वंश बढ़ाने के लिए घर के बड़े लड़के को लड़का तो होना ही चाहिए, इसलिए बड़े लड़के के घर चार बेटियों की लाइन लग गई. हालांकि पिता ने बेटियों को बहुत प्यार से रखा लेकिन एक बेटी को बिल्कुल बेटे की तरह. वो बेटी जिसे वो अपना बेटा कहते थे, वो मैं ही हूं. आमिर खान का ये डायलॉग 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के' भले ही अभी प्रचलित हुआ हो, पर मैंने तो बचपन से सुना था. इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि मेरे पिता भी स्पोर्ट्समैन थे.
कहने की जरूरत नहीं कि हर पिता के मन में ये चाहत होती ही है कि उनके बेटा हो, जो उनसे भी बेहतर बनकर दिखाए. मेरे पिता के मन की ये इच्छाएं अब उनकी परवरिश में दिखने लगी थीं. उन्होंने मुझे बेटे जैसा माना ही नहीं बल्कि मुझे बेटों की तरह रखा भी. मेरे बाल से लेकर चाल-ढ़ाल, कपड़े वगैरह सब लड़कों जैसे ही थे, मैं टॉम बॉय थी. उसपर अगर पापा की पुरानी शर्ट पहन लेती तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था. घर के काम मेरी बहनें करती थीं और घर के बाहर के काम मैं. कई साल ऐसे ही चलता रहा. और ग्रैजुएशन खत्म होने के बाद जब मैंने पहली बार अपने बाल बढ़ाए तो पापा का भ्रम टूटने लगा. उन्होंने सच को स्वीकार किया और इसी बात में खुश रहे कि उन्होंने कई साल अपनी बेटी में बेटे को देखा.
ये कहानी अकेली मेरी नहीं बल्कि बहुतों की रही होगी. माता-पिता अक्सर बचपन में अपने बच्चों को अपने हिसाब से बदल देते हैं. मैंने बहुत से लोगों को देखा है कि अगर किसी को लड़की चाहिए हो, और लड़का आ जाए तो वो लड़के को फ्रॉक पहनाकर, बिंदी लगाकर दो चोटियां बाधकर अपनी बेटी की इच्छा पूरी कर लेते हैं. इससे ज्यादा न वो सोच सकते हैं और न हमारा समाज उन्हें सोचने की इजाज़त देता है.
पर आज सोचती हूं कि अगर ये भारत न होता और मैं आज के समय में पैदा हुई होती तो आज मैं लड़की नहीं लड़का ही होती. मैं लड़का बनने से सिर्फ...
वंश बढ़ाने के लिए घर के बड़े लड़के को लड़का तो होना ही चाहिए, इसलिए बड़े लड़के के घर चार बेटियों की लाइन लग गई. हालांकि पिता ने बेटियों को बहुत प्यार से रखा लेकिन एक बेटी को बिल्कुल बेटे की तरह. वो बेटी जिसे वो अपना बेटा कहते थे, वो मैं ही हूं. आमिर खान का ये डायलॉग 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के' भले ही अभी प्रचलित हुआ हो, पर मैंने तो बचपन से सुना था. इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि मेरे पिता भी स्पोर्ट्समैन थे.
कहने की जरूरत नहीं कि हर पिता के मन में ये चाहत होती ही है कि उनके बेटा हो, जो उनसे भी बेहतर बनकर दिखाए. मेरे पिता के मन की ये इच्छाएं अब उनकी परवरिश में दिखने लगी थीं. उन्होंने मुझे बेटे जैसा माना ही नहीं बल्कि मुझे बेटों की तरह रखा भी. मेरे बाल से लेकर चाल-ढ़ाल, कपड़े वगैरह सब लड़कों जैसे ही थे, मैं टॉम बॉय थी. उसपर अगर पापा की पुरानी शर्ट पहन लेती तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था. घर के काम मेरी बहनें करती थीं और घर के बाहर के काम मैं. कई साल ऐसे ही चलता रहा. और ग्रैजुएशन खत्म होने के बाद जब मैंने पहली बार अपने बाल बढ़ाए तो पापा का भ्रम टूटने लगा. उन्होंने सच को स्वीकार किया और इसी बात में खुश रहे कि उन्होंने कई साल अपनी बेटी में बेटे को देखा.
ये कहानी अकेली मेरी नहीं बल्कि बहुतों की रही होगी. माता-पिता अक्सर बचपन में अपने बच्चों को अपने हिसाब से बदल देते हैं. मैंने बहुत से लोगों को देखा है कि अगर किसी को लड़की चाहिए हो, और लड़का आ जाए तो वो लड़के को फ्रॉक पहनाकर, बिंदी लगाकर दो चोटियां बाधकर अपनी बेटी की इच्छा पूरी कर लेते हैं. इससे ज्यादा न वो सोच सकते हैं और न हमारा समाज उन्हें सोचने की इजाज़त देता है.
पर आज सोचती हूं कि अगर ये भारत न होता और मैं आज के समय में पैदा हुई होती तो आज मैं लड़की नहीं लड़का ही होती. मैं लड़का बनने से सिर्फ बाल-बाल बची हूं. मेरे पिता ने तो कोई कसर छोड़ी नहीं थी, बस वो जमाना और था, तब मेडिकल साइंस ने इतनी प्रगति की नहीं थी जितनी आज कर ली है. आज ऐसी ऐसी दवाएं मौजूद हैं कि अगर बचपन में ही बच्चों को दे दी जाएं तो उनका सेक्स चेंज करवाना आसान हो जाता है. शुक्र है जो हम उस ज़माने में पैदा हो गए और बच गए, वरना क्या पता ये दवा मझे भी दे दी जाती जो इंग्लैंड के माता-पिता अपने बच्चों को दे रहे हैं.
हो सकता है कि ये बात आपको परेशान करे, पर सच यही है कि इंग्लैंड में 10 साल के करीब 800 बच्चों को ऐसी दवाएं दी गई हैं जिससे उनका सेक्स चेंज हो सके.
क्या करती हैं ये विवादित दवाएं-
इस ट्रीटमेंट को NHS treatment कहा जाता है जो व्यक्ति को वयस्क होने से रोकता है. इसमें हर महीने हॉर्मोन्स के बेहद शक्तिशाली इंजेक्शन्स बच्चों को दिए जाते हैं जिससे उनके जननांगों, ब्रेस्ट और शरीर के बालों का विकास रुक जाता है. और इससे आगे चलकर डॉक्टरों को उनकी सेक्स चेंज सर्जरी करने में मदद मिल जाती है.
अब तक तो यही सोचा जा रहा था कि ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो यौवन रोकने की दवाएं या 'प्यूबर्टी ब्लॉकर्स' लेते हैं. पर ये खबर हैरान करने वाली है कि लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज हॉस्पिटल के Gender Identity Development Service clinic में 600 बच्चे इस तरह का ट्रीटमेंट ले चुके हैं और 200 ट्रीटमेंट ले रहे हैं. इन 800 बच्चों में से 230 बच्चों की उम्र 14 साल है.
बहस का विषय बन गया है ये ट्रीटमेंट-
ट्रांसजेंडर आज के जमाने में कोई नया शब्द नहीं है. बहुत से लोगों को अपने शरीर में घुटन महसूस होती है. जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं वो इस तरह के ट्रीटमेंट लेते हैं और अपनी बाकी की जिंदगी अपने हिसाब से जीते हैं. पर इस मामले में विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि इस तरह के ट्रीटमेंट आप तब करा सकते हैं जब आप बालिग हों, समझदार हों. 10 साल की उम्र ऐसी नहीं होती कि बच्चे जिंदगी बदल देने वाले फैसले ले सकें. खासकर अपना अस्तित्व ही बदल देना उनकी पूरी जिंदगी को प्रभावित करेगा. ऐसे में इस तरह के ट्रीटमेंट छोटी उम्र में करना जरा भी उचित नहीं है.
बहुत से डॉक्टरों ने इस ट्रीटमेंट की सुरक्षा पर भी सवाल खड़े किए हैं क्योंकि आने वाले समय में इस ट्रीटमेंट से होने वाले मानसिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक प्रभावों के बारे में बहुत ही कम जानकारी है, जो बेहद घातक सिद्ध हो सकती है. आलोचक NHS के डॉक्टरों को बच्चों की जिंदगी से खेलने वाले भगवान बता रहे हैं. और वास्तव में ऐसा है भी, भगवान द्वारा बनाए गए इंसान के अस्तित्व को जो बदल दे वो खुद को दूसरा भगवान ही समझता होगा.
दोषी कौन-
इस पूरे हेर-फेर के लिए सिर्फ कुछ डॉक्टरों को दोष कैसे दिया जा सकता है, जबकि असल दोषी तो उन 800 बच्चों के माता-पिता हैं, जो अपने बच्चों के जीवन का इतना बड़ा फैसला उनकी उस उम्र में ले रहे हैं जब वो खुद को भी अच्छी तरह नहीं समझते. सेक्स चेंज जैसा बड़ा फैसला इंसान परिपक्व होकर ले तभी वो उसके अच्छे और बुरे के लिए तैयार हो सकता है. सोचिए 10 साल की उम्र में इस तरह के ट्रीटमेंट देने के बाद, जब वो बच्चा बड़ा होकर अपनी हकीकत से वाकिफ होगा या इस फैसले के खिलाफ होगा तो उसपर क्या बीतेगी. उस समय उसके पास सिवाय अफसोस करने के कुछ नहीं होगा.
तो माता-पिता इस पूरे मामले के दोषी हैं जो अपनी इच्छाएं अपने बच्चों की जिंदगी बदलकर पूरा करने के ख्वाब देख रहे हैं. और उसपर ये कहना कि बच्चा अपने शरीर में कैद है, या घुटन महसूस कर रहा है, ये महज भारी भरकम बातें हैं. इनसे निकलने के लिए अच्छे काउंसलर की मदद ली जा सकती है. पर चूंकि कुछ लोगों के पास पैसा है तो वो कुछ भी करने से हिचकिचाते नहीं हैं. ये सेक्स चेंज ट्रीटमेंट भी उसी विलासिता की दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा है, जिसके दुष्परिणाम आने अभी बाकी हैं.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.