सभी के जहन में जुलाई 2005 मुंबई फ्लड की स्मृति जरूर होगी जब हजारों लोग भयंकर बारिश के शिकार हुए थे. मुंबई की सड़कें भारी बारिश के कारण तैरती नजर आ रही थीं. पूरा सिविक सिस्टम चरमरा गया था और करीब 550 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था. अगर हम नजर डालें तो तकरीबन सभी बड़े शहर में भारी बारिश होती है और जल भराव की समस्या से दो-चार होना पड़ता है. शहर में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. पूरा अर्बन सिस्टम धराशायी हो जाता है और नतीजा भारी तबाही, बेकसूरों की मौत और नागरिकों को घोर परेशानी. साल दर साल केंद्र और राज्य सरकारें मंथन करती हैं इस समस्या का निदान ढूंढ़ने का लेकिन परिणाम संतोषजनक नहीं पाता.
मुंबई में 12 साल बाद 2005 जैसे हालत तो नहीं बने लेकिन फिर एक बार लगातार 3 दिन से जारी बारिश ने मंगलवार को मुंबई वासियों को मुसीबत में डाल दिया. ट्रांसपोर्ट सिस्टम चरमरा गया, लोग जगह जगह फंस गए और सड़कों ने नदियों का रूप धारण कर लिया. सबके के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था कि क्या बीएमसी ने 2005 की परिस्थितियों से सबक नहीं लिया. पूरी मुंबई पानी में डूबी हुई नजर आ रही थी.
अगर हम देखें तो तकरीबन हर साल मुंबई को मानसून के महीनों में जल भराव की समस्या से जूझना पड़ता है. हम वर्ल्ड क्लास सिटी की कल्पना संजोए हुए हैं, शंघाई बनाने का सपना देख रहे हैं लेकिन घुटने तक डूबा हुआ शहर, लम्बा ट्रैफिक जाम, रेलवे ट्रैक पर पानी, पूरी ट्रांसपोर्ट प्रणाली का ठप्प हो जाना मुंह चिढ़ाने से कम नहीं है.
बीएमसी एशिया की सबसे धनी सिविक बॉडी मानी जाती है, जिसका बजट तकरीबन 33,514 करोड़ रुपया है लेकिन इसके बावजूद हर साल होने वाले जल...
सभी के जहन में जुलाई 2005 मुंबई फ्लड की स्मृति जरूर होगी जब हजारों लोग भयंकर बारिश के शिकार हुए थे. मुंबई की सड़कें भारी बारिश के कारण तैरती नजर आ रही थीं. पूरा सिविक सिस्टम चरमरा गया था और करीब 550 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था. अगर हम नजर डालें तो तकरीबन सभी बड़े शहर में भारी बारिश होती है और जल भराव की समस्या से दो-चार होना पड़ता है. शहर में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. पूरा अर्बन सिस्टम धराशायी हो जाता है और नतीजा भारी तबाही, बेकसूरों की मौत और नागरिकों को घोर परेशानी. साल दर साल केंद्र और राज्य सरकारें मंथन करती हैं इस समस्या का निदान ढूंढ़ने का लेकिन परिणाम संतोषजनक नहीं पाता.
मुंबई में 12 साल बाद 2005 जैसे हालत तो नहीं बने लेकिन फिर एक बार लगातार 3 दिन से जारी बारिश ने मंगलवार को मुंबई वासियों को मुसीबत में डाल दिया. ट्रांसपोर्ट सिस्टम चरमरा गया, लोग जगह जगह फंस गए और सड़कों ने नदियों का रूप धारण कर लिया. सबके के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था कि क्या बीएमसी ने 2005 की परिस्थितियों से सबक नहीं लिया. पूरी मुंबई पानी में डूबी हुई नजर आ रही थी.
अगर हम देखें तो तकरीबन हर साल मुंबई को मानसून के महीनों में जल भराव की समस्या से जूझना पड़ता है. हम वर्ल्ड क्लास सिटी की कल्पना संजोए हुए हैं, शंघाई बनाने का सपना देख रहे हैं लेकिन घुटने तक डूबा हुआ शहर, लम्बा ट्रैफिक जाम, रेलवे ट्रैक पर पानी, पूरी ट्रांसपोर्ट प्रणाली का ठप्प हो जाना मुंह चिढ़ाने से कम नहीं है.
बीएमसी एशिया की सबसे धनी सिविक बॉडी मानी जाती है, जिसका बजट तकरीबन 33,514 करोड़ रुपया है लेकिन इसके बावजूद हर साल होने वाले जल भराव को रोकने में नाकाम है. एक अनुमान के अनुसार इस साल बीएमसी ने करीब 400 करोड़ रुपया ड्रेनेज सिस्टम को ठीक करने के लिए निर्धारित किया था. 2012 से 2016 तक करीब 2700 करोड़ रुपया नालों और नदियों की सफाई में खर्च किया जा चुका है. पर परिणाम देखिये, हालत जस के तस हैं.
मुंबई में मानसून के दौरान होने वाले जलभराव का एक प्रमुख कारण है इसकी टाउन प्लानिंग और वर्षों पुराना ड्रेनेज सिस्टम. हाल के वर्षों में मुंबई की आबादी तेजी से बढ़ी है लेकिन उस अनुपात में ड्रेनेज सिस्टम की क्षमता नहीं बढ़ी है और उसके ऊपर अधिकतर ड्रेनेज पाइप भी नहीं बदले गए हैं. अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम का जाम हो जाना भी जल भराव का प्रमुख कारण है क्योंकि बारिश का पानी वापस समुद्र में नहीं जा पाता है.
2005 की तबाही के बाद बृहन्मुम्बई स्टॉर्म वाटर डिस्पोजल सिस्टम प्रोजेक्ट शुरू की गयी थी लेकिन अभी तक इसके आधे प्रोजेक्ट ही पूरे हो पाए हैं. मुंबई को भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है लेकिन तकरीबन हर साल वहां पर सिविक सिस्टम फेल हो जाता है और भारी बारिश और जल भराव के कारण इमरजेंसी जैसे हालात पैदा हो जाते हैं.
केवल मुंबई में ही इस तरह के दृश्य देखने को नहीं मिलते हैं. भारत के कई प्रमुख शहर जैसे दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु, गुडगांव आदि इससे अछूते नहीं है. 2015 में चेन्नई में आई बाढ़ के कारण करीब 350 मौतें हुई थीं और हज़ारों की संख्या में लोग बेघर हुए थे. दिल्ली, बेंगलुरु और गुडगांव में जब भारी बारिश होती है तो ये शहर थम से जाते हैं, लोगों को भयानक जाम का सामना करना पड़ता और सिविक तंत्र घुटने टेक देता है.
प्रकृति पर किसी का बस नहीं चलता है और ना ही इससे उत्पन्न आपदाओं को रोका जा सकता है. लेकिन इतना तो जरूर है कि इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम जरूर किया जा सकता है. सिविक सिस्टम की नाकामी के साथ-साथ इन आपदाओं के लिए हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं. पॉलीथिन अथवा प्लास्टिक का इस्तेमाल नालियों को बंद कर देता है और पूरा ड्रेनेज सिस्टम चरमरा जाता है. आखिर कब हम सबक लेंगे और कूड़ा-करकट, कचरा, कबाड़ आदि को नालों में फेकनें से बचेंगें.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.