अमेरिकी लेखक हेनरी जेम्स ने कहा है, 'साहित्य के छोटे से हिस्से का सृजन करने के लिए भी इतिहास के बहुत बड़े हिस्से का अध्ययन करना पड़ता है.' लेकिन आज के लेखकों के पास इतना समय है क्या? यह सवाल 2015 में पूरी तरह छाया रहा. 2015 में हिंदी की एक बड़ी लेखकीय जमात जल्दबाजी की शिकार दिखी. वह जल्द लिखकर जल्द सुर्खियां लूटने की जुगत में थी. इसलिए सोशल नेटवर्किंग के सहारे हिंदी को एक नई विधा देने की कोशिश में दम फूंकती दिखी. नतीजाः झटपट साहित्य. ऐसा साहित्य जो खुद के लिए लिखा गया, खुद के बारे में कहा गया और आत्ममोह से जुड़ा था. जिसे भावों के ज्वार उठने पर एक झटके में लिखा गया.
हिंदी के प्रकाशक भी झटपट साहित्य में उलझे थे. पूरा सीन कथ्य से ज्यादा कथ्य कहने वालों पर रीझने वाला हो गया. यानी ऐसा साहित्य रचने पर जोर रहा जो सोशल नेटवर्किंग साइट्स की रीच पर ज्यादा निर्भर था, लेखक की क्षमता और कथ्य पर कम.
यह सब तब हो रहा था जब विदेशी साहित्य में स्तर और वैशिष्ट्य दोनों का ख्याल रखा जा रहा था. विश्व पटल पर हार्पर ली की गो सेट अ वॉचमैन, मिलान कुंदेरा की 'द फेस्टिवल ऑफ इनसिग्निफिकेंस' और मारियो वर्गास लाओसा की 'द डिस्क्रीट हीरो' जैसी किताबें आईं.
कथा और आलोचना साहित्य
किशन पटनायक की एक किताब है 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया' उसी तरह से 2015 में हिंदी में बहुत ज्यादा नहीं तो कुछ कोशिशें ऐसी हुईं जिन्होंने अभी उम्मीदों को जिंदा रखा है. जैसे मृणाल पांडे की 'ध्वनियों के आलोक में स्त्री', जिसमें गौहर जान, बेगम अख्तर, मोघूबाई और गंगुबाई हंगल जैसी गायिकाओं के जीवन का वर्णन है जो मजेदार और दिलचस्प है. कश्मीरी-हिंदी लेखक निदा नवाज की डायरी 'सिसकियां लेता स्वर्ग' वहीं की जिंदगी का रोजनामचा है, जो बहुत ही मार्मिक ढंग से वहां की कहानी है. उधर, जबसे विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने अतीत को लिखने के लिए कलम उठाई है, वे एक से एक शानदार किताबें दे रहे हैं. वह चाहे 'नंगातलाई का गांव' हो या फिर 'व्योमकेश दरवेश'. इस साल आई उनके संस्मरणों की...
अमेरिकी लेखक हेनरी जेम्स ने कहा है, 'साहित्य के छोटे से हिस्से का सृजन करने के लिए भी इतिहास के बहुत बड़े हिस्से का अध्ययन करना पड़ता है.' लेकिन आज के लेखकों के पास इतना समय है क्या? यह सवाल 2015 में पूरी तरह छाया रहा. 2015 में हिंदी की एक बड़ी लेखकीय जमात जल्दबाजी की शिकार दिखी. वह जल्द लिखकर जल्द सुर्खियां लूटने की जुगत में थी. इसलिए सोशल नेटवर्किंग के सहारे हिंदी को एक नई विधा देने की कोशिश में दम फूंकती दिखी. नतीजाः झटपट साहित्य. ऐसा साहित्य जो खुद के लिए लिखा गया, खुद के बारे में कहा गया और आत्ममोह से जुड़ा था. जिसे भावों के ज्वार उठने पर एक झटके में लिखा गया.
हिंदी के प्रकाशक भी झटपट साहित्य में उलझे थे. पूरा सीन कथ्य से ज्यादा कथ्य कहने वालों पर रीझने वाला हो गया. यानी ऐसा साहित्य रचने पर जोर रहा जो सोशल नेटवर्किंग साइट्स की रीच पर ज्यादा निर्भर था, लेखक की क्षमता और कथ्य पर कम.
यह सब तब हो रहा था जब विदेशी साहित्य में स्तर और वैशिष्ट्य दोनों का ख्याल रखा जा रहा था. विश्व पटल पर हार्पर ली की गो सेट अ वॉचमैन, मिलान कुंदेरा की 'द फेस्टिवल ऑफ इनसिग्निफिकेंस' और मारियो वर्गास लाओसा की 'द डिस्क्रीट हीरो' जैसी किताबें आईं.
कथा और आलोचना साहित्य
किशन पटनायक की एक किताब है 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया' उसी तरह से 2015 में हिंदी में बहुत ज्यादा नहीं तो कुछ कोशिशें ऐसी हुईं जिन्होंने अभी उम्मीदों को जिंदा रखा है. जैसे मृणाल पांडे की 'ध्वनियों के आलोक में स्त्री', जिसमें गौहर जान, बेगम अख्तर, मोघूबाई और गंगुबाई हंगल जैसी गायिकाओं के जीवन का वर्णन है जो मजेदार और दिलचस्प है. कश्मीरी-हिंदी लेखक निदा नवाज की डायरी 'सिसकियां लेता स्वर्ग' वहीं की जिंदगी का रोजनामचा है, जो बहुत ही मार्मिक ढंग से वहां की कहानी है. उधर, जबसे विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने अतीत को लिखने के लिए कलम उठाई है, वे एक से एक शानदार किताबें दे रहे हैं. वह चाहे 'नंगातलाई का गांव' हो या फिर 'व्योमकेश दरवेश'. इस साल आई उनके संस्मरणों की किताब 'गुरुजी की खेती बारी' भी बेहतरीन है.
उनके अलावा वंदना राग का कहानी संग्रह 'हिजरत से पहले', दशरथ मांझी की जिंदगी पर निलय उपाध्याय का उपन्यास 'पहाड़', निखिल सचान की 'जिंदगी आइस-पाइस' (कहानी संग्रह), संजीव का उपन्यास 'फांस', सत्य व्यास का उपन्यास 'बनारस टॉकीज' और शशिकांत मिश्र का 'नॉन रेजीडेंट बिहारी' (उपन्यास) पठनीय हैं.
रमेश कुंतल मेघ का 'विश्वमिथकसरित्सागर' बहुत ही मेहनत से किया गया शानदार काम है. इसमें 35 देशों और नौ संस्कृतियों के मिथकों को संजोया गया है. ओम निश्चल की आलोचना की किताब 'शब्दों से गपशप' भी हटकर है. अनुवाद में विलियम डैलरिंपल की किताब 'द लास्ट मुगल' का 'आखिरी मुगल' नाम से हिंदी में आना सुखद है. वहीं मराठी से हिंदी में आए भालचंद्र नेमाड़े के उपन्यास 'हिंदूः जीने का समृद्ध कबाड़खाना' ने क्षतिपूर्ति का काम किया है.
कविता के चितेरे
कविता को दम तोड़ता क्षेत्र माना जा रहा है, लेकिन कुछ कवि ऐसे हैं जो कोशिशों में लगे नजर आए. इसमें पहला नाम कुंवर नारायण के संग्रह 'कुमारजीव' का आता है. कुमारजीव 300वीं सदी के आसपास के बौद्ध चिंतक कुमारजीवन का जीवनकाव्यग है जिससे गुजरते हुए कुंवर नारायण आधुनिक काव्योसंवेदना को अनदेखा नहीं करते जबकि शीन काफ निजाम की 'और भी है नाम रास्ते का' शीन की शायरी को नए मुकाम पर ले जाती है. युवा कवयित्री बाबुषा कोहली की किताब 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट' अपने मिजाज में कमाल है. बाबुषा कविता में सदैव कौतूहल जगाती जान पड़ती हैं. एकदम ताजा अछूते प्रयोगों से लैस बाबुषा की भाषा एक नए वैशिष्ट्यी के साथ सामने आती है. राजेश जोशी की 'जिद' भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, उन्होंने थोड़े में बहुत लिखा है.
पॉपुलर लिटरेचर
इस जॉनर में काफी कुछ नया हो रहा है. अमीष त्रिपाठी, चेतन भगत, सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे दिग्गजों का सिक्का बदस्तूर चला. इस सेक्शन की खासियत यह है कि इसमें अधिकतर किताबें अंग्रेजी से अनूदित हैं. अमीष त्रिपाठी की 'इक्ष्वाकु के वंशज' बिक्री के मामले में तेजी बनाए हुए है, जबकि चेतन भगत की 'हाफ गर्लफ्रेंड' ने भी ठीक-ठाक किया और सुरेंद्र मोहन पाठक तो जब से हार्पर के साथ आए हैं उनकी किताबों की रीच और बढ़ गई है. इस साल की हिट 'गोवा गलाटा' है. देवदत्त पटनायक ने 'शिखंडी' के जरिये माइथोलॉजी पर अपने काम को और आगे बढ़ाया है. यहां पूर्व राष्ट्रपित एपीजे अब्दुल कलाम की किताबों का उल्लेख जरूरी है क्योंकि युवा पाठकों में उनकी लोकप्रियता कायम है.
हिंदी में जो चाहें प्रयोग करें लेकिन जर्मन लेखक जोहान वोल्फगांग वॉन गोएथे की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि 'साहित्य का पतन ही किसी राष्ट्र के पतन का सबब है.' इसलिए उम्मीद करते हैं कि 2016 साल थोड़ा हटकर होगा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.