इन दिनों हिमांशी की संदिग्ध मौत का मामला सुर्खियों में है. हिमांशी की शादी बसपा के सांसद नरेंद्र कश्यप के बेटे सागर से हुई थी. 6 मार्च को सुबह करीब 11 बजे हिमांशी का शव घर के बाथरूम में मिला. उनके सिर में गोली लगी थी. पुलिस जांच जारी है लेकिन अब इस पूरे केस में दहेज उत्पीड़न का मामला सामने आ रहा है. पुलिस ने सांसद नरेंद्र उनकी पत्नी देवेंद्री और पुत्र सागर को गिरफ्तार कर लिया है.
इस देश में हिमांशी कोई पहली लड़की नहीं है जिसे दहेज़ उत्पीडन के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा हो. हिमांशी की शादी काफी धूमधाम से हुई थी. यहां तक कि उनकी विदाई भी तब हेलीकाप्टर में हुई थी.
कानून का फायदा क्या?
देश में दहेज के खिलाफ सख्त कानून मौजूद हैं. मसलन दहेज प्रताड़ना एक्ट या 498 ए (दहेज प्रताड़ना कानून 1983), जिसमें यदि कोई महिला दहेज प्रताड़ना से परेशान होकर अपनी जान देने की कोशिश करती है और इसकी शिकायत यदि वो पुलिस को करती है तो पति के साथ-साथ ससुराल वालों को भी उम्र कैद की सजा हो हो सकती है. 304बी (दहेज हत्या 1986) के अंतर्गत किसी भी महिला को अगर दहेज के लिए जलाया जाता है या उसकी हत्या की कोशिश की जाती है तो घटना को अंजाम देने वालों के लिए कोई जुर्माना नहीं बल्कि सीधे ही उम्र कैद की सजा का प्रावधान है. वहीं धारा 406 के अंतर्गत यही कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित करता है तो उस समेत उसके परिवार वालों को 3 साल की सजा जुर्माने के साथ हो सकती है.
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इसी के साथ भारत में दहेज निरोधक कानून भी मौजूद है. इसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी हैं . 1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखी जानी चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. लेकिन अधिकतर कानून फाइलों में बंद और धूल में सने हुए जान पड़ते हैं. साथ ही कई बार ये कानून दम घोंटू भी साबित हुए हैं. जिनका गलत उपयोग किया जाता रहा है. इन सभी कानूनों को बनाने के पीछे सामाजिक और वैधानिक पक्ष ये था कि इसके जरिये महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ कार्यवाहियां हो सकें. शादियां टूटने से बच सकें और लड़की के घरवालों को उसके ससुराल वालों की मांगें पूरी करने के लिए कर्ज न लेना पड़े. एक कोशिश ये भी थी कि बेटियों को कोख में खत्म करने की रिवायत खत्म की जा सके. लेकिन ऐसा दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं पड़ता.
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2012 से 14 के आंकड़ों पर नजर डालें तो लगभग 24,771 दहेज हत्या के मामले सामने आये हैं. इनमें से सर्वाधिक मामले 7,048 देश से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में देखने को मिले हैं. उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश में 3,830 और बिहार में 2,252 मामले सामने आए. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 87 फीसदी दहेज हत्या के मामलों में फैसले हर साल अधर में लटके होते हैं. वहीं 83 फीसदी से ज्यादा केस दहेज निरोधक कानून के अंतर्गत दर्ज होते हैं.
प्रथा जो अब बीमारी बन गई है
थोडा पीछे जाकर देखें तो किसी भी लड़की की शादी के समय घर का मुखिया उसके आगामी जीवन निर्वाह के लिए कुछ जरूरी गृहस्थी के सामान दिया करता था. कुछेक जगह मान्यता ये भी थी की यदि पति की अकाल मृत्यु हो जाती है तो अपने जीविकोपार्जन के लिए लड़की के पास मायके से मिलने वाला जरूरी सामान रहे. देखते-देखते लोगों की जरूरतें और लालसा बढ़ने लगी और इस प्रथा ने एक बीमारी का रूप अख्तियार कर लिया. सगाई से शुरू होने वाली ये मांगे विवाहोपरांत भी खत्म नहीं होतीं. बाप को दुनिया भर से कर्ज लेकर शादी के रस्मों-रिवाज को पूरा करने के बाद तीज-त्योहारों पर भी बेटी के ससुराल में उपहार पहुंचाने होते हैं.
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आलम ये कि जो बीमारी शुरु हुई थी अब ये महामारी का रूप अख्तियार कर चुकी है. इसकी चपेट में प्रतिवर्ष हजारों बहु-बेटियां आ रही हैं. ये कुप्रथा समाज में इस तरह मिल गयी है कि समाज, समाज के ठेकेदार तथा भारत में व्याप्त अधिकतम धर्म के धर्मगगुरुओं तक का मौन समर्थन प्राप्त है. इसमें गलती किसी की नहीं है, गलती है उस सोच की जो शुरू से ही दिमाग में बीज की तरह बो दी जाती है.
यही नहीं आज देश में दहेज प्रथा नए रूप में सामने आने लगी है. आज संपन्न परिवारों में दहेज लेने-देने से शायद ही कोई परहेज दिखता हो. एक ऐसी समझ बनाने की कोशिश हो रही है कि जैसे दहेज कोई निवेश हो. ज्यादा से ज्यादा धन देने से समाज को रूतबा बढ़ जाता हो और मानो वे अपनी बेटी का जीवन भविष्य के लिए सिक्योर कर रहे हैं. लेकिन ये तब ज्यादा दुखदायी हो जाता है जब बात गरीब परिवारों की आती है. वे चाहकर भी दहेज का उतना प्रबंध नहीं कर पाते. नतीजतन लड़की को ससुराल में प्रताडनाओं का सामना करना पड़ता है और कई बार इसका खामियाजा उसे अपनी जान देकर भुगतना होता है.
फिर कुछ शातिरों ने दहेज के लिए एक नया रास्ता भी इजाद कर लिया है. यह देखा जाने लगा है कि लड़की कितना कमाने वाली है. लड़कियां आज के जमाने में अपने पैरों पर खड़ी होने की कुव्वत रखती हैं. इसलिए वो अगर ज्यादा से ज्यादा कमाने वाली होगी तो उसकी कमाई घर में ही आएगी. मतलब देखा जाए तो दहेज हर दौर में नयी बोतल में पुरानी शराब की तरह विद्यमान है.
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हालांकि कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जो निराशा के इस दौर में उम्मीद की किरण दिखाते हैं. मसलन, राजस्थान के मकराने तथा उत्तर प्रदेश के उसियां गांव के लोगों ने सामूहिक रूप से दहेज लेने या देने का बहिष्कार किया है. साथ ही हमारे ही समाज में कुछ ऐसे शिक्षित परिवार है जो दहेज को महत्व नहीं दे रहे. इसलिए जरूरी है कि हम सब भी एक साथ इस कुप्रथा को खारिज करके एक नया और स्वस्थ समाज बनाने की ओर अग्रसर हो.
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