वर्तमान में महिलाओं ने अपनी नई छवि का निर्माण किया है. अब वह चूल्हा-चौका तक सीमित न होकर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गई है. अब वह सिसक-सिसक कर रोने वाली नहीं रही. उसने अपनी शक्ति को पहचान लिया है. इस संदर्भ में मुझे आज बचपन में पढ़ी कवि ऋतुराज की रचनाओं में प्रमुख 'कन्यादान' की कुछ पंक्तियां याद आ गई, जो अब भी मेरे जहन में जिंदा है.
'मैं एक जगी हुई स्त्री हूं
मैंने अपनी राह देख ली है
अब मैं लौटूंगी नहीं
मैंने ज्ञान के बंद दरवाजे खोल दिए हैं
सोने के गहने तोड़कर फेंक दिए हैं
भाइयों! मैं अब वह नहीं हूं, जो पहले थी
मैं एक जगी हुई स्त्री हूं
मैंने अपनी राह देख ली है.
अब मैं लौटूंगी नहीं.' महिलाएं आज न केवल अपने परिवार को संभाल रही हैं, बल्कि साथ ही साथ उन्हें आर्थिक रूप से भी मजबूत कर रही हैं. लेकिन उनके मजबूत हौंसलों को कहीं न कहीं समाज के कुछ अपवाद बुलंद नहीं होने दे रहे हैं. महिलाओं को स्वतंत्रता तो मिल गई किंतु आज भी उसे वह सुरक्षा मुहैया नहीं कराई जा सकी, जिसकी वह हकदार है. महिलाएं न केवल सृष्टि का विस्तार करती हैं बल्कि समाज को आईना भी दिखाती हैं. सीमा पर देश की रक्षा के लिए तैनात बहादुर जवानों को अपने खून से सींचती हैं. ताकि कोई भी हमारे देश का बाल भी बांका न कर सकें.
इन सबके बावजूद इतनी सहनशील और त्याग की प्रतिमा को हमारा समाज सृष्टि में नहीं आने देता और गर्भ में ही उसकी हत्या कर महापाप का भागी बन जाता है. लड़के की चाह में इस जघन्य कृत्य को अंजाम देने वालों को कौन समझाए कि जब बेटी ही नहीं रहेगी, तो बेटा कहां से पाओगे. भ्रूण हत्या, बलात्कार और दहेज उत्पीड़न हमारे समाज का वह कटु सच है, जो हमेशा हमें शर्मिंदा करता है.
कुछ दरिंदे मासूमों को भी अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं. उन्हें उनके निश्चल भाव...
वर्तमान में महिलाओं ने अपनी नई छवि का निर्माण किया है. अब वह चूल्हा-चौका तक सीमित न होकर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गई है. अब वह सिसक-सिसक कर रोने वाली नहीं रही. उसने अपनी शक्ति को पहचान लिया है. इस संदर्भ में मुझे आज बचपन में पढ़ी कवि ऋतुराज की रचनाओं में प्रमुख 'कन्यादान' की कुछ पंक्तियां याद आ गई, जो अब भी मेरे जहन में जिंदा है.
'मैं एक जगी हुई स्त्री हूं
मैंने अपनी राह देख ली है
अब मैं लौटूंगी नहीं
मैंने ज्ञान के बंद दरवाजे खोल दिए हैं
सोने के गहने तोड़कर फेंक दिए हैं
भाइयों! मैं अब वह नहीं हूं, जो पहले थी
मैं एक जगी हुई स्त्री हूं
मैंने अपनी राह देख ली है.
अब मैं लौटूंगी नहीं.' महिलाएं आज न केवल अपने परिवार को संभाल रही हैं, बल्कि साथ ही साथ उन्हें आर्थिक रूप से भी मजबूत कर रही हैं. लेकिन उनके मजबूत हौंसलों को कहीं न कहीं समाज के कुछ अपवाद बुलंद नहीं होने दे रहे हैं. महिलाओं को स्वतंत्रता तो मिल गई किंतु आज भी उसे वह सुरक्षा मुहैया नहीं कराई जा सकी, जिसकी वह हकदार है. महिलाएं न केवल सृष्टि का विस्तार करती हैं बल्कि समाज को आईना भी दिखाती हैं. सीमा पर देश की रक्षा के लिए तैनात बहादुर जवानों को अपने खून से सींचती हैं. ताकि कोई भी हमारे देश का बाल भी बांका न कर सकें.
इन सबके बावजूद इतनी सहनशील और त्याग की प्रतिमा को हमारा समाज सृष्टि में नहीं आने देता और गर्भ में ही उसकी हत्या कर महापाप का भागी बन जाता है. लड़के की चाह में इस जघन्य कृत्य को अंजाम देने वालों को कौन समझाए कि जब बेटी ही नहीं रहेगी, तो बेटा कहां से पाओगे. भ्रूण हत्या, बलात्कार और दहेज उत्पीड़न हमारे समाज का वह कटु सच है, जो हमेशा हमें शर्मिंदा करता है.
कुछ दरिंदे मासूमों को भी अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं. उन्हें उनके निश्चल भाव को देखकर तनिक भी संवेदना नहीं प्रकट होती. क्या महिलाएं केवल उपभोग की वस्तु मात्र हैं? नहीं. वह आज राजनीति, फिल्म, फैशन, खेल जगत, मीडिया, यूनिवर्सिटी में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं. वह चांद पर पहुंच गई हैं. विदेशों में जाकर अपने देश का नाम रोशन कर रही हैं. फिर चाहे वह प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, सुषमा स्वराज, सायना नेहवाल या फिर सानिया मिर्जा हो.
आज वह फिल्मों में स्वयं हीरो है. महिला प्रधान फिल्मों वह अपनी दमदार भूमिका के लिए राष्ट्रीय सम्मान से भी सम्मानित होती हैं. हाल ही में आई 'नीरजा' फिल्म भी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. आज जिस तरह से वह एक के बाद एक उपलब्धि हासिल कर रही हैं, ये देश के लिए गर्व की बात है. हम 21वीं सदी में हैं, मंगल तक पहुंच गए हैं. विदेशों में अपना दबदबा कायम कर चुके हैं, लेकिन इन सबके बावजूद हम अपने समाज की सोच नहीं बदल पाए हैं. जी हां, महिलाओं को लेकर कहीं न कहीं आज भी लोगों का वही नजरिया है जो सदियों पहले था.
लड़कियों को बड़े-बड़े सपने दिखाकर उनकी अस्मत को लूटना, दहेज के लिए उन्हें प्रताड़ित करना, मंदिरों में प्रवेश करने से रोकना, उन्हें केवल बच्चे पैदा करने की मशीन समझना और प्यार में असफल होने पर उन पर तेजाबी हमले करना. यह सब एक पिछड़ी सोच है महिलाओं के प्रति, जो बहुत ही वाहियात है. फिल्मों में महिलाओं से अंग प्रदर्शन करवाना और उनको लेकर इतनी अश्लीलता परोसना यह भी कहीं न कहीं अनुचित लगता है. आज कुछ पुरुष महिलाओं के फीगर और उनके दमकते चेहरे को ही सुंदरता का पैमाना समझते हैं. क्या एक महिला की सुंदरता यही तक सीमित है? क्या रंग-रूप से किसी महिला की सुदंरता का आंकलन करना सही होगा? क्या समाज को अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लाना चाहिए? क्या वह समाज का अंग नहीं है, उसे समाज में अपनी मर्जी से जीने का अधिकार नहीं है? क्या वह देर रात घर से बाहर नहीं निकल सकती...जैसे पुरुष धड़ल्ले से निकलते हैं? क्या बलात्कार के बाद भी उन्हें ही प्रताड़ित किया जाना चाहिए? क्या उसे देर रात पार्टी में जाने का अधिकार नहीं है? क्या इससे उसे करैक्टर लैस की संज्ञा दी जाएगी? क्या उसे खुद के निर्णय लेने की आजादी भी नहीं है.
ये क्या बात हुई कि पिता के घर में उसके निर्णय मायके वाले लेगें और ससुराल में उसके ससुराल वाले? क्या बेटी होने पर उसे परेशान किया जाना सही है, नहीं क्योंकि यह सब उसके हाथ में नहीं. वह दो परिवारों को आगे ले जाने की सीढ़ी है. उसके प्रति घरों में अच्छे संस्कार दिए जाने चाहिए. बच्चों को बचपन से ही बेटियों की रक्षा और उनके प्रति अच्छी सोच रखना सिखाना होगा. मां-बाप को भी बेटी की शादी में अच्छा खर्च कर अपना स्टेटस दिखाने से बचना होगा. उसकी जगह उन्हें पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाना होगा जिससे कि वह खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सके.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.