आज हम भारतीय जिस दौर में जी रहे हैं उसकी कल्पना हम दो दशक यानि बीस साल पहले तो कभी नहीं कर सकते थे. उदाहरण के तौर पर सूचना क्रांति की तो मानो ऐसी आंधी आई कि हमारे मुल्क में सब कुछ बदलता गया, जैसे हमारे हाथों में लैंडलाइन फोन की जगह अत्याधुनिक स्मार्ट फोन आ गए, दूरदर्शन के एंटीना की जगह पहले केबल टीवी ने ली फिर डिश टीवी भी हाज़िर है. आप सोच रहे होंगे कि ये तो हम सभी को मालूम है इसमें नया क्या है, आप सही सोच रहे हैं सूचना क्रांति में सब कुछ बदला है और बदल रहा है. लेकिन कुछ चीजें इस मुल्क में जस की तस हैं जैसे आजा़दी के 69 साल बाद भी देश में करोड़ों रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है. एक ऐसे देश में जहां करोड़ों की आबादी को दो जून ठीक से खाना भी नसीब नहीं होता, वहां इतनी मात्रा में अनाज की बर्बादी एक अलग ही कहानी बयां करती है.
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हजारों टन अनाज सही रखरखाव ना मिलने के कारण सड़ जाता है |
हर साल मानसून के दौरान खुले में जहां लाखों टन अनाज बारिश की भेंट चढ़ता है तो वहीं हजारों टन अनाज सही रखरखाव ना मिलने के चलते सड़ जाता है. गौरतलब है कि ऐसी हालत तब है जब सुप्रीम कोर्ट ने भी निर्देश दे रखा है कि अनाज को सड़ाने के बजाए जरूरतमंद गरीबों में बांटना चाहिए, लेकिन हमारे मुल्क की राज्य सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. यही वजह है कि हर साल लाखों बोरी अनाज बिना रखरखाव के सड़ता है.
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ये बड़ी हैरान करने वाली बात है कि भारत से पहले आदमी को चांद पर पहुंचे भले ही तीन दशक बीत गए हों लेकिन आज भी हमारे मुल्क में अनाज खुले में रखा जाता है क्योंकि स्टोर करने की जगह की कमी से हमारी सरकारें कई दशकों से जूझ रही हैं. सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में भगवान भरोसे छोड़कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेती है. ऐसा तब है जब हमारे मुल्क को उभरती हुई आर्थिक शक्ति कहा जा रहा है.
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इतना अनाज पैदा होने के बावजूद करोड़ों लोग भूखे सोते हैं |
ये वाकई शर्मसार करने वाला है कि सिस्टम की कमी की वजह से एक तो हम अपने अनाज को सड़ने से नहीं बचा पा रहे और अनाज के सड़ने से पहले गरीबों का निवाला भी नहीं बनवा पा रहे हैं. अफसोस तो बहुत होता है कि दुनिया भर में निर्यात करने वाले मुल्क में ही करोंड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं, फिर हम किस गलतफहमी में जिएं कि भारत कृषि प्रधान देश है. अगर वाकई ऐसा है तो हमारे देश में बुंदेलखंड, ओड़िशा में भुखमरी का प्रतिशत ज्यादा क्यों है?
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हम सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते. हमारा मुल्क तरक्की कर रहा है इसमें कोई दो राय नहीं. लेकिन दूसरी तरफ भारत में बुंदेलखंड की दशा हमारे मुंह पर कालिख पोतने जैसा काम कर रही है. क्यों ना ऐसा सिस्टम बनाया जाए जिससे अनाज को खुले में रखने से भी बचाया जाए और ना ही अनाज कई कई सालों तक गोदामों पड़ा सड़ जाए या चूहों की भेंट चढ़ जाए.
इस मुल्क में कई दशकों से भले ही एक ही दल की सत्ता रही हो, लेकिन मौजूदा दौर में देश को, सकर गरीब तबके के लोगों को मौजूदा सरकार से काफी उम्मीदें हैं. हमारी भी यही उम्मीद है कि जैसे तैसे कर दो जून की रोटी का जुगाड़ तो देश के हर नागरिक का हक़ बनता है. और इस हक़ को पूरे हक़ से सड़ने से बचाना होगा.
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