कैराना की पहली तस्वीरें और पहली रिपोर्ट लिखी है, उसे कम से कम हेर-फेर के साथ पेश कर रहा हूं. तस्वीरें शायद आंखों में उभर जाय. पढ़ लीजिए, सबकुछ वहां का देखा सुना. कोई लाग लपेट नहीं.
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इस कस्बे से कस्बाई रंग रफूचक्कर है. दरवाजों पर कुंडियां कस दी गई हैं जिन पर ताले लटक रहे हैं. उनसे लगती दीवारों पर सन्नाटा रेंगता है. दालानों पर चुप्पी दुबक कर बैठी है और छतों पर सूनापन बिछ गया है. कैराना कस्बा धीरे-धीरे यहां रहने वालों से खाली हो रहा है. प्रदीप मित्तल जो पिछले बारह साल से दो सिनेमा हॉल के मालिक हैं, अब जिन्दगी का त्रासद सिनेमा देख रहे हैं. सात सौ सीटों वाला उनका सिनेमा हॉल खाली है, बाहर पोस्टर टंगा है, हाउसफुल.
मित्तल साहब कहते हैं कि कैराना में सिनेमा देखने का अपना सलीका है जिसमें जबरन हॉल में घुसना, टिकट काटने वाले से मारपीट करना, कभी भी सिनेमा छोड़कर और अपने पैसे लेकर चल देना शामिल है. उनके सिनेमा हॉल की कुर्सियों पर कभी गद्दे हुआ करते थे लेकिन कैराना के सलीकेदार दर्शक सारे गद्दे अपने घर ले गए. लोग डर-डर कर बोल रहे हैं कि जब से उत्तरप्रदेश में समाजवादी सरकार आई है तब से कानून व्यवस्था की दुलहन कैराना से ससुराल चली गई है.
कैराना में खाली पड़ा एक घर (साभार-ट्विटर) |
सरकारी वरदहस्त में समाजवादी गुंडे पल रहे हैं. पुलिस में शिकायत करने पर सड़क पर धुनाई, गाली गलौज शर्तिया है. जान गंवा देने की आशंका भी बनी रहती है. ऊपर से पुलिस वाले कहते हैं कि बड़े थाने में शिकायत करो, बड़े थाने में वर्दी वाला नहीं बाहुबली बैठते हैं. ऐसा भी नहीं है कि कैराना से जाने वालों में सिर्फ कारोबारी शामिल हैं. घर तो उऩ्होंने भी छोड़ा...
कैराना की पहली तस्वीरें और पहली रिपोर्ट लिखी है, उसे कम से कम हेर-फेर के साथ पेश कर रहा हूं. तस्वीरें शायद आंखों में उभर जाय. पढ़ लीजिए, सबकुछ वहां का देखा सुना. कोई लाग लपेट नहीं.
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इस कस्बे से कस्बाई रंग रफूचक्कर है. दरवाजों पर कुंडियां कस दी गई हैं जिन पर ताले लटक रहे हैं. उनसे लगती दीवारों पर सन्नाटा रेंगता है. दालानों पर चुप्पी दुबक कर बैठी है और छतों पर सूनापन बिछ गया है. कैराना कस्बा धीरे-धीरे यहां रहने वालों से खाली हो रहा है. प्रदीप मित्तल जो पिछले बारह साल से दो सिनेमा हॉल के मालिक हैं, अब जिन्दगी का त्रासद सिनेमा देख रहे हैं. सात सौ सीटों वाला उनका सिनेमा हॉल खाली है, बाहर पोस्टर टंगा है, हाउसफुल.
मित्तल साहब कहते हैं कि कैराना में सिनेमा देखने का अपना सलीका है जिसमें जबरन हॉल में घुसना, टिकट काटने वाले से मारपीट करना, कभी भी सिनेमा छोड़कर और अपने पैसे लेकर चल देना शामिल है. उनके सिनेमा हॉल की कुर्सियों पर कभी गद्दे हुआ करते थे लेकिन कैराना के सलीकेदार दर्शक सारे गद्दे अपने घर ले गए. लोग डर-डर कर बोल रहे हैं कि जब से उत्तरप्रदेश में समाजवादी सरकार आई है तब से कानून व्यवस्था की दुलहन कैराना से ससुराल चली गई है.
कैराना में खाली पड़ा एक घर (साभार-ट्विटर) |
सरकारी वरदहस्त में समाजवादी गुंडे पल रहे हैं. पुलिस में शिकायत करने पर सड़क पर धुनाई, गाली गलौज शर्तिया है. जान गंवा देने की आशंका भी बनी रहती है. ऊपर से पुलिस वाले कहते हैं कि बड़े थाने में शिकायत करो, बड़े थाने में वर्दी वाला नहीं बाहुबली बैठते हैं. ऐसा भी नहीं है कि कैराना से जाने वालों में सिर्फ कारोबारी शामिल हैं. घर तो उऩ्होंने भी छोड़ा है, जो गरीब हैं. क्योंकि उनके सामने दौलत का नहीं इज्जत का सवाल उठ खड़ा हुआ था. नहाते-धोते आग से धधकती आंखें उन्हें घूरती रहती थीं. बहू बेटियों के लिए बनाए आशियाने को उनकी ही सलामती के लिए छोड़ना पड़ा.
कैराना से अब तक 346 हिन्दू परिवार भाग खड़े हुए हैं और जितने लोगों के खिलाफ शिकायतें दर्ज कराई गई हैं वो सब के सब मुसलमान हैं. लेकिन देखने वालों की बड़ी-बड़ी निगाहों को देखिए कि उन्हें कोई सांप्रदायिकता नहीं दिखती, सिर्फ गुंडागर्दी नजर आती है. आखिर में सोचता हूं कि ये कहानी कहां की है.
क्या ये पाकिस्तान के सिंध-बलूचिस्तान का किस्सा है. अफसोस ! ये तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक चलता फिरता कस्बा है, जहां 346 हिन्दू परिवारों ने अपना घर छोड़ा है. इत्तेफाक देखिए कि इसी कैराना में कभी महान गायक अब्दुल करीम खान पैदा हुए थे, जिनकी ठुमरी सुन कर ग्यारह साल के भीमसेन जोशी कर्नाटक में अपने घर से भाग गए थे. इसी कैराना के नाम पर शास्त्रीय संगीत का मशहूर किराना घराना बना और अब यहां रहने वालों के घर उजाड़े जा रहे हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.