देश भर में 10 अप्रैल को चम्पारण सत्याग्रह का सौ साल पूरे होने पर जश्न का माहौल है. हर जगह इस शताब्दी को धूमधाम से मनाया जा रहा है. इसी आंदोलन की याद में पीएम मोदी 10 अप्रैल की शाम एक खास डिजिटल प्रदर्शनी का आगाज कर जिसमे इस आंदोलन का इतिहास दिखाया जाएगा. तो आइये समझते हैं चम्पारण सत्याग्रह के बारे में.......
आज से ठीक सौ साल पहले यानि 10 अप्रैल, 1917 को पहली बार महात्मा गांधी का पदार्पण बिहार की धरती पर हुआ था. और उनका यहां आने का एक मात्र मकसद था- चम्पारण के किसानों की समस्याओं को समझते हुए उसका निदान करना और नील के धब्बों को हमेशा के लिए मिटाना. एक पीड़ित किसान जिसका नाम राजकुमार शुक्ल था, गांधीजी से आग्रह किया था कि वो इस आंदोलन का नेतृत्व करें. उन्हीं के आग्रह पर गांधीजी ने यहां आकर नेतृत्व किया जिसे चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है.
ऐसे मिली महात्मा की पहचान...
जब महात्मा गाँधी चम्पारण पहुँचे तो उन्होंने पाया कि वहां हजारों भूमिहीन एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील की फसलों की खेती करने के लिये बाध्य हो रहे थे. नील की खेती करने वाले किसानों पर अंग्रेज़ों के अलावा कुछ बगान मालिक भी जुल्म ढा रहे थे. चम्पारण के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था जिसके अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था जिसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे.
यहीं से मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के तौर पर पहचान मिला तथा चम्पारण सत्याग्रह को भारत की आज़ादी के इतिहास का मील का पत्थर माना जाने लगा. कहा तो ये भी जाता है कि इसी आंदोलन से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा" नाम से संबोधित किया था और तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे थे.
जब महात्मा गाँधी 15...
देश भर में 10 अप्रैल को चम्पारण सत्याग्रह का सौ साल पूरे होने पर जश्न का माहौल है. हर जगह इस शताब्दी को धूमधाम से मनाया जा रहा है. इसी आंदोलन की याद में पीएम मोदी 10 अप्रैल की शाम एक खास डिजिटल प्रदर्शनी का आगाज कर जिसमे इस आंदोलन का इतिहास दिखाया जाएगा. तो आइये समझते हैं चम्पारण सत्याग्रह के बारे में.......
आज से ठीक सौ साल पहले यानि 10 अप्रैल, 1917 को पहली बार महात्मा गांधी का पदार्पण बिहार की धरती पर हुआ था. और उनका यहां आने का एक मात्र मकसद था- चम्पारण के किसानों की समस्याओं को समझते हुए उसका निदान करना और नील के धब्बों को हमेशा के लिए मिटाना. एक पीड़ित किसान जिसका नाम राजकुमार शुक्ल था, गांधीजी से आग्रह किया था कि वो इस आंदोलन का नेतृत्व करें. उन्हीं के आग्रह पर गांधीजी ने यहां आकर नेतृत्व किया जिसे चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है.
ऐसे मिली महात्मा की पहचान...
जब महात्मा गाँधी चम्पारण पहुँचे तो उन्होंने पाया कि वहां हजारों भूमिहीन एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील की फसलों की खेती करने के लिये बाध्य हो रहे थे. नील की खेती करने वाले किसानों पर अंग्रेज़ों के अलावा कुछ बगान मालिक भी जुल्म ढा रहे थे. चम्पारण के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था जिसके अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था जिसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे.
यहीं से मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के तौर पर पहचान मिला तथा चम्पारण सत्याग्रह को भारत की आज़ादी के इतिहास का मील का पत्थर माना जाने लगा. कहा तो ये भी जाता है कि इसी आंदोलन से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा" नाम से संबोधित किया था और तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे थे.
जब महात्मा गाँधी 15 अप्रैल, 1917 को मोतिहारी पहुँचे थे तब पूरे महात्मा गांधी, चम्पारण, बिहार में किसानों के भीतर आत्म-विश्वास का जबर्दस्त संचार हुआ था जिसके कारण गांधीजी को धारा-144 के तहत सार्वजनिक शांति भंग करने के प्रयास की नोटिस भेजी गई थी. लेकिन इसका कुछ भी असर उन पर नहीं पड़ा बल्कि उनका कद और ख्याति बढ़ती ही चली गई. अब मार्च 1918 आते-आते 'चंपारण एगरेरियन बिल' पर गवर्नर-जनरल के हस्ताक्षर के साथ तीनकठिया समेत कृषि संबंधी अन्य अवैध कानून भी समाप्त हो गए थे. मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा 1917 में संचालित यह सत्याग्रह भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना थी, जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी थी. गांधीजी की अगुवाई वाले इस आंदोलन से न सिर्फ नील के किसानों की समस्याओं का फौरन हल हुआ था, बल्कि सत्य, अहिंसा और प्रेम के संदेश ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारतीयों को एकजुट भी किया था.
हालाँकि, उस सत्याग्रह की शताब्दी हमलोग ज़रूर मना रहे हैं यानि चम्पारण आंदोलन के पूरे 100 साल, लेकिन हर एक व्यक्ति जो मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है, आज महात्मा गाँधी की कमी ज़रूर महसूस कर रहा होगा. क्योंकि हमारे देश के किसान सौ साल पहले भी परेशान थे और वे आज भी बेहतर स्थिति में नहीं हैं.
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