नेस्ले, मैगी नूडल्स में मिलावट की आरोपी है. यह सच है, लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी है कि मैगी ने देश को मिलावट के खिलाफ ठोस लड़ाई लड़ने का के सुनहरा मौका भी दिया है. अगर मैगी के बहाने हाथ आए इस मौके को जनता, सरकार और संस्थाओं ने हाथ से जाने दिया, तो मैगी से बड़े गुनाहगार हम होंगे. मिलावट का मुद्दा न तो देश के लिए नया है और न ही मैगी कोई पहला प्रोडक्ट है, जिसमें मिलावट मिली हो. लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ था, जब उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे बाराबंकी से आयी खबर देश की सुर्खी बन गई. राष्ट्रीय मीडिया की न सिर्फ पहली खबर बनी, बल्कि इस खबर ने एक मीडिया कैंपेन की शक्ल भी ले ली. इसी का नतीजा रहा कि एक के बाद एक राज्यों में मैगी की जांच हुई, कहीं सैंपल पास हुए, तो बहुत सारी जगह सैंपल में लैड और एमएसजी की मात्रा तय मानकों से ज्यादा निकली. मैगी बैन हो गई और खबर यहीं थम गई. यह शायद मैगी की मिलावट से भी बड़ा खतरा है, क्योंकि अगर मैगी के बाद भी मिलावट के खिलाफ निर्णायक जंग शुरु न हो पायी, तो यह शुद्धता की सबसे बड़ी हार होगी.
क्यों जरूरी है मिलावट से लड़ाई
खाने पीने की चीज़ों में मिलावट रोकने के लिए अब लडाई शब्द का ही इस्तेमाल करना पड़ेगा. क्योंकि मिलावट रोकने के लिए कोशिशें युद्धस्तर पर करने की ज़रूरत है. क्योंकि मिलावट का दायरा कागज़ पर दर्ज की जा रही रिपोर्ट्स से कहीं बड़ा है. मैगी तो फास्ट फूड है, जिसे लेकर लोगों का पूर्वाग्रह भी हो सकता है और यह लोकप्रिय होने के बाद भी इसकी पहुंच दूध जैसी ज़रूरी चीज़ से कम ही है. लेकिन चिंताजनक तथ्य यह है कि हर घर में रोज़ाना इस्तेमाल होने वाले दूध को भी हम सुरक्षित नहीं बना पाए हैं. पिछले चार सालों के आंकड़े बता रहे हैं कि दूध साल दर साल दूषित हो रहा है, लेकिन अपनी ही रिपोर्ट्स सरकार की आंखें नहीं खोल पाती है. राज्यसभा में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने मई 2015 में दूध में मिलावट पर रिपोर्ट पेश की. राज्यसभा में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12...
नेस्ले, मैगी नूडल्स में मिलावट की आरोपी है. यह सच है, लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष यह भी है कि मैगी ने देश को मिलावट के खिलाफ ठोस लड़ाई लड़ने का के सुनहरा मौका भी दिया है. अगर मैगी के बहाने हाथ आए इस मौके को जनता, सरकार और संस्थाओं ने हाथ से जाने दिया, तो मैगी से बड़े गुनाहगार हम होंगे. मिलावट का मुद्दा न तो देश के लिए नया है और न ही मैगी कोई पहला प्रोडक्ट है, जिसमें मिलावट मिली हो. लेकिन ऐसा शायद पहली बार हुआ था, जब उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे बाराबंकी से आयी खबर देश की सुर्खी बन गई. राष्ट्रीय मीडिया की न सिर्फ पहली खबर बनी, बल्कि इस खबर ने एक मीडिया कैंपेन की शक्ल भी ले ली. इसी का नतीजा रहा कि एक के बाद एक राज्यों में मैगी की जांच हुई, कहीं सैंपल पास हुए, तो बहुत सारी जगह सैंपल में लैड और एमएसजी की मात्रा तय मानकों से ज्यादा निकली. मैगी बैन हो गई और खबर यहीं थम गई. यह शायद मैगी की मिलावट से भी बड़ा खतरा है, क्योंकि अगर मैगी के बाद भी मिलावट के खिलाफ निर्णायक जंग शुरु न हो पायी, तो यह शुद्धता की सबसे बड़ी हार होगी.
क्यों जरूरी है मिलावट से लड़ाई
खाने पीने की चीज़ों में मिलावट रोकने के लिए अब लडाई शब्द का ही इस्तेमाल करना पड़ेगा. क्योंकि मिलावट रोकने के लिए कोशिशें युद्धस्तर पर करने की ज़रूरत है. क्योंकि मिलावट का दायरा कागज़ पर दर्ज की जा रही रिपोर्ट्स से कहीं बड़ा है. मैगी तो फास्ट फूड है, जिसे लेकर लोगों का पूर्वाग्रह भी हो सकता है और यह लोकप्रिय होने के बाद भी इसकी पहुंच दूध जैसी ज़रूरी चीज़ से कम ही है. लेकिन चिंताजनक तथ्य यह है कि हर घर में रोज़ाना इस्तेमाल होने वाले दूध को भी हम सुरक्षित नहीं बना पाए हैं. पिछले चार सालों के आंकड़े बता रहे हैं कि दूध साल दर साल दूषित हो रहा है, लेकिन अपनी ही रिपोर्ट्स सरकार की आंखें नहीं खोल पाती है. राज्यसभा में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने मई 2015 में दूध में मिलावट पर रिपोर्ट पेश की. राज्यसभा में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12 देशभर में 8247 सैंपलों में मिलावट मिली. 2012-13 में यह आंकड़ा बढ़कर 10380 सैंपल तक पहुंच गया. इसके अलगे साल यानी 2013-14 में दूध के 13571 सैंपल टेस्ट में फेल हो गए. 2014 में जनवरी से सितंबर के बीच ही 4861 सैंपल मिलावटी पाए गए. मतलब यह हुआ कि साल दर मिलावट का आंकड़ा बढ़ रहा है और खतरा भी. क्योंकि दूध में यूरिया से लेकर डिटरजेंट तक की मिलावट मिली है. ब्रांड की आड़ में सुरक्षित होने का दावा भी बेकार है. दिसंबर 2014 में मुंबई और ठाणे में ब्रांडेड दूध के 81 में से 55 सैंपल खाद्य विभाग की जांच में फेल हो गए. जून 2015 में आगरा तक यह सिलसिला जारी है, जब लोकप्रिय मदर डेयरी ब्रांड के दूध में रिफाइंड तेल और डिटरजेंट की मिलावट मिली है. अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि ब्रांडेड से इतर दूध का बाज़ार कितना विषैला होगा, जो नौनिहाल की रंगों में मिलावट का ज़हर घोल रहा है.
मिलावट बनाम मुनाफाखोरी
बात सिर्फ मैगी या दूध की नहीं है. इन आंकड़ों का इस्तेमाल सिर्फ मिलावट का पैमाना समझने के लिए कीजिए, लेकिन मुद्दा इससे कहीं बड़ा है. क्योंकि मुनाफाखोरी के बाज़ार में मिलावट का डर किसी को नहीं है. त्योहारों पर मिठाइयों में ज़हर है, सिंथेटिक मावा तक तैयार होकर बाज़ार में बिकता है, तो डिब्बाबंद खाद्य सामग्री भी सुरक्षित नहीं है. टेस्ट बढाने के लिए कैमिकल का इस्तेमाल ही नहीं, मुनाफा बढ़ाने के लिए भी मिलावट हो रही है. यहां तक कि फलों और सब्जियों को कैमिकल के इस्तेमाल से ज़हरीला बना दिया गया है. अच्छी पैकेजिंग और मार्केटिंग खाने पीने की चीजों के सुरक्षित होने की ग्यारंटी नहीं हो सकती. मैगी कांड के बाद यह तय हो गया है. फुटकर दुकानों और सड़क किनारे बिक रही खाद्य सामग्री की सुरक्षा को लेकर कुछ दावा करना भी मुश्किल है. क्योंकि न बेचने वाले को परवाह है और खाने वाले की तो मजबूरी है.
कुंद पड़े हैं मिलावट विरोधी कानून
खाद्य सुरक्षा कानून में 2006 में बदलाव किया गया. फूड सेफ्टी स्टेंडर्ड अथॉरिटी आफ इंडिया का गठन भी किया गया. लेकिन मिलावटखोरों की नकेल कसने में अभी भी यह कानून कम पड़ रहे हैं. नियम हैं, लेकिन लागू कौन करे. खाद्य पदार्थों की जांच का ज़िम्मा मुख्यतौर पर राज्यों के हवाले है और राज्यों में जांच लेबोरेटरी खस्ता हाल में है. यहां तक कि लेबोरेटरीज़ में मौजूद होने वाली वो सुविधाएं भी नहीं है, जो जांच के लिए आए नमूनों को सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी है. सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों की लैबोरेटरीज़ में सैंपल को सुरक्षित रखने के लिए उपकरणों की कमी है. यहां तक कि तापमान बनाए रखने के लिए एअर कंडीशनर तक नहीं है. स्टाफ की कमी सभी जगह की एक कॉमन समस्या है. सैंपलिंग का काम तय नियमों के मुताबिक नहीं होता. राज्यों में एसडीएम की मौजूदगी में सैंपल लिए जाते हैं. लेकिन यह काम उनके लिए प्राथमिकता में नहीं होता. टेक्नीशियन और एक्सपर्ट काम के बोझ और कागजी खानापूर्ति से दबे हैं और कई लेबोरेटरीज़ में स्टाफ तक नहीं है. अब बात करें मिलावटखोरों को सज़ा दिलाने की, तो इसके आंकड़े ही हैं, जो पूरी व्यवस्था को कटघरे मे खड़ा करने के लिए काफी हैं. पहले ही सैंपलिंग और केस दर्ज करने की दर ज़रूरत से बहुत कम है. इसमें भी जो केस दर्ज होते हैं, उन मिलावटखोरों को सज़ा नहीं मिल पाती. पिछले पांच सालों में मिलावटखोरों को सज़ा का आंकड़ा दस हज़ार में भी नहीं है. स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12 में सिर्फ 764 मिलावटखोरों को सज़ा मिली. अलगे दो सालों में यह आंकड़ा 3175 और 2932 तक ज़रूर पहुंचा, लेकिन ज्यादातर मिलावटखोर जुर्माना देकर छूट गए. 2014 में सितंबर तक 991 लोगों को मिलावट का दोषी पाया गया. अब सवाल यह है कि मिलावट पर लगाम कैसे लगेगी और कौन लगाएगा. क्योंकि लगता है सरकार ने तो कानून बनाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली है. तो फिर मिलावट का कारोबार यूं ही चलता रहेगा. मैगी मामले से सबक नहीं लिया, तो किसी शायर की इस कल्पना को साकार होने से कोई नहीं रोक सकता कि-
"हो रहे थे चर्चे हमारी खुदकुशी के शहर में, सुबह उठकर देखा, तो मिलावट थी ज़हर में"
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