जापानी लोग समय के उतने ही पाबंद होते हैं, जितने हिंदुस्तानी नहीं होते. जापानी एनसेफेलाइटिस बिल्कुल समय पर आता है. मदद कभी समय पर नहीं आती. वही महीना, साल दर साल. वही लापरवाही और निकृष्टता. साल दर साल. बिलबिलाते बच्चों की आत्माएं नहीं सालती सरकारों को.
इस साल कुछ अलग हुआ. इससे पहले की इलाज की कमी लील लेती लालों को, ऑक्सीजन की कमी ने इलाज के अभाव को भाव ही नहीं दिया. कौन जाने इनमें से कौन डॉक्टर बनकर आज के डॉक्टरों को मुंह चिढ़ाता. पोलियो को परास्त कर देने वाले भारत में दिमागी बुखार जीत जाता है. इसका भी वैक्सीन है पर उस पर ये अफवाह भारी है कि बच्चों को नपुंसक बनाने की साजिश है इसमें.
जब बड़ों को अंधविश्वास का दिमागी बुखार हो तो बच्चे ना मरते तो क्या करते. पोलियो जैसा आंदोलन नहीं बन पाया दिमागी बुखार का वैक्सीनेशन क्योंकि पोलियो जीवन को घसीटता दिखता है. दिमागी बुखार वाले बच्चे हमारी आंखों में चुभने से पहले चले जाते हैं.
गोरखपुर में सब सामान्य है. यथास्थिति से समझौता कर चुकी भयावह सामान्यता. इतिहास ने खुद को इतनी बार नहीं दुहराया होगा जितनी बार ये त्रासदी सिर्फ चार दशकों में दुहरा चुकी है. कहते हैं इतिहास से जिसने सीख नहीं ली उसे इतिहास सिखा देता है. आइए गोरखपुर के तीन दिन के इतिहास से तीन सीख ले लें.
नायक किताबों में मिलते हैं
कभी त्रासदी हमको इकट्ठा कर देती थी. हम अपने भेद भुलाकर खेद प्रकट करते थे. अब हम छेद देखते हैं जैसे छन्नी सूप को देखती है. जुनैद सीट के लिए मारा गया. देवेंद्र भी सीट के लिए मारा गया. सुविधानुसार हमने मातम मनाया, रोष जताया. धर्म आधारित मातम. विचारधारा आधारित रोष. पहले कहीं दुर्घटना में मौत हो जाए तो आंखें नरम हो जाती थीं, अब धरम पूछ के गरम होती हैं. हमारे नायक अलग हैं, खलनायक अलग.
कफील...
जापानी लोग समय के उतने ही पाबंद होते हैं, जितने हिंदुस्तानी नहीं होते. जापानी एनसेफेलाइटिस बिल्कुल समय पर आता है. मदद कभी समय पर नहीं आती. वही महीना, साल दर साल. वही लापरवाही और निकृष्टता. साल दर साल. बिलबिलाते बच्चों की आत्माएं नहीं सालती सरकारों को.
इस साल कुछ अलग हुआ. इससे पहले की इलाज की कमी लील लेती लालों को, ऑक्सीजन की कमी ने इलाज के अभाव को भाव ही नहीं दिया. कौन जाने इनमें से कौन डॉक्टर बनकर आज के डॉक्टरों को मुंह चिढ़ाता. पोलियो को परास्त कर देने वाले भारत में दिमागी बुखार जीत जाता है. इसका भी वैक्सीन है पर उस पर ये अफवाह भारी है कि बच्चों को नपुंसक बनाने की साजिश है इसमें.
जब बड़ों को अंधविश्वास का दिमागी बुखार हो तो बच्चे ना मरते तो क्या करते. पोलियो जैसा आंदोलन नहीं बन पाया दिमागी बुखार का वैक्सीनेशन क्योंकि पोलियो जीवन को घसीटता दिखता है. दिमागी बुखार वाले बच्चे हमारी आंखों में चुभने से पहले चले जाते हैं.
गोरखपुर में सब सामान्य है. यथास्थिति से समझौता कर चुकी भयावह सामान्यता. इतिहास ने खुद को इतनी बार नहीं दुहराया होगा जितनी बार ये त्रासदी सिर्फ चार दशकों में दुहरा चुकी है. कहते हैं इतिहास से जिसने सीख नहीं ली उसे इतिहास सिखा देता है. आइए गोरखपुर के तीन दिन के इतिहास से तीन सीख ले लें.
नायक किताबों में मिलते हैं
कभी त्रासदी हमको इकट्ठा कर देती थी. हम अपने भेद भुलाकर खेद प्रकट करते थे. अब हम छेद देखते हैं जैसे छन्नी सूप को देखती है. जुनैद सीट के लिए मारा गया. देवेंद्र भी सीट के लिए मारा गया. सुविधानुसार हमने मातम मनाया, रोष जताया. धर्म आधारित मातम. विचारधारा आधारित रोष. पहले कहीं दुर्घटना में मौत हो जाए तो आंखें नरम हो जाती थीं, अब धरम पूछ के गरम होती हैं. हमारे नायक अलग हैं, खलनायक अलग.
कफील खान दोनों है. वह हीरो हो गए चंद घंटों के लिए क्योंकि एक रात उन्होंने वह किया जो उनका कर्तव्य था. आजकल कौन करता है? फिर रातों रात विलेन क्योंकि बाकी रातें (और दिन) वे कुछ नहीं कर रहे थे, जब छोटे छोटे बच्चे मर रहे थे. हीरो वाले दिन उन्होंने कहा कि वो सबसे पहले भारतीय हैं. इस कदर ईमानदारी के लिए उनको साधुवाद. भारतीय ही करते हैं ऐसा. निजस्वार्थ के लिए अपने ईमान को ताक पर रखते हैं और कुछ सालों में अपना अस्पताल बना लेते हैं ताकि मरीज को शिफा मिले और उसकी दुआएं अपने पापों का वज़न कुछ कम कर सकें.
गोरखपुर में कोई हीरो नहीं. टाइम नहीं है. महानगरों से बाहर के भारत में जीना एक युद्ध है. जो बच जाए और गांव-शहर छोड़ कहीं महानगर पहुंच जाए, वह हीरो है. जो रह गए वह जी भर लें, बहुत है हीरो होने के लिए. अगर आपको हीरो ढूंढना है तो सरकारी दफ्तरों के अंधेरों में लालटेन लिए मत घूमिए. यूपी के अस्पतालों में तो कतई नहीं. दूर जाइए खेतों में एकाध नायक अपने पसीने से आंसुओं की फसल काटते मिल जाएं तो मिल जाएं. या फिर उन बच्चों में जिन्हें ऑक्सीजन नहीं मिला. उनको अवसर ही नहीं मिला कि गोरखपुर के क्राइम और करप्शन का कार्बन डाइऑक्साइड उनके पवित्र फेफड़ों को दूषित कर सके. इससे पहले कि उनकी मानवता मरती, ऑक्सीजन की कमी ने हमारे नायकों को मार दिया.
एकता में अनेकता
बांटने वालों की बात बहुत हुई, अब एकता की बात करें. हमारे मुल्क में तीन तरह के लोग हैं. तीसरा और सबसे बड़ा समूह उन लोगों का है जो सहमे, चुपचाप देखते रहते है पहले और दूसरे समूहों को कभी धींगामुश्ती में, कभी कुश्ती में. तीसरे को टाइम नहीं है. बाकी दोनों के पास बहुत है. मैदान है सोशल मीडिया. एक तब आनंदित हो उठता था जब कांग्रेस के राज में कांग्रेस के किसी राज्य में अनहोनी हो जाती थी. दूसरा अब जब बीजेपी के राज में बीजेपी के किसी राज्य में कुछ बुरा हो जाए. तथ्य और आंकड़े, कभी सही, कभी गलत, तैयार. साथ में गालियां, देसी, विदेशी. दूसरे के दुर्भाग्य पर तांडव करने वाले पांडव समझते हैं दूसरा कौरव है. कालिख पुत गया देश पर मगर गौरव है. इस बात पर दोनों गुटों में एकता है. तीसरा गुट सब चुपचाप देखता है. घर के सदस्य आठ हैं और रोटी चार है. क्योंकि सच और झूठ के बीच का फासला मिट गया है. तथ्य सुविधानुसार हैं, दुश्मन के दुश्मन यार हैं.
कफील खान स्वयं इस सोशल मीडिया दंगल के पहलवान हैं. उन्होंने भांप लिया और अपने निरंतर निकृष्टता को त्वरित कर्तव्यनिष्ठा से ढांप दिया. कैमरे के सामने खड़े हो गए और रातोंरात बड़े हो गए पर कैमरा किसी का सगा नहीं. ज़ूम किया तो परतें खुलने लगीं. सुबह नौ से रात के नौ अगर अपने निजी अस्पताल में मरीजों से मिलते थे तो सरकारी अस्पताल के बच्चे तो भगवान भरोसे थे. उनके बॉस मिश्राजी तो शहर में नहीं थे वरना कर्तव्यनिष्ठा का बड़ा तमगा उनके हिस्से आता और कफील को छोटे वाले से संतोष करना पड़ता. कहानी ये होती कि जो ऑक्सीजन का सिलिंडर कफील अपनी कार में लाते थे, वह मिश्राजी अपने हाथों से बनाते थे. पर हाय री किस्मत, जूनियर जमाना लूट गया. खैर दोनों अपने पदों से निलंबित हो गए हैं पर शहादत का तमगा सिर्फ कफील के हाथ लगा और लानत का भी. क्या लानत और क्या शहादत, इस बात पर भी अनेकता है. इसमें भी एक तरह की एकता है.
सुविधानुसार चोट और आवश्यकतानुसार नैतिकता
हमारी आत्मा अगर जिंदा है तो कभी-कभी ही क्यों जागती है. बाकी समय क्या हम मुर्दे हैं? रोष एक संक्रामक रोग जैसा है. मौसमी व्याधियों की तरह फैल जाता है, फिर खत्म. सच कड़वा होता है पर एक सीमा के अंदर रहे तो हम उसे चुभला कर निगल लेते हैं. सीमा के बाहर हो जाए तो गले में अटकता है, फिर कुछ दिल में चटकता है और हम चूर-चूर हो जाते हैं. कोई टॉपिक ट्विटर पर ट्रेंड कर जाए तो हमारी आत्मा दस्तक देती है, फोन उठाओ और बता दो दोनों जहां को हम जिंदा हैं. कि हम ढीठ हैं या फिर शर्मिंदा हैं. हम जमीर से अमीर हैं. बाकी वक्त खमीर हैं, जीवित हैं पर जान नहीं.
गोरखपुर के बच्चे अगर दिन में सात मरते तो कोई फरक नहीं अलबत्ता. दिन में दस-पंद्रह भी हो जाएं तो खबर नहीं. खबर नहीं तो असर नहीं. क्योंकि मर रहे थे इलाज की कमी से सात-दस बच्चे हर रोज़. फिर एक दिन आंकड़ा सत्रह हुआ. बस लिमिट पार. फिर दो दिन में तीस. अब जो टीस उठी तो कोयंबटूर तक पहुंची, जहां की खबर यहां तक नहीं आई क्योंकि वहां अब भी थोक में बच्चे नहीं मर रहे. वहां मौत का कारोबार अभी छुट्टे के दायरे में है. चूंकि गोरखपुर के बच्चों ने थोक की हिमाकत की तो रोष प्रकट हुआ. मुख्यमंत्री को हटाओ. चलो, इस्तीफा दिलवा दो. नहीं देते तो कोई मंत्री का मंगवाओ. वो भी नहीं तो प्रिंसिपल को हटाओ. अच्छा, उन्होंने पहले ही इस्तीफा दे दिया. ठीक है फिर, आगे बढ़ते हैं.
बच्चों को थोक में मरना पड़ता है हमारी खुदरा संवेदनाओं को जागने के लिए. सत्रह कम से कम, नहीं तो च्च-च्च की चवन्नी में भी हम नहीं निकालते दिल के पाकिट से. आप जब ये पढ़ रहे हैं, बच्चे देश के सुदूर अस्पतालों में मर रहे हैं, कहीं अभाव से, कहीं इलाज से. खबर नहीं तो असर नहीं. दिल पर हाथ रखिए और पूछिए क्या सचमुच खबर नहीं. मालदा में हुआ तो ममता से. गोरखपुर में हुआ तो योगी से. इस्तीफा मांगा और आगे बढ़ गए. नैतिकता के आधार पर इस्तीफा मांगते नहीं, देते हैं. उनकी नैतिकता मर गई है. आपकी जिंदा है तो इस्तीफा दे दीजिए इस सिस्टम से. दे नहीं सकते तो आगे बढ़ें.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं. राष्ट्रगान गाइए और राष्ट्रगीत पर झगड़े का आनंद उठाइए. भारत माता की जय. प्रार्थना कीजिए कि उसके बच्चे को ऑक्सीजन मिले जब जरूरत हो.
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