'अंधेरा होने से पहले घर आ जाना'...एक जमाने से इसी हिदायत के साथ लड़कियां घरों से बाहर निकल रही हैं. उनके लिए ये नियम इसलिए बनाया गया क्योंकि कहा जाता है कि अंधेरा होने के बाद लड़कियां सुरक्षित नहीं होतीं. लड़कियां चाहे गांव में रहती हों या फिर शहर में, नौकरी पेशा हों या फिर घरेलू, आज अंधेरा हर किसी के लिए डरावना है.
बड़े शहरों में रहने वाली नौकरीपेशा लड़कियां अक्सर ऑफिस से निकलते-निकलते लेट हो जाती हैं. वो ऑटो या बस से जाने के बजाये टैक्सी लेना पसंद करती हैं. क्योंकि बस और ऑटो की अपेक्षा टैक्सी महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित साधन होता है. हालांकि पिछले दिनों टैक्सी भी ‘कुख्यात’ हो गई. टैक्सी ड्राइवर पर भी भरोसा नहीं रहा. कुछ इस तरह-
तो क्या करें, सबसे आसान है सरकार को दोष दे दें? सरकार महिलाओं पर हो रहे अपराध रोकने के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं करती. दरअसल, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार कुछ करेगी भी नहीं. तो क्या ये समझ लिया जाए कि लड़कियों का कुछ नहीं हो सकता. सदियों से डर में जीती आई लड़कियां ऐसे ही जीती रहेंगी?
नहीं, इस समस्या का एक हल अब भी है.
देश में लड़कों के अनुपात में लड़कियां कम हैं. भारत में हर 1000 लड़के पर लड़कियों की संख्या सिर्फ 914 है. यानी समस्या सिर्फ उनके घर से बाहर निकलने की नहीं, गर्भ से बाहर निकलने की भी है. वहां भी रोक दिया जाता है. एक तो आबादी में कम. फिर सड़कों पर और कम. कल्पना कीजिए, रात को 1 बजे तक लड़कों को सड़कों पर रहने की छूट है और वही छूट लड़कियों के पास होती तो बस्ती का नजारा क्या होता. जिस अकेली लड़की को पाकर मनचलों का मन बढ़ता है, क्या वैसा हो पाता?
दिल्ली की अपेक्षा मुंबई ज्यादा सुरक्षित है. कहा जाता है कि मुंबई में अंधेरा कभी लड़कियों को नहीं डराता. उसका कारण भी यही है. ज्यादा दिखेंगी तो ज्यादा सुरक्षित रहेंगी. दिल्ली में इक्का दुक्का दिखती हैं तो वो किसी भी गलत मंसूबे की आसान सी शिकार...
'अंधेरा होने से पहले घर आ जाना'...एक जमाने से इसी हिदायत के साथ लड़कियां घरों से बाहर निकल रही हैं. उनके लिए ये नियम इसलिए बनाया गया क्योंकि कहा जाता है कि अंधेरा होने के बाद लड़कियां सुरक्षित नहीं होतीं. लड़कियां चाहे गांव में रहती हों या फिर शहर में, नौकरी पेशा हों या फिर घरेलू, आज अंधेरा हर किसी के लिए डरावना है.
बड़े शहरों में रहने वाली नौकरीपेशा लड़कियां अक्सर ऑफिस से निकलते-निकलते लेट हो जाती हैं. वो ऑटो या बस से जाने के बजाये टैक्सी लेना पसंद करती हैं. क्योंकि बस और ऑटो की अपेक्षा टैक्सी महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित साधन होता है. हालांकि पिछले दिनों टैक्सी भी ‘कुख्यात’ हो गई. टैक्सी ड्राइवर पर भी भरोसा नहीं रहा. कुछ इस तरह-
तो क्या करें, सबसे आसान है सरकार को दोष दे दें? सरकार महिलाओं पर हो रहे अपराध रोकने के लिए कोई कारगर प्रयास नहीं करती. दरअसल, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार कुछ करेगी भी नहीं. तो क्या ये समझ लिया जाए कि लड़कियों का कुछ नहीं हो सकता. सदियों से डर में जीती आई लड़कियां ऐसे ही जीती रहेंगी?
नहीं, इस समस्या का एक हल अब भी है.
देश में लड़कों के अनुपात में लड़कियां कम हैं. भारत में हर 1000 लड़के पर लड़कियों की संख्या सिर्फ 914 है. यानी समस्या सिर्फ उनके घर से बाहर निकलने की नहीं, गर्भ से बाहर निकलने की भी है. वहां भी रोक दिया जाता है. एक तो आबादी में कम. फिर सड़कों पर और कम. कल्पना कीजिए, रात को 1 बजे तक लड़कों को सड़कों पर रहने की छूट है और वही छूट लड़कियों के पास होती तो बस्ती का नजारा क्या होता. जिस अकेली लड़की को पाकर मनचलों का मन बढ़ता है, क्या वैसा हो पाता?
दिल्ली की अपेक्षा मुंबई ज्यादा सुरक्षित है. कहा जाता है कि मुंबई में अंधेरा कभी लड़कियों को नहीं डराता. उसका कारण भी यही है. ज्यादा दिखेंगी तो ज्यादा सुरक्षित रहेंगी. दिल्ली में इक्का दुक्का दिखती हैं तो वो किसी भी गलत मंसूबे की आसान सी शिकार बन जाती हैं.
जबकि लड़कियों को सुरक्षित रखने के लिए इससे आसान तरीका कोई नहीं है. लड़कों से मोह भंग करें और लड़कियों को दुनिया में आने दें. क्योंकि लड़कियां ज्यादा होंगी, तो ज्यादा दिखेंगी, और ज्यादा सुरक्षित रहेंगी. इसी सोच के साथ breakthrough नाम की संस्था 'मिशन हजार' नाम से एक अभियान चला रही है. देखिए ये वीडियो जो इस बात को सच साबित करते हैं.
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लड़कियों की सुरक्षा का रामबाण इलाज
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.