सत्य नहीं होता सुपाच्य, किंतु यही वाच्य. भारत देश के मां-बाप महान हैं. बेटियों की शादी करते समय दहेज के विरोधी हो जाते हैं, लेकिन बेटों की शादी करते समय दहेज को उपहार और अपना अधिकार मानकर अधिकतम प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. मैंने ऐसे कई मां-बाप देखे हैं, जो बेटी की शादी के वक्त समाज-सुधार के प्रयासों में राजा राममोहन राय और दयानंद सरस्वती के भी कान काटते हैं, लेकिन बेटे की शादी के वक्त लड़की वालों का खून चूसने में जोंक की जात को भी मात दे देते हैं.
इतना ही नहीं, बेटी की विदाई के वक्त गले लगकर फूट-फूटकर ऐसे रोते हैं, जैसे कलेजा कटकर बाहर निकल आएगा, लेकिन जब तक बेटी को अपने घर में रखते हैं, उसे पिछली रोटी और बासी भात खिलाते हैं. और पढ़ाने-लिखाने में होने वाला खर्च तो साफ बचा लेना चाहते हैं. सोचते हैं कम से कम में काम चल जाए, जबकि नालायक से नालायक बेटे को भी पढ़ाने-लिखाने और नौकरी दिलाने में अपनी-अपनी हैसियत मुताबिक पांच-दस-बीस-पचास लाख की डोनेशन और घूस देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं.
बेटा अगर बीमार हो जाए, तो ज़्यादातर मां-बाप खेत-पथार बेचने को भी तैयार रहते हैं, लेकिन बेटी बीमार हो जाए, तो अभाव की आड़ में उचित इलाज कराने के दायित्व से भी बच निकलना चाहते हैं. कई तो यह भी सोचते हैं कि अपनी टोपी शीघ्रातिशीघ्र ससुराल वालों के सिर पर ट्रांसफर कर दो. वे तो इलाज करा ही देंगे, अपन क्यों लोड लें? मजे की बात यह है कि अपने घर में जो बेटी का इलाज तक नहीं कराते, वे ससुराल वालों द्वारा पूरा ख्याल रखे जाने की स्थिति में भी उसमें मीन-मेख निकालते रहते हैं और बेटी को भड़काते रहते हैं.
आज भी इस देश में जितनी दहेज हत्याएं नहीं हो रही हैं, उससे बीसियों, पचासों या सैकड़ों गुणा अधिक भ्रूण हत्याएं हो रही हैं. यानी मां-बाप जब पेट में ही बेटी की इरादतन नृशंस हत्या कर...
सत्य नहीं होता सुपाच्य, किंतु यही वाच्य. भारत देश के मां-बाप महान हैं. बेटियों की शादी करते समय दहेज के विरोधी हो जाते हैं, लेकिन बेटों की शादी करते समय दहेज को उपहार और अपना अधिकार मानकर अधिकतम प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. मैंने ऐसे कई मां-बाप देखे हैं, जो बेटी की शादी के वक्त समाज-सुधार के प्रयासों में राजा राममोहन राय और दयानंद सरस्वती के भी कान काटते हैं, लेकिन बेटे की शादी के वक्त लड़की वालों का खून चूसने में जोंक की जात को भी मात दे देते हैं.
इतना ही नहीं, बेटी की विदाई के वक्त गले लगकर फूट-फूटकर ऐसे रोते हैं, जैसे कलेजा कटकर बाहर निकल आएगा, लेकिन जब तक बेटी को अपने घर में रखते हैं, उसे पिछली रोटी और बासी भात खिलाते हैं. और पढ़ाने-लिखाने में होने वाला खर्च तो साफ बचा लेना चाहते हैं. सोचते हैं कम से कम में काम चल जाए, जबकि नालायक से नालायक बेटे को भी पढ़ाने-लिखाने और नौकरी दिलाने में अपनी-अपनी हैसियत मुताबिक पांच-दस-बीस-पचास लाख की डोनेशन और घूस देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं.
बेटा अगर बीमार हो जाए, तो ज़्यादातर मां-बाप खेत-पथार बेचने को भी तैयार रहते हैं, लेकिन बेटी बीमार हो जाए, तो अभाव की आड़ में उचित इलाज कराने के दायित्व से भी बच निकलना चाहते हैं. कई तो यह भी सोचते हैं कि अपनी टोपी शीघ्रातिशीघ्र ससुराल वालों के सिर पर ट्रांसफर कर दो. वे तो इलाज करा ही देंगे, अपन क्यों लोड लें? मजे की बात यह है कि अपने घर में जो बेटी का इलाज तक नहीं कराते, वे ससुराल वालों द्वारा पूरा ख्याल रखे जाने की स्थिति में भी उसमें मीन-मेख निकालते रहते हैं और बेटी को भड़काते रहते हैं.
आज भी इस देश में जितनी दहेज हत्याएं नहीं हो रही हैं, उससे बीसियों, पचासों या सैकड़ों गुणा अधिक भ्रूण हत्याएं हो रही हैं. यानी मां-बाप जब पेट में ही बेटी की इरादतन नृशंस हत्या कर दें, तो इसे वे कोई गुनाह नहीं मानते, लेकिन ससुराल में अगर दुर्घटनावश भी बेटी की मौत हो जाए, तो उसके पति और सास-ससुर से लेकर पूरे परिवार पर दहेज-हत्या का मुकदमा ठोंकने से पीछे नहीं हटते. मैं पूरी जिम्मेदारी से कह सकता हूं कि अगर हमारे बीच सौ मां-बाप हत्यारे होंगे, तो उनकी तुलना में कोई एक ही सास-ससुर हत्यारा निकलेगा. फिर भी मां-बाप ममता की मूरत और सास-ससुर कसाई!
मैंने कई ऐसे मां-बाप देखे हैं, जो एक बेटे के इंतजार में पांच-छह बेटियां पैदा कर लेते हैं. लेकिन उनके जीवन और परिवार में पहले आई उन बेटियों का, कायदे से जिनका उनकी धन-संपत्ति पर पहला हक होना चाहिए, उन्हें कुछ भी नहीं मिलता और छठे-सातवें नंबर पर आए हुए उस बेटे, जो अगर इस देश में नसबंदी लागू हो गई होती, तो दुनिया में कदम भी नहीं रख पाता, उसके लिए सब कुछ बचाकर रख लिया जाता है. ऐसे छह-सात बेटे-बेटियों वाले तमाम मां-बापों को मैंने देखा है कि वे अपनी बेटियों की शादी जैसे-तैसे करके अपना पिंड छुड़ा लेते हैं और छठे-सातवें नंबर वाले उस बेटे से गालियां सुनकर भी उसे अपने सीने से सटाए रखते हैं.
आजकल टेक्नोलॉजी ने तो मामला और बिगाड़ दिया है. अपने परिवार में बेटियों को दोयम दर्जे का सदस्य मानने वाले ऐसे मां-बाप ससुराल जाने पर अपनी बेटियों के साथ दिन-दिन भर मोबाइल फोन पर लगे रहते हैं. सामने रहने पर उन्हें कराहती देखना भी जिन मां-बापों के धैर्य को नहीं डिगा पाता था, वे ससुराल में बैठी हुई बेटियों की धीमी या मद्धिम आवाज़ तक से पता लगा लेते हैं कि बेटी कष्ट में है. बेटी का ख्याल रखना बहुत अच्छी बात है, लेकिन बेटी के रोजमर्रा के जीवन में घुस जाना उनका परिवार तोड़ने में बड़ी भूमिका अदा कर रहा है. खासकर, तब जब दोनों तरफ से पल-पल की रिपोर्टिंग होती हो और इस रिपोर्टिंग में उतने नमक-मिर्च का इस्तेमाल होता हो, जितने का सब्जियों में भी नहीं होता.
एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह भी है कि आज भी अगर कोई अपराधी बेटी के साथ दुष्कर्म को अंजाम दे दे, तो मां-बाप इसे छिपाने में जुट जाते हैं, जो कि प्रकारांतर से अपराधी को बचाने जैसा ही है, लेकिन उसके ससुराल जाने पर पति, जो कि एनीटाइम किसी बलात्कारी से बेहतर होता है, उसे एडजस्टमेंट की छोटी-मोटी दिक्कतों के चलते भी झूठे-सच्चे मुकदमों में फंसाकर जेल भिजवाने में उनके अहंकार को संतुष्टि मिलती है. यानी उस बड़े अपराधी को तो अक्सर वे बख्श देते हैं, जिन्हें हर हालत में सबक सिखाया जाना चाहिए, लेकिन जो अक्सर निरपराध होता है, आपका अपना होता है, जिसके साथ एडजस्ट करना उनकी बेटी की भी बराबर की ज़िम्मेदारी होती है, उसे वे फंसा देते हैं.
यानी, कानूनों का जितना दुरुपयोग आजकल बेटियों के मां-बाप कर रहे हैं, उतना ज्यादा दुरुपयोग तो शातिर अपराधी भी नहीं करते. यह एक सच्चाई है कि दहेज-विरोधी कानूनों का जितना दुरुपयोग हुआ है, उतना तो टाडा और पोटा जैसे कानूनों का भी नहीं हुआ. विडंबना देखिए कि वही मां-बाप जो दहेज-विरोधी कानूनों का जमकर दुरुपयोग कर रहे हैं, जब बात बेटियों को बेटों के बराबर संपत्ति में हक दिलाने वाले कानून की आती है, तो उसपर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं. यानी जो कानून आपके लिए सुविधाजनक है, वह अच्छा है. और जो दुविधाजनक है, वह इतना बुरा है कि उसपर चर्चा और विचार करने को भी तैयार नहीं.
आपको सौ में मुश्किल से एकाध मां-बाप ही ऐसे मिलेंगे, जो अपनी बेटियों को बेटों के बराबर संपत्ति में हक देने के लिए तैयार हों. आज भी अगर कोई बेटी कानून के तहत पिता की संपत्ति में बराबरी का हक मांग ले, तो उसे वे ज़लील घोषित करके उसका मुंह देखना तक बंद कर देंगे. विदाई के समय निकालकर रख दिया हुआ कलेजा वापस अपने सीने में घुसा लेंगे. ऐसे दोगले समय में, मैं अमिताभ बच्चन की तारीफ करता हूं, जिन्होंने अपनी बेटी को बेटे के बराबर अपनी संपत्ति में हक देने का एलान किया है. उनका यह फैसला साहसिक और समाज को बदलने वाला है. जरूरत है कि उनकी तरह समाज में आइकॉन माने जाने वाले और भी लोग इस तरह के कदम उठाएं और उसे प्रचारित करें.
आज अधिकांश बेटियों का मनोबल इसीलिए दबा होता है, क्योंकि आर्थिक रूप से वे आत्मनिर्भर नहीं होतीं, उनके नाम कोई संपत्ति नहीं होती, मायके में वे मां-बाप-भाई पर, तो ससुराल में वे सास-ससुर-पति पर पूरी तरह से निर्भर हो जाती हैं. उनकी इसी स्थिति का दुरुपयोग कर अक्सर उनपर मायके और ससुराल दोनों जगहों पर अलग-अलग तरह के अत्याचार किये जाते हैं. इसलिए, अगर बेटियों को भी बेटों के बराबर संपत्ति मिलने लगे, तो वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सबल बन सकेंगी, फिर कोई उन्हें दबा नहीं सकेगा. इसलिए लड़कियों को अगर तरह-तरह के अत्याचारों और गैर-बराबरी के भंवरजाल से निकालना है, तो उन्हें संपत्ति में हक देना सबसे कारगर उपायों में से एक है.
आखिर में, यह डिस्क्लेमर देना जरूरी है कि इस लेख में जिस दोहरे रवैये की चर्चा की गई है, उससे अधिकांश मां-बाप ग्रस्त हैं, फिर भी मैं इसे जनरलाइज़ नहीं कर रहा. कई मां-बाप अपवाद भी हो सकते हैं. खासकर, समाज में जिस तेजी से बदलाव आ रहा है, उसमें यह मानना चाहिए कि बेटियों के प्रति मां-बाप का जमीर जरूर जाग रहा होगा. इसलिए, जो मां-बाप पहले से सुधरे हुए हैं, वे बेटियों के प्रति भेदभाव मिटाने के लिए इस लेख में कही बातों का प्रचार करें, और जो मां-बाप अभी भी बिगड़े हुए हैं, वे इस लेख का बुरा न मानें, अपनी अंतरात्मा में झांकें और अपनी सोच में सुधार लाने की कोशिश करें, वरना इसे पढ़ने के बाद अपनी बेटियों से आंखें मिलाने में उन्हें दिक्कत हो सकती है.
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