[बैकग्राउंड: अभी हाल ही में फेसबुक पर एक महिला कवियित्री की जबरदस्त एंट्री हुई है. खुद को आदिवासी कहने वाली इस महिला ने महज तीन दिनों में 3500 से भी ज्यादा फॉलोअर्स बटोरकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया. नाम है दोपदी सिंघार. इनकी कविताओं में सताए हुए लोगों का दर्द और सत्ता के खिलाफ नाराजगी अपने चरम पर दिखाई दे रही है. कोई इन्हें आने वाले कल की क्रांतिकारी आवाज कह रहा है तो कोई इसे फेक आईडी बताकर आलोचना कर रहा है. लेकिन हर तरफ दोपदी सिंघार की कविताएं धड़ल्ले से शेयर हो रही हैं.]
फेसबुक पर रहस्य बनी हुई है दोपदी सिंघार. |
एक पाती दोपदी के नाम...
प्रिय दोपदी,
आप स्त्री हो या पुरुष, फिलहाल ये भी तय नहीं हो सका है. अभी जबकि मैंनें आपको प्रिय कहकर संबोधित किया तो मैं जानती हूं न जाने कितनी भृकुटियां तन गई होंगी. कितने लोगों के चेहरे पर एक विद्रूप हंसी कौंध गई होगी. आपके अस्तित्व को लेकर सब सशंकित जो हैं. मैंने जानबूझकर 'चिंतित' शब्द का प्रयोग नहीं किया है. क्यों नहीं किया, इसकी सत्यता से आप बीते वर्षों में भलीभांति परिचित हो चुकी होंगी कि कोई, किसी का नहीं होता!
मैं नहीं जानती कि दोपदी सिंघार नाम के साथ जितना भी छपता आ रहा है वो आपने लिखा या किसी और ने! वो असह्य पीड़ा और दुःख के पल आपने भोगे या किसी और ने! मुझे ये जानने में दिलचस्पी भी नहीं! ये घटनाएं सदियों से घटती रही हैं और यह निश्चित है कि जो कहा गया वो किसी-न-किसी पर तो बीता ही! मेरा सिर शर्म से...
[बैकग्राउंड: अभी हाल ही में फेसबुक पर एक महिला कवियित्री की जबरदस्त एंट्री हुई है. खुद को आदिवासी कहने वाली इस महिला ने महज तीन दिनों में 3500 से भी ज्यादा फॉलोअर्स बटोरकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया. नाम है दोपदी सिंघार. इनकी कविताओं में सताए हुए लोगों का दर्द और सत्ता के खिलाफ नाराजगी अपने चरम पर दिखाई दे रही है. कोई इन्हें आने वाले कल की क्रांतिकारी आवाज कह रहा है तो कोई इसे फेक आईडी बताकर आलोचना कर रहा है. लेकिन हर तरफ दोपदी सिंघार की कविताएं धड़ल्ले से शेयर हो रही हैं.]
फेसबुक पर रहस्य बनी हुई है दोपदी सिंघार. |
एक पाती दोपदी के नाम...
प्रिय दोपदी,
आप स्त्री हो या पुरुष, फिलहाल ये भी तय नहीं हो सका है. अभी जबकि मैंनें आपको प्रिय कहकर संबोधित किया तो मैं जानती हूं न जाने कितनी भृकुटियां तन गई होंगी. कितने लोगों के चेहरे पर एक विद्रूप हंसी कौंध गई होगी. आपके अस्तित्व को लेकर सब सशंकित जो हैं. मैंने जानबूझकर 'चिंतित' शब्द का प्रयोग नहीं किया है. क्यों नहीं किया, इसकी सत्यता से आप बीते वर्षों में भलीभांति परिचित हो चुकी होंगी कि कोई, किसी का नहीं होता!
मैं नहीं जानती कि दोपदी सिंघार नाम के साथ जितना भी छपता आ रहा है वो आपने लिखा या किसी और ने! वो असह्य पीड़ा और दुःख के पल आपने भोगे या किसी और ने! मुझे ये जानने में दिलचस्पी भी नहीं! ये घटनाएं सदियों से घटती रही हैं और यह निश्चित है कि जो कहा गया वो किसी-न-किसी पर तो बीता ही! मेरा सिर शर्म से झुकाने के लिए इतना ही काफ़ी है.
स्त्री हूं, दर्द से जुड़ाव जल्दी होता है....समझ सकती हूं. रोंगटे खड़े हो जाते हैं, रूह कांप उठती है. इंसानियत का ऐसा घिनौना रूप देख ह्रदय जार-जार हो उठता है. आपके प्रति पूरी संवेदना है और इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी उतना ही सम्मान है. आपके अंदर जो ज्वालामुखी फूट रहा था, उसका लावा बह चुका! जो लिखा, निस्संदेह जरुरी ही रहा होगा सो, उससे शिकायत नहीं कोई. लेकिन सच कहो, क्या इस आहत ह्रदय से निकले शब्दों को साहित्य का नाम देना खुद दोपदी की रचनात्मकता को समाप्त कर देने जैसा नहीं होगा? आप यदि एक रचनाकार हो तो ये बात स्वयं ही जानती होंगी और यदि नहीं हैं तो मैं विनम्रता से बताना चाहूंगी कि जब क्रोध और आक्रोश में भरे शब्दों का स्वयं पर नियंत्रण नहीं रहता तो वे धीरे-धीरे आपकी सृजनक्षमता को लीलने लग जाते हैं. हर तरफ एक नकारात्मकता घिर जाती है, कल्पनाशक्ति कमजोर होने लगती है और शब्दकोष में वही गिनेचुने शब्द रह जाते हैं.
आज जो वाह-वाही कर रहे हैं न दोपदी, वो आपके बोलने को लेकर कह रहे हैं. आपकी हिम्मत की प्रशंसा हो रही है. ये उस करारे तमाचे की बात हो रही है जो एक बार मारना जरुरी था. लेकिन अब आपका अपने शब्दकोष को समृद्ध करना और अपनी लेखनी को परिष्कृत कर, उसे सभ्यता, शालीनता का जामा पहनाना भी उतना ही आवश्यक बन पड़ा है क्योंकि लोग आपकी तरफ देख रहे हैं. आपके अंदर के रचनाकार को जानना-सुनना चाहते हैं. हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमें अगली पीढ़ियों को सौंपकर भी जाना है. हमारे देश की अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा है जहां साहित्य को उच्च स्थान दिया गया है. ये साहित्य ही है, जो समाज का निर्माण करता है. ये साहित्य ही है, जो विध्वंस भी कर सकता है. वो भी साहित्य ही था, जिसने हमें भाषाई मर्यादा और बोलने का सलीक़ा सिखाया. आपको अनुमान भी न होगा कि आपके आक्रोश के प्रतिक्रियास्वरूप अश्लील रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है. साहित्य गालीगलौज पर उतर आया है. बीते सप्ताह में कुछ भी अनाप-शनाप लिखकर कविता की तरह परोसा जा रहा है. गंदे मजाक चल रहे हैं, कविता गलत हाथों में पड़ अब सीधा गुंडई पर उतर आई है.
इन सब बातों का तात्पर्य आपको निराश करना नहीं बल्कि यह बताना है कि आपकी इसी निडरता के कारण आप कइयों की उम्मीद बन खड़ी हो सकती हो. उनकी नसों में हौसला भर सकती हो. उन अनगिनत गाथाओं को मुखर कर सकती हो. इस संघर्ष और लड़ाई में सब आपके साथ हैं. आपकी ताकत भी बनेंगे, पर ये तभी संभव है जब आप अपनी पहचान असल रखें और एक बार शांत मन से स्वयं से विमर्श करें कि देश को क्या देकर जाना चाहेंगीं? अपनी लेखनी को थोड़ा नरम करने पर मंथन अवश्य करें जिससे लोग रचनाकर्म को लेकर भ्रमित न हों. सकारात्मक परिवर्तन का स्वागत है लेकिन यह भी हमें ही देखना होगा कि भाषा की मर्यादा और अस्तित्त्व पर आंच न आए तथा हिंदी साहित्य भी संरक्षित रहे. आखिर आने वाली पीढ़ियों को कविताएं-कहानियां सकुशल और मूल रूप में पहुंचाने का उत्तरदायित्व हम सबका ही तो है.
खुश रहें, खुशियाँ बाँटें! क्योंकि यहां दर्द में मजे लूटने वालों की भी कमी नहीं!
सादर प्रीति 'अज्ञात'
*** यदि यह सब किसी योजना के तहत हुआ है, तो मेरी कही सारी बातों का कोई औचित्य नहीं. मेरे पास सिर्फ अफसोस ही रह जाने वाला है. यक़ीन मानिये, मुझे इसकी भी आशंका उतनी ही है. सचमुच आज से पहले, इतने असमंजस में कभी नहीं लिखा.
दोपदी की ये कविता बहुत चर्चित है-
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