कल भोर में मैं उठी और उठते ही रसोई में चली गई. नहीं, मैं छुपकर कुछ खाने नहीं गई थी बल्कि उत्तर भारत के एक पौराणिक व्रत करवाचौथ से पहले की तैयारी करनी थी.
पर करवाचौथ की कहानी कुछ अजीब लगती है. कहानी में, जो पुरुष हैं गलती उनकी होती है, पर कहीं भी ये स्पष्ट नहीं है कि महिला को उनकी गलतियों के बदले व्रत क्यों करना पड़ता है.
सर के बीचोबीच आधा इंच मोटा सिंदूर भरने वाली हमारी महिला नेताओं ने भी इसपर कोई मदद नहीं की. मुझे नहीं लगता कि मैं अपनी कुछ कैबिनेट मंत्रियों को अच्छी तरह से सजे-धजे, मेहंदी लगाए, चूडियां पहने और पारंपरिक नृत्य करते कभी भी देख पाउंगी. क्या जरूरत पड़ने पर कुछ चीजें भूलनी नहीं चाहिए?
साड़ी पहनने वाली, प्रेम में ठुकराई हुई, व्रत करने वाली पत्नियां, जो ‘पैरदान’ की तरह दरवाजे पर खड़ी अपने शराबी, काम में डूबे हुए और बेपरवाह पतियों के आने का इंतज़ार करती हैं, एकता कपूर और करण जौहर के इस आइडिए ने भी कोई मदद नहीं की.
इस रिवाज को महिला विरोधी कहा गया है क्योंकि इसमें महिला अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत करती है और इससे उसका स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है. लेकिन ये इतना भी बुरा नहीं है. हम जानते हैं कि कई महिलाएं अपने पसंदीदा कपड़ों में फिट होने के लिए भी भूखी रहती हैं. तो अगर आप फेसबुक पर लाइक्स पाने के लिए भूखी रह सकती हैं तो फिर अपने जीवनसाथी के लिए क्यों नहीं? पर वास्तव में, ये मेरे विचार या तर्क नहीं हैं.
इस रिवाज को ओछा भी कहा गया है क्योंकि अब ये त्योहार सिर्फ डिजाइनर साडियों, नए गहनों, व्रत से पहले की दावत और किटी पार्टियों तक सीमित रह गया है. ये शेखी दिखाने का एक ऐसा त्योहार बन गया है जिसके सारे मायने खत्म हो गए हैं.
कल भोर में मैं उठी और उठते ही रसोई में चली गई. नहीं, मैं छुपकर कुछ खाने नहीं गई थी बल्कि उत्तर भारत के एक पौराणिक व्रत करवाचौथ से पहले की तैयारी करनी थी. पर करवाचौथ की कहानी कुछ अजीब लगती है. कहानी में, जो पुरुष हैं गलती उनकी होती है, पर कहीं भी ये स्पष्ट नहीं है कि महिला को उनकी गलतियों के बदले व्रत क्यों करना पड़ता है. सर के बीचोबीच आधा इंच मोटा सिंदूर भरने वाली हमारी महिला नेताओं ने भी इसपर कोई मदद नहीं की. मुझे नहीं लगता कि मैं अपनी कुछ कैबिनेट मंत्रियों को अच्छी तरह से सजे-धजे, मेहंदी लगाए, चूडियां पहने और पारंपरिक नृत्य करते कभी भी देख पाउंगी. क्या जरूरत पड़ने पर कुछ चीजें भूलनी नहीं चाहिए? साड़ी पहनने वाली, प्रेम में ठुकराई हुई, व्रत करने वाली पत्नियां, जो ‘पैरदान’ की तरह दरवाजे पर खड़ी अपने शराबी, काम में डूबे हुए और बेपरवाह पतियों के आने का इंतज़ार करती हैं, एकता कपूर और करण जौहर के इस आइडिए ने भी कोई मदद नहीं की. इस रिवाज को महिला विरोधी कहा गया है क्योंकि इसमें महिला अपने पति की लंबी उम्र के लिए व्रत करती है और इससे उसका स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है. लेकिन ये इतना भी बुरा नहीं है. हम जानते हैं कि कई महिलाएं अपने पसंदीदा कपड़ों में फिट होने के लिए भी भूखी रहती हैं. तो अगर आप फेसबुक पर लाइक्स पाने के लिए भूखी रह सकती हैं तो फिर अपने जीवनसाथी के लिए क्यों नहीं? पर वास्तव में, ये मेरे विचार या तर्क नहीं हैं. इस रिवाज को ओछा भी कहा गया है क्योंकि अब ये त्योहार सिर्फ डिजाइनर साडियों, नए गहनों, व्रत से पहले की दावत और किटी पार्टियों तक सीमित रह गया है. ये शेखी दिखाने का एक ऐसा त्योहार बन गया है जिसके सारे मायने खत्म हो गए हैं. अगर पति भी व्रत करें तो? कैसा हो कि एक दूसरे से प्रेम करने वाले दो लोग, एक दूसरे की लंबी उम्र के लिए व्रत करें? आप पूरा दिन अपने साथी के त्याग, अपने प्रेम और ज्यादातर रात के खाने के बारे में सोचकर बिताते हैं. पर असल में ये विवाह के प्रति आपकी भावनाओं और एक जीवन भर के बंधन का दिन है, जो अक्सर फेसबुक और वाट्सएप के 'लाइक' और 'स्माइली' में कहीं खो जाता है. ये एकदूसरे के स्वस्थ जीवन के लिए किया जाने वाला त्याग है जो आपको आपके प्रेम की याद दिलाता है. आप एक दूसरे के लिए तैयार हों, चांद को देखें फिर एक दूसरे को देखें और तब व्रत खोलें, कितना रूमानी है न! आप इसे एक सुंदर कल्पना कह सकते हैं. लेकिन जब मैं अगले दिन की तैयारी करने बैठी, मुझे अहसास हुआ कि मेरे साथ व्रत करने वाले मेरे दोनों दोस्त पुरुष थे. मेरी किसी भी महिला दोस्त ने अपने पतियों के लिए व्रत नहीं किया. इसके मायने ये हैं कि शायद हमारा समाज बदल रहा है. मेरे परिवार में, सभी पुरुष व्रत करते हैं. मेरे दादाजी क्रांतिकारी थे. वो कहा करते थे कि 'मैं अपनी पत्नी के बगैर जीना नहीं चाहता'. मुझे नहीं पता कि वो उन्हें इतना प्रेम करते थे या नहीं, लेकिन उनकी ये बात मुझे बहुत पसंद थी. हमने तीसरी पीढ़ी तक ये परंपरा निभाई है. परिवार का हर पुरुष व्रत करता है. कोई सवाल नहीं किया जाता. ये इस बात को कहने का बहुत अच्छा और सरल सा तरीका है कि हम सब समान रूप से प्रिय हैं. और किसी की भी जान दूसरे की जान से ज्यादा कीमती नहीं है. मैंने खुद को कभी भी एक पुरुष से कमतर नहीं समझा. अब परंपरा और वास्तविकता की तरफ वापस आएंगे तो पाएंगे कि हम सब पागल हैं, और शाम होते तक एक दूसरे का गला पकड़ने के लिए तैयार रहते हैं (ये दूसरी बात है) और हर किसी के लड़ने और बिफरने का अपना-अपना तरीका होता है. लेकिन फिर भी, चांद निकलते ही परिवार के साब लोग रात के खाने पर एकसाथ होते हैं. बच्चे अपनी दूरबीन से चांद पर नजर रखते हैं. Eat, love, pray या फिर love, pray, eat. ये अच्छा है. क्योंकि #RealMenFast! उम्मीद है कि जब कैबिनेट मंत्री कैमरे के सामने अपना पारंपरिक नृत्य करेंगी, बदलाव जरूर आएगा. 'महिलाओं के लिए समान अधिकार' और 'हम बदल रहे हैं फिरभी अपनी परंपराओं से जुड़े हैं' ये कहने का इससे अच्छा तरीका भला और क्या हो सकता है? इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये भी पढ़ेंRead more! संबंधित ख़बरें |