपरा है उसके मुझे स्वीकार करना. मैं मेरी परंपराओं के लेकर जीता हूं. हरेक की परंपरा का सम्मान करता हूं और इसलिए मैं ये टोपी पहन करके फोटो निकाल कर के लोगों की आंखों में धूल झोंकने का पाप मैं नहीं कर सकता. लेकिन कोई अगर किसी की टोपी उछालता है तो उसको कड़ी से कड़ी करने का मैं मन रखता हूं."
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद बीजेपी खुद उसका क्रेडिट लेना चाहती है. यूपी चुनाव के वक्त भी तीन तलाक को लेकर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कानूनी पक्ष को लेकर बयान दिया था. हाल फिलहाल देखने को मिला है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी असहिष्णुता के नाम पर बीजेपी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं. विदेशों में अपने कार्यक्रमों में भी राहुल गांधी ने ये मुद्दा उठाया है.
तो क्या बीजेपी कांग्रेस को काउंटर करने के लिए ये तरकीबें अपना रही है. क्या ये सब गुजरात चुनावों को भी ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है? मोदी सरकार के कैबिनेट फेरबदल में भी अल्पसंख्यकों को खास तवज्जो मिलते देखा गया. कहीं 'सबका साथ सबका विकास बड़ा' का स्लोगन धूमिल तो नहीं पड़ने लगा है? सवाल ये है कि बीजेपी को मुस्लिमों से वैधानिकता की जरूरत क्यों पड़ने लगी है?
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