ये घटनायें देशव्यापी निन्दा का कारण नहीं बनतीं. इन घटनाओं पर बहुधा सम्पादकीय केन्द्रित नहीं होते, प्राईमटाईम के स्क्रीन काले नहीं होते, मोमबत्तियाँ जलायी नहीं जाती और सडकों पर आक्रोश प्रदर्शित नहीं होते. जब भी ऐसी घटनायें होती हैं एक शातिराना चुप्पी मानवाधिकार की दुकानों और मुर्दाबाद के अड्डों पर पायी जाती हैं. क्या फर्क पडता है कि कुछ जवानों को कायराना हमलों ने चीथडे चीथडे कर दिया? क्या फर्क पडता है कि कोई मासूम बच्ची प्रेशर बम का शिकार हो कर इस तरह मारी गयी, जिस तरह कोई जानवर भी बोटी बोटी काटा नहीं जाता. बच्चों, औरतों और सैनिकों के शव हैं जिनपर रोज साधी जाने वाली खामोशी ही वास्तव में हमारी अभिव्यक्ति का नंगा प्रदर्शन है. बस्तर में नकली आन्दोलनों और झूठी बहसों के बीच यह गलाघोंट कर दबायी जाने वाली सच्चाई है कि जब जब सिपाही मारे गये कोई नहीं बोला, सलवाजुडुम की समाप्ति के बाद जैसे जैसे इससे जुडे कार्यकर्ता और आदिवासी नृशंसता के साथ लगभग रोज ही मारे जाते रहे, कोई कुछ नहीं बोला.
इस हमले में सीआरपीएफ के 7 जवान शहीद हो गए |
एक घटना बीजापुर की है जहाँ दो जवान प्रेशर ब्लास्ट के कारण गंभीर रूप से घायल हो गये और उन्हें इलाज के लिये रायपुर ले जाया गया. दूसरी घटना है दंतेवाड़ा जिले के मैलावाड़ा के पास घात लगा कर नक्सलियों द्वारा किया गया हमला, जिसमें सीआरपीएफ के सात जवानों के शहीद होने की सूचना है. उत्तराखण्ड वाले घोडे की टूटी टाँग से भी बदतर नियति उन शवों की है जिन्हें नक्सली वारदात में मौत मिलती है क्योंकि बहसें तो केवल आत्मसमर्पणों पर होनी हैं, पुलिस द्वारा करवाये गये नक्सलियों के शादी समारोहों पर होनी है, कुछ कथित गाँधीवादियों की उन गढी हुई कहानियों पर होनी है, जिनकी आधारशिला में खास तरह की राजनीतियां अंतर्निहित हैं. नारेवादियों ने चीख चीख कर पूरी पीढी को यह पढाया है कि सैनिक तो बलात्कार करते हैं शायद इसीलिये जो इस तरह की मौतें हैं उसके लिये कतिपय शिक्षा...
ये घटनायें देशव्यापी निन्दा का कारण नहीं बनतीं. इन घटनाओं पर बहुधा सम्पादकीय केन्द्रित नहीं होते, प्राईमटाईम के स्क्रीन काले नहीं होते, मोमबत्तियाँ जलायी नहीं जाती और सडकों पर आक्रोश प्रदर्शित नहीं होते. जब भी ऐसी घटनायें होती हैं एक शातिराना चुप्पी मानवाधिकार की दुकानों और मुर्दाबाद के अड्डों पर पायी जाती हैं. क्या फर्क पडता है कि कुछ जवानों को कायराना हमलों ने चीथडे चीथडे कर दिया? क्या फर्क पडता है कि कोई मासूम बच्ची प्रेशर बम का शिकार हो कर इस तरह मारी गयी, जिस तरह कोई जानवर भी बोटी बोटी काटा नहीं जाता. बच्चों, औरतों और सैनिकों के शव हैं जिनपर रोज साधी जाने वाली खामोशी ही वास्तव में हमारी अभिव्यक्ति का नंगा प्रदर्शन है. बस्तर में नकली आन्दोलनों और झूठी बहसों के बीच यह गलाघोंट कर दबायी जाने वाली सच्चाई है कि जब जब सिपाही मारे गये कोई नहीं बोला, सलवाजुडुम की समाप्ति के बाद जैसे जैसे इससे जुडे कार्यकर्ता और आदिवासी नृशंसता के साथ लगभग रोज ही मारे जाते रहे, कोई कुछ नहीं बोला.
इस हमले में सीआरपीएफ के 7 जवान शहीद हो गए |
एक घटना बीजापुर की है जहाँ दो जवान प्रेशर ब्लास्ट के कारण गंभीर रूप से घायल हो गये और उन्हें इलाज के लिये रायपुर ले जाया गया. दूसरी घटना है दंतेवाड़ा जिले के मैलावाड़ा के पास घात लगा कर नक्सलियों द्वारा किया गया हमला, जिसमें सीआरपीएफ के सात जवानों के शहीद होने की सूचना है. उत्तराखण्ड वाले घोडे की टूटी टाँग से भी बदतर नियति उन शवों की है जिन्हें नक्सली वारदात में मौत मिलती है क्योंकि बहसें तो केवल आत्मसमर्पणों पर होनी हैं, पुलिस द्वारा करवाये गये नक्सलियों के शादी समारोहों पर होनी है, कुछ कथित गाँधीवादियों की उन गढी हुई कहानियों पर होनी है, जिनकी आधारशिला में खास तरह की राजनीतियां अंतर्निहित हैं. नारेवादियों ने चीख चीख कर पूरी पीढी को यह पढाया है कि सैनिक तो बलात्कार करते हैं शायद इसीलिये जो इस तरह की मौतें हैं उसके लिये कतिपय शिक्षा संस्थानों में टकराये जाते जाम जायज हैं. ऐसी घटनाओं के लिये कोई लप्रेक का ड्रेरित नहीं रचे जाते बल्कि खामोशी गढी जाती है.
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अभी कुछ दिनों पहले जब नक्सली हमले के बाद एक मासूम लड़की के क्षत-विक्षत शव की न देखे जा सकने योग्य तस्वीर सामने आयी थी तब यह प्रश्न मुझे कचोट रहा था कि यह रोहित वेमुला क्यों न बन सकी? क्यों इसके लिये कथित रूप से देश की सबसे अधिक राजनैतिक रूप से जागृत मानी जाने वाली युनिवर्सिटियों में दो मिनट मौन की गुंजाईश भी न बनी? क्यों जंतरमंतर पर इस बच्ची के जीवनाधिकार के लिये कोई मोमबत्ती भी न जल सकी? क्या इस लिये कि वह बालिका आदिवासी थी अथवा इसलिये कि उसकी हत्या नक्सलियों ने की थी? यह रेखांकित करने वाला तथ्य है कि देश के एक विशेष बौद्धिजीविक जमात के लिये ये लाल-आतंकवादी वस्तुत: क्रांतिकारी हैं. इनकी क्रूरतम वारदातों को भी सामान्यतम बना कर किसी सूचना की तरह रोजमर्रा की बात बना दिया जाता है.
इन नक्सली हमलों में पिछले 11 वर्षों में 1800 से ज्यादा जवान शहीद हो चुके हैं |
व्यवस्था की पुरजोर आलोचना होनी चाहिये, यह आवश्यक है. हमें यह प्रश्न पूरी मुखरता के साथ सामने लाना चाहिये कि अब और कितनी लम्बी चलेगी लड़ाई और क्यों अब तक नक्सलवाद को नेस्तनाबूद नहीं किया जा सका है. हमारे पास ये सवाल निश्चित रूप से होने चाहिये कि बस्तर के पिछडेपन के लिये कौन जिम्मेदार है और वहाँ की सामाजिक-आर्थिक असमानता के लिये दायित्व किसका है? हमारे पास यह सवाल भी होना चाहिये कि आंचलिक पत्रकारिता दबावों में काम करने के लिये क्यों बाध्य है और अनावश्यक गिरफ्तारियां क्यों हो रही हैं, साथ ही साथ हमारा दृष्टिकोण केवल एकतरफा भी नहीं होना चाहिये.
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हमारे पास केवल विरोध करने के लिये विरोध वाली राजनीतियों के लिये भी सवाल होने चाहिये कि लाल-आतंकवाद की घटनाओं के ऐन समय वह कैसा मोतियाबिन्द है जो आपकी आंखों में छा जाता है? यह बस्तर है जहाँ वे लोग जो जख्म कुरेदने की नीयत रखते हैं, वे मरहम के मुखौटे लगा कर घूम रहे हैं. नकली कहानियां जुबां जुबां पर हैं और हकीकतें प्रेशरबम के धमाकों में खामोशी के चित्र बना रही हैं. हम इन घटनाओं को बुलंद आवाज नहीं दे पाते यही कारण है कि जंगल के भीतर से हो रही वारदातों के विरुद्ध जनमत भी तैयार नहीं हो पाता. सच है कि हमारी बेशर्म खामोशी ही नक्सलियों की ताकत है, आइये शहीद जवानों के लिये दो मिनट का मौन रखने की औपचारिकता ही निभा लें अब?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.