कल आदतन मैंने न्यूज फीड देखने के लिए अपना फेसबुक खोला, वहां दो शब्द काफी दिखाई दिए 'पिंजरा तोड़'. ये शब्द सोशल मीडिया पर और दिल्ली की कई यूनिवर्सिटीज में आंधी की तरह उठा है. दिल्ली की कुछ नामी यूनिवर्सिटीज की छात्राओं ने महिला हॉस्टल्स के कड़े नियमों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए इस नाम से ऑनलाइन अभियान चलाया है. दिल्ली में चल रहा ये अभियान दिल्ली की कई यूनिवर्सिटीज द्वारा लिंग भेद किए जाने को लेकर सवाल करता है और महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता वापस पाने का समर्थन करता है. स्वतंत्रता का मतलब यहां आने जाने को लेकर हमारे सामान्य भौतिक अधिकारों से है.
मैं एक नारीवादी परिवार से हूं. मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक हूं जिसे अपनी नारीवादी नीतियों पर गर्व है. मैंने लंबे समय तक सुरक्षा के नाम पर बनाए गए इन नियमों पर ध्यान नहीं दिया था. एक लड़की होने के नाते, ताले में रखना और आने जाने पर पाबंदियां इतनी तेजी से सामान्य हो गईं कि इन पर कभी ध्यान ही नहीं गया. एनसीआर में ऐसे अनगिनत हॉस्टल और पीजी हैं जो वहां रहने वाली महिलाओं पर इतने अजीब तरह से निगरानी करते हैं जैसे किसी प्रयोगशाला में चूहों पर की जाती है. अपराधियों और दरिंदों को बाहरी दुनिया से दूर रखने के लिए हमारे पास जेल हैं. लेकिन हम युवा लड़कियों और उनके सपनों को पिंजरों में कैद करने के लिए हर रोज ऐसी ही जेल बना रहे हैं.
हम जानते हैं कि हमारे समाज में भेदभाव गहराई तक बसा हुआ है. लेकिन ये नियम मौजूदा अनौपचारिक मानदंडों को संस्थागत वैधता देते हैं. महिला कॉलेज जैसे लेडी श्रीराम कॉलेज और मिरांडा हाउस में, कुछ समय पहले वहां रहने वाली छात्राओं को कैंटीन में वहां काम करने वाले पुरुष कर्मचारियों की वजह से शॉर्ट्स पहनने की इजाजत नहीं थी. ये बहुत हैरान करने वाली बात है कि अग्रणी नारीवादी कॉलेज भी ये सोचते हैं कि महिलाओं को नियंत्रित करना ही एकमात्र हल है. और इससे भी बुरी बात ये है कि लॉ स्कूल समेत कई प्रोफेश्नल यूनिवर्सिटीज में लड़कियों को अपने डॉर्म और अपने कमरों में भी घुटनों से नीचे, सही से...
कल आदतन मैंने न्यूज फीड देखने के लिए अपना फेसबुक खोला, वहां दो शब्द काफी दिखाई दिए 'पिंजरा तोड़'. ये शब्द सोशल मीडिया पर और दिल्ली की कई यूनिवर्सिटीज में आंधी की तरह उठा है. दिल्ली की कुछ नामी यूनिवर्सिटीज की छात्राओं ने महिला हॉस्टल्स के कड़े नियमों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए इस नाम से ऑनलाइन अभियान चलाया है. दिल्ली में चल रहा ये अभियान दिल्ली की कई यूनिवर्सिटीज द्वारा लिंग भेद किए जाने को लेकर सवाल करता है और महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता वापस पाने का समर्थन करता है. स्वतंत्रता का मतलब यहां आने जाने को लेकर हमारे सामान्य भौतिक अधिकारों से है.
मैं एक नारीवादी परिवार से हूं. मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक हूं जिसे अपनी नारीवादी नीतियों पर गर्व है. मैंने लंबे समय तक सुरक्षा के नाम पर बनाए गए इन नियमों पर ध्यान नहीं दिया था. एक लड़की होने के नाते, ताले में रखना और आने जाने पर पाबंदियां इतनी तेजी से सामान्य हो गईं कि इन पर कभी ध्यान ही नहीं गया. एनसीआर में ऐसे अनगिनत हॉस्टल और पीजी हैं जो वहां रहने वाली महिलाओं पर इतने अजीब तरह से निगरानी करते हैं जैसे किसी प्रयोगशाला में चूहों पर की जाती है. अपराधियों और दरिंदों को बाहरी दुनिया से दूर रखने के लिए हमारे पास जेल हैं. लेकिन हम युवा लड़कियों और उनके सपनों को पिंजरों में कैद करने के लिए हर रोज ऐसी ही जेल बना रहे हैं.
हम जानते हैं कि हमारे समाज में भेदभाव गहराई तक बसा हुआ है. लेकिन ये नियम मौजूदा अनौपचारिक मानदंडों को संस्थागत वैधता देते हैं. महिला कॉलेज जैसे लेडी श्रीराम कॉलेज और मिरांडा हाउस में, कुछ समय पहले वहां रहने वाली छात्राओं को कैंटीन में वहां काम करने वाले पुरुष कर्मचारियों की वजह से शॉर्ट्स पहनने की इजाजत नहीं थी. ये बहुत हैरान करने वाली बात है कि अग्रणी नारीवादी कॉलेज भी ये सोचते हैं कि महिलाओं को नियंत्रित करना ही एकमात्र हल है. और इससे भी बुरी बात ये है कि लॉ स्कूल समेत कई प्रोफेश्नल यूनिवर्सिटीज में लड़कियों को अपने डॉर्म और अपने कमरों में भी घुटनों से नीचे, सही से कपड़े पहनने के लिए कहा जाता है. प्रोफेसर 'उचित ड्रेसिंग' को लेकर उनके अपने मानदंडों को मनमाने ढ़ंग से समझाते रहते हैं.
मेरे कॉलेज ने मुझे पुराने मानदंडों के बारे में सवाल करना सिखाया है. मैंने अधिकारों, समावेशन और बहस की अहमियत के बारे में सीखा है. लेकिन जब हमने इन विचारों पर थ्योरी में चर्चा की थी, तब उनके प्रेक्टिकल इस्तेमाल की अनदेखी की गई, हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों को शाम 7.30 बजे ही अपने डॉर्म्स में भगा दिया जाता है और ऊंची ऊची दीवारों के पीछे बंद कर दिया जाता है.
जाहिर है इससे हमारे समाज का चेहरा दिखता है, जो साफ तौर पर महिला शरीर से डरता है और इसलिए उसे पिंजरों में रखता है. मेरे पड़ोसी का दस वर्षीय बेटा रात के 9 बजे बाज़ार से सामान लाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन मेरी 21 वर्षीय वयस्क सहेली को 7.30 बजे के बाद बाहर जाने की इजाजत नहीं हैं.
महिला आवासों में 8 बजे तक कर्फ्यू जैसी स्थिति हो जाती है. इससे फर्क नहीं पड़ता कि वो 13 साल के लड़की का बोर्डिंग स्कूल है या फिर 30 साल की कामकाजी महिलाओं का हॉस्टल. सभी ने बाहरी दुनिया से दूर रखने के लिए पाबंदियां लगा रखी हैं.
समाज इस तरह के नियंत्रण को डर और फिक्र की दृष्टी से सही ठहराता है. लिंग भेद की तलवार हमारे सर पर हमेशा लटकती है. ये सच्चाई महिलाओं में डर पैदा करती है और उनके अधिकारों को नियंत्रित करती है. ये डर महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर जाकर खुद के लिए अनुकूल जगह बनाने से रोकता है. ये दुष्चक्र है और इसे तोड़ने की जरूरत है.
जब आप एक महिला को कुछ करने से रोकते हैं क्योंकि उसके लिए उसे रात को बाहर रुकना होगा, तो आप उसे सिखा रहे हैं कि बजाए खुद के लिए लड़ने के उसे हालातों से समझौता कर लेना चाहिए. न केवल आप उसके संवैधानिक अधिकारों को नजरअंदाज कर रहे हैं, बल्कि आप एक बराबरी और प्रगतिशील दुनिया के निर्माण की आशा की भी हत्या कर रहे हैं.
मैं इस बात को नकार नहीं रही कि भारत में सुरक्षा भी एक गंभीर चिंता का विषय है. अनगिनत महिलाओं को लिंग आधारित हिंसा की वजह से अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है या भारी नुक्सान उठाना पड़ता है. हांलाकि ये सोचना कि इन बेतुके नियमों को लगाने से महिलाएं सुरक्षित रहेंगी ये अनुचित और घुटन पैदा करने वाला है. ये उतना ही बेतुका है जैसे किसी से ये कहना कि कार मत चलाओ क्योंकि इससे सड़क दुर्घटना का खतरा है.
एक पुरुष रात के 12 बजे भी बाहर पेशाब करने जा सकता है, लेकिन एक महिला शाम को भी एक कॉफी पीने नहीं जा सकती क्योंकि उसके हॉस्टल वाले उसे 8 बजे के बाद अंदर घुसने नहीं देंगे. इस तरह के विचारों से सहमत संस्थाओं से सवाल करने की ज़रूरत है भले ही ये वो हैं जिनकी हम इज्जत करते हैं. बदलाव कभी-कभी तकलीफ देने वाली जगह से भी होते हैं.
हॉस्टल्स के बेतुके नियमों के खिलाफ 'पिंजड़ा तोड़' |
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.