संपन्नता के साथ दबंगई दबे पांव आ ही जाती है. इन दिनों सहारनपुर में दलितों और सवर्णों का झगड़ा चल रहा है. एक सवर्ण मारा गया और दर्जनों दलितों के घर जला दिए गए, यहीं से दलितों में आग लगी हुई है. वहां भीम सेना नामक एक संगठन दलितों को एकजुट कर उनमें 'क्रांति' की चिंगारी भडकाने में जुटा हुआ है.
छोटे से इस संगठन के ज्यादातर कर्ताधर्ता ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले हैं. लोग बताते हैं कि इनके पास लाइसेंसी हथियार भी हैं और हथियार रखना गुनाह भी नहीं है. पश्चिमी यूपी के लिहाज से ये बहुत साधारण बात है. लेकिन इनका सवर्णों से टकराव उतना साधारण नहीं है. भीम सेना संगठन भले ही दलित युवाओं का है लेकिन कार्यकर्ताओं में जोश भरने के इसके स्वर काफी कुछ शिवसेना से मेल खाते हैं. भीम सेना और दलित चेतना की सोशल मीडिया पर भी अच्छी खासी उपस्थिति है, जो बताती है कि बहुजन समाज तकनीक के दौर में बहुत आगे भले ही न गया हो लेकिन इससे अनजान भी नहीं है.
इनके फेसबुक ग्रुप हैं जिनके सदस्य भले ही महज दस हजार से ज्यादा हों लेकिन इरादे ईंट से ईंट बजा देने वाले हैं. ये भोले-भाले युवा सोशल मीडिया पर पूछते हैं, महापंडितों उस किताब का नाम बताओ जिसमें 33 करोड़ देवताओं का नाम लिखा है. जेईई टॉपर कल्पित और पंजाब में 12वीं की परीक्षा में 100 प्रतिशत नंबर लाने वाले परमिंदर को दलित गौरव बताते हैं.
बड़ा अच्छा लगता है जब कोई सदस्य बीच में अपनी बेटी की फोटो पोस्ट कर लिखता है कि मेरी बेटी 91 परसेंट से पास हुई है या हरिराम रैगर ने राजस्थान की 12वीं की परीक्षा में 490 अंक लाकर मेरिट की हवा निकाल दी. ये लोग मनुवादी आतंकवादी जैसी उपमाओं का प्रयोग करते हैं. जस्टिस करनन को न्याय का योद्धा बताते हैं और मानते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उनके साथ अन्याय हुआ. कटप्पा को फिल्म में साजिश के तहत बदनाम किया गया. और जय...
संपन्नता के साथ दबंगई दबे पांव आ ही जाती है. इन दिनों सहारनपुर में दलितों और सवर्णों का झगड़ा चल रहा है. एक सवर्ण मारा गया और दर्जनों दलितों के घर जला दिए गए, यहीं से दलितों में आग लगी हुई है. वहां भीम सेना नामक एक संगठन दलितों को एकजुट कर उनमें 'क्रांति' की चिंगारी भडकाने में जुटा हुआ है.
छोटे से इस संगठन के ज्यादातर कर्ताधर्ता ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले हैं. लोग बताते हैं कि इनके पास लाइसेंसी हथियार भी हैं और हथियार रखना गुनाह भी नहीं है. पश्चिमी यूपी के लिहाज से ये बहुत साधारण बात है. लेकिन इनका सवर्णों से टकराव उतना साधारण नहीं है. भीम सेना संगठन भले ही दलित युवाओं का है लेकिन कार्यकर्ताओं में जोश भरने के इसके स्वर काफी कुछ शिवसेना से मेल खाते हैं. भीम सेना और दलित चेतना की सोशल मीडिया पर भी अच्छी खासी उपस्थिति है, जो बताती है कि बहुजन समाज तकनीक के दौर में बहुत आगे भले ही न गया हो लेकिन इससे अनजान भी नहीं है.
इनके फेसबुक ग्रुप हैं जिनके सदस्य भले ही महज दस हजार से ज्यादा हों लेकिन इरादे ईंट से ईंट बजा देने वाले हैं. ये भोले-भाले युवा सोशल मीडिया पर पूछते हैं, महापंडितों उस किताब का नाम बताओ जिसमें 33 करोड़ देवताओं का नाम लिखा है. जेईई टॉपर कल्पित और पंजाब में 12वीं की परीक्षा में 100 प्रतिशत नंबर लाने वाले परमिंदर को दलित गौरव बताते हैं.
बड़ा अच्छा लगता है जब कोई सदस्य बीच में अपनी बेटी की फोटो पोस्ट कर लिखता है कि मेरी बेटी 91 परसेंट से पास हुई है या हरिराम रैगर ने राजस्थान की 12वीं की परीक्षा में 490 अंक लाकर मेरिट की हवा निकाल दी. ये लोग मनुवादी आतंकवादी जैसी उपमाओं का प्रयोग करते हैं. जस्टिस करनन को न्याय का योद्धा बताते हैं और मानते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उनके साथ अन्याय हुआ. कटप्पा को फिल्म में साजिश के तहत बदनाम किया गया. और जय भीम जय भारत के नारों की तो भरमार है.
जाहिर है दलित युवा अब दबकर नहीं, दबंगई से जीना चाहते हैं. दबंग यानी ताकतवर होना है. ये अपराध तो तब है जब आप उस ताकत का इस्तेमाल कमजोर को दबाने में करते हैं और सामंतवाद तब है जब इसके बल पर राज करते हैं. वर्ण व्यवस्था से समाज का संतुलन जब बेहद बिगड़ गया तो आरक्षण में इसका इलाज ढूंढा गया. आरक्षण से इलाज तो हुआ पर सेहत मुट्ठीभर लोगों की सुधरी. ये मुट्ठीभर लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न होते गए और बहुजन समाज से कटते गए.
बहुजन समाज की नई पीढ़ी शान से जीना चाहती है. तकनीकी चेतना से सराबोर युवा ताल ठोककर मुकाबले में है. परेशानी ये है कि इनका जोश दबंग दिखने की तमन्ना वाला है. भीम सेना और इसके समर्थक नेताओं में लंबे समय की सोच नहीं दिखती. गुजरात के जिग्नेश मेवानी समेत देशभर के तमाम दलित भीम सेना और इसके नेता चंद्रशेखर का समर्थन कर रहे हैं. चंद्रशेखर का हश्र भी हार्दिक पटेल जैसा न हो जाए. ये आशंका इसलिए कि वे अभियान की आक्रामकता का स्तर तय नहीं कर पाया है और रणनीति उसके पास है नहीं. रणनीति न होने का खामियाजा दलित चेतना के पैरोकार पिछले चुनावों में भोग चुके हैं.
दलितों की लड़ाई में सबसे ज्यादा परेशानी मानसिकता की है. हमारे एक मित्र ने जब से ब्राह्मण युवती से शादी की है, ससुराल के कुलीन ब्राह्मण वाले गुणों का बखान चौंकाने वाले अंदाज में करते हैं. ब्राह्मणों को गाली देना उन्होंने छोड़ दिया है. वंश चलता तो अपना सरनेम बदल लेते. कहने का मतलब है कि वर्णवादी व्यवस्था बदलना लक्ष्य होना चाहिए न कि ब्राह्मण हो जाने की इच्छा पूरी करना. अगर आप ब्राह्मण हो जाएंगे, दबंग हो जाएंगे तो फिर वही करेंगे जो अब तक होता आया है. इससे गुणात्मक बदलाव की संभावना खत्म हो जाएगी और सिर्फ अमीर ही अमीर होते रहेंगे चाहे वे दलित हों या सवर्ण या पिछड़े.
दलित चेतना आंदोलन हमेशा अपने ही नेताओं द्वारा ठगे गए हैं. अगर ऐसा न होता तो आदिवासी व दलितों को आरक्षण मिले आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन जमीनी हालात जरा भी नहीं बदले. सफाईकर्मी की तीसरी पीढ़ी भी सफाई कर रही है. ये बात दीगर है कि महानगरों में उसकी कमाई में थोड़ा इजाफा हो गया है. उसके हाथ में मोबाइल और चंद्रशेखर जैसे नेताओं से संपर्क के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म है.
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