कभी सोचिए कि लोग बीमार पड़ने नीम-हकीम के पास क्यों चले जाते हैं? पैसा नहीं है तो सरकारी अस्पताल क्यों नहीं चले जाते? कुछ तो ऐसे हैं जो झाड़-फूंक में लग जाते हैं लेकिन अस्पताल नहीं जाते. इससे एक तो तय है कि ऐसे लोगों का भरोसा सरकारी अस्पताल से ज्यादा इन विकल्पों पर होता है.
सरकारी अस्पतालों से भरोसा उठने का सबसे बड़ा कारण इलाज की खराब क्वालिटी नहीं है. बल्कि लोगों को आशंका रहती है कि वहां इलाज मिलेगा भी या नहीं. इलाज मिले या न मिले, कम से कम अस्पतालों में तैनात लाड़साहब का एटीट्यूड सहने से तो बच जाएंगे.
चलिए अब खबर पर आते हैं-
गुड़गांव के सरकारी अस्पताल में 11 साल की बच्ची नेहा अपनी मां के साथ इलाज की उम्मीद लिए ओपीडी की लाइन में खड़ी थी. नेहा को किडनी की समस्या थी और वो बेहद खराब हालत में अस्पताल पहुंची थी. पर्ची बनवाने के लिए उसे लाइन में लगने की रस्म निभानी थी. वो बीमार बच्ची अपनी मां के साथ पूरे 45 मिनट तक खड़ी रही, लेकिन डॉक्टर से मिलाने वाली पर्ची उसे नहीं मिली. बच्ची की हिम्मत जवाब दे गई और बच्ची बेहोश होकर गिर पड़ी और कभी न खुलने वाली नींद में सो गई.
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सरकारी अस्पतालों की ओपीडी का ये सामान्य नजारा है. |
और उसपर गुड़गांव के सीएमओ का ये कहना कि 'इसमें अस्पताल की अनदेखी...
कभी सोचिए कि लोग बीमार पड़ने नीम-हकीम के पास क्यों चले जाते हैं? पैसा नहीं है तो सरकारी अस्पताल क्यों नहीं चले जाते? कुछ तो ऐसे हैं जो झाड़-फूंक में लग जाते हैं लेकिन अस्पताल नहीं जाते. इससे एक तो तय है कि ऐसे लोगों का भरोसा सरकारी अस्पताल से ज्यादा इन विकल्पों पर होता है.
सरकारी अस्पतालों से भरोसा उठने का सबसे बड़ा कारण इलाज की खराब क्वालिटी नहीं है. बल्कि लोगों को आशंका रहती है कि वहां इलाज मिलेगा भी या नहीं. इलाज मिले या न मिले, कम से कम अस्पतालों में तैनात लाड़साहब का एटीट्यूड सहने से तो बच जाएंगे.
चलिए अब खबर पर आते हैं-
गुड़गांव के सरकारी अस्पताल में 11 साल की बच्ची नेहा अपनी मां के साथ इलाज की उम्मीद लिए ओपीडी की लाइन में खड़ी थी. नेहा को किडनी की समस्या थी और वो बेहद खराब हालत में अस्पताल पहुंची थी. पर्ची बनवाने के लिए उसे लाइन में लगने की रस्म निभानी थी. वो बीमार बच्ची अपनी मां के साथ पूरे 45 मिनट तक खड़ी रही, लेकिन डॉक्टर से मिलाने वाली पर्ची उसे नहीं मिली. बच्ची की हिम्मत जवाब दे गई और बच्ची बेहोश होकर गिर पड़ी और कभी न खुलने वाली नींद में सो गई.
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सरकारी अस्पतालों की ओपीडी का ये सामान्य नजारा है. |
और उसपर गुड़गांव के सीएमओ का ये कहना कि 'इसमें अस्पताल की अनदेखी का सवाल नहीं उठता क्योंकि इलाज तो हुआ ही नहीं. और अगर महिला अपनी बच्ची को ओपीडी में लाने के बजाए इमरजेंसी में लेकर आती तो उसका इलाज होता.'
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यहां सरकारी अस्पताल के अफसर ने खुद अस्पतालों के रवैये का सबूत दे दिया है. ये जाहिर सी बात है कि सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने आए लोग उच्च आय वर्ग के तो नहीं होंगे, उनमें से ज्यादातर लोग सिर्फ इसीलिए आते हैं कि वो प्राइवेट अस्पतालों का खर्च वहन नहीं कर सकते. बहुतों को तो अस्पताल की औपचारिकताओं का भी पता नहीं होता. किसी ने कह दिया होगा कि वहां लाइन में लग जाओ तो वो महिला पर्ची बनवाने लाइन में लग गई.
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प्राइवेट अस्पतालों से जहां इलाज महंगा होता है और मरीज से इलाज के नाम पर पैसे लूटने की खबरें भी आती हैं, फिर भी लोग वहीं जाना चाहते हैं. वजह, बड़े अस्पतालों में रिसेप्शन पर पहुंचते ही सहायक आपके पास पहुंच जाते हैं और हर तरीके से आपकी मदद करते हैं. वहां लोगों को मरीजों के प्रति सहानुभूति का भाव नजर आता है, जिससे मरीजों में अस्पताल के प्रति विश्वास बढ़ता है. लेकिन सरकारी अस्पताल संवेदनशीलता के मामले में कोसों दूर नजर आते हैं. सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छे डॉक्टर होते हैं, वहां इलाज के नाम पर पैसे नहीं लूटे जाते फिर भी लोगों में इसकी ऐसी छवि सरकारी विफलता का ही नतीजा है. संवेदनशीलता का सिर्फ एक भाव अगर सरकारी अस्पतालों में नजर आने लगे तो अस्पतालों की छवि सुधर जाए.
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