मेरे दिमाग में दो सवाल उठते हैं. हमसे कहा जा रहा है कि शांतिपूर्ण ढंग से इस्लाम धर्मांतरण ठीक हैः उदाहरण के लिए, हिंदू युवती जिसने इमाम बुखारी के बेटे से शादी करने के लिए इस्लाम अपनाया-शांतिपूर्ण तरीके से. (इमाम बुखारी दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम हैं) तो पहला सवाल हैः क्या शांतिपूर्ण इस्लाम 21वीं सदी के स्वतंत्रता के विचारों के साथ तर्कसंगत है?
दूसरा सवाल हैः चूंकि कुरान और हदीस में बदलाव नहीं हो सकते, तो क्या भारतीय मुस्लिमों के बीच परिवर्तन लाने का कोई रास्ता है? दूसरे सवाल पर पहले चर्चा करते हैं. 2050 तक करीब 31.1 करोड़ आबादी के साथ भारत (दुनिया का) सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा. आधुनिक लोकतांत्रिक भारत को कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है.
1. शिक्षा के अधिकार अधिनियम (भारतीय संविधान के, जिसके तहत बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है) के तहत, 6-14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को अच्छे स्कूलों में होना चाहिए, न कि मदरसों में. एक अच्छे स्कूल का मतलब यह है कि: विद्यार्थियों को गणित और विज्ञान की वैसी ही शिक्षा मिलनी चाहिए जैसा कि मुख्यधारा के स्कूल के बच्चों को मिलती है. अगर कोई मदरसा इन शैक्षिक नियमों का पालन नहीं करता है तो उसे शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत असंवैधानिक घोषित करते हुए बैन कर देना चाहिए.'
2. मदरसे आजादी के लिए खतरा हैं, ये एक आजादी-विरोधी आंदोलन हैं, (और) 21वीं सदी के स्वतंत्रता के विचारों के अनुरूप नहीं हैं. सेक्युलर हिंदू नेता (पॉलिटिकली करेक्ट) और इस्लामिक स्कॉलर धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मदरसों का बचाव करते हैं. लेकिन भारतीय संविधान में धार्मिक अधिकार सभी मौलिक अधिकारों में सबसे निम्नतर और कमजोर अधिकार है. धार्मिक अधिकार के अनुच्छेद 25 में दो उपखंड हैं जो इस अधिकार को निम्नतर बनाते हैं:
'25 (1)- लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विषय में और इस भाग के अन्य उपबंधों के लिए (मौलिक अधिकारों से युक्त संविधान).
'25 (2)- इस अनुच्छेद की कोई भी बात...
मेरे दिमाग में दो सवाल उठते हैं. हमसे कहा जा रहा है कि शांतिपूर्ण ढंग से इस्लाम धर्मांतरण ठीक हैः उदाहरण के लिए, हिंदू युवती जिसने इमाम बुखारी के बेटे से शादी करने के लिए इस्लाम अपनाया-शांतिपूर्ण तरीके से. (इमाम बुखारी दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम हैं) तो पहला सवाल हैः क्या शांतिपूर्ण इस्लाम 21वीं सदी के स्वतंत्रता के विचारों के साथ तर्कसंगत है?
दूसरा सवाल हैः चूंकि कुरान और हदीस में बदलाव नहीं हो सकते, तो क्या भारतीय मुस्लिमों के बीच परिवर्तन लाने का कोई रास्ता है? दूसरे सवाल पर पहले चर्चा करते हैं. 2050 तक करीब 31.1 करोड़ आबादी के साथ भारत (दुनिया का) सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश होगा. आधुनिक लोकतांत्रिक भारत को कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है.
1. शिक्षा के अधिकार अधिनियम (भारतीय संविधान के, जिसके तहत बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराई जाती है) के तहत, 6-14 वर्ष की उम्र के सभी बच्चों को अच्छे स्कूलों में होना चाहिए, न कि मदरसों में. एक अच्छे स्कूल का मतलब यह है कि: विद्यार्थियों को गणित और विज्ञान की वैसी ही शिक्षा मिलनी चाहिए जैसा कि मुख्यधारा के स्कूल के बच्चों को मिलती है. अगर कोई मदरसा इन शैक्षिक नियमों का पालन नहीं करता है तो उसे शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत असंवैधानिक घोषित करते हुए बैन कर देना चाहिए.'
2. मदरसे आजादी के लिए खतरा हैं, ये एक आजादी-विरोधी आंदोलन हैं, (और) 21वीं सदी के स्वतंत्रता के विचारों के अनुरूप नहीं हैं. सेक्युलर हिंदू नेता (पॉलिटिकली करेक्ट) और इस्लामिक स्कॉलर धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मदरसों का बचाव करते हैं. लेकिन भारतीय संविधान में धार्मिक अधिकार सभी मौलिक अधिकारों में सबसे निम्नतर और कमजोर अधिकार है. धार्मिक अधिकार के अनुच्छेद 25 में दो उपखंड हैं जो इस अधिकार को निम्नतर बनाते हैं:
'25 (1)- लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विषय में और इस भाग के अन्य उपबंधों के लिए (मौलिक अधिकारों से युक्त संविधान).
'25 (2)- इस अनुच्छेद की कोई भी बात किसी भी कानून के काम करने या राज्य को कोई भी कानून बनाने में प्रभावित नहीं करेगी.'
'मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धार्मिक अधिकारों का अस्तित्व ही नहीं है. मेरा तर्क यह है कि धार्मिक अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों से दबे हुए हैं. मैं समझाता हूं: मेरे पास खाने का मौलिक अधिकार है, मेरे पास पीने का मौलिक अधिकार है और मेरे पास सांस लेने का मौलिक अधिकार है. लेकिन मेरे सांस लेने का मौलिक अधिकार मेरे खाने और पीने के मौलिक अधिकारों पर भारी है. इसलिए धार्मिक अधिकार 18 वर्ष से पहले मौलिक अधिकार नहीं हो सकता है. अगर आप 18 वर्ष की उम्र से पहले सेक्स नहीं कर सकते हैं, अगर आप 18 वर्ष से पहले वोट नहीं दे सकते हैं, आपको 18 से पहले धर्म का मौलिक अधिकार नहीं मिल सकता है.
3. मदरसे मुस्लिम बच्चों के दिमाग पर 6-14 वर्ष की महत्वपूर्ण उम्र में नियंत्रण कर लेते हैं, एक ऐसी उम्र जबकि बच्चों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत सुरक्षित रखने की जरूरत है. इस उम्र के बच्चों के लिए मदरसों को 14 वर्ष की उम्र के बाद और स्कूल की पढ़ाई खत्म होने पर कुरान और हदीस के बारे में पढ़ाए जाने की इजाजत दी जानी चाहिए. अगर हम इस संवैधानिक कदमों का पालन करें तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि कम से कम 20 फीसदी भारतीय मुस्लिम अगले 50 वर्षों में सामाजिक बदलावों के सूत्रधार बनकर निकलेंगे.
'कृपया मेरी सबसे बड़ी चिंता को समझें: भारत ने 6-14 वर्ष की उम्र के बच्चों के प्रति अपनी भूमिका का त्याग कर दिया है. भारत ने न सिर्फ अपनी भूमिका छोड़ी है बल्कि इसने बच्चों के भविष्य से जुड़ी अपनी भूमिका को मदरसे जैसे धार्मिक संस्थाओं द्वारा संचालित किए जाने की अनुमति भी दे दी है.
4. अब बात यूनिफॉर्म सिविल कोड (निजी धार्मिक कानूनों को एक सरकारी कानून से हटाने का प्रस्ताव, जिससे मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार मिल सके) की: संविधान की आत्मा स्पष्ट है लेकिन जजों को स्पष्टता की जरूरत है. संविधान के मुताबिक, भारतीय गणराज्य मुस्लिमों, ईसाइयों और हिंदुओ को एक समुदाय के तौर पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर देखने के लिए अधिकृत है. इसका मतलब हैः अगर एक मुस्लिम महिला, कोई मुस्लिम महिला इस बात के लिए कोर्ट में जाती है कि उसके समानता के अधिकारों का मुस्लिम पर्सनल लॉ उल्लंघन कर रहे हैं तो उसके अधिकारों को मुस्लिमों के निजी कानूनों से ऊपर रखकर सुरक्षित किया जाएगा. क्योंकि भारतीय संविधान के मुताबिक किसी भी व्यक्ति पर कोई समुदाय अपना हक नहीं जमा सकता है.
'5. मस्लिमों की जड़ मानसिकता और अल्पसंख्यक सिंड्रोम ही हिंदू-मुस्लिम दंगों और आरक्षण की राजनीति का आधार हैं. सेक्युलर हिंदू नेता (पॉलिटिकली करेक्ट) इस मानसिकता को बढ़ावा देते हैं, क्योंकि ये उनके सेक्युलरिजम के विचारों को बरकरार रखता है. इस जड़ मानसिकता को खत्म करने के लिए, भारत को जीरो टॉलरेंस पुलिस सुधारों को सुनिश्चित करके और देश के सभी बीपीएल कार्ड धारकों (गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार) के बच्चों के लिए उनके धर्म और जाति को देखे बिना मुफ्त किताबें, मुफ्त कपड़े और मुफ्त शिक्षा देने की नेशनल पॉलिसी बनाकर आरक्षण की राजनीति को व्यर्थ बना देना चाहिए. यह मुमकिन है.
6. पहले सवाल पर लौटते हैं- क्या शांतिप्रिय इस्लाम का स्वतंत्रता के साथ तालमेल है? धर्मनिरपेक्ष (पॉलिटिकली करेक्ट) हिंदू मुसलमानों से कहते हैं- हम तुम्हें 'धर्म निरपेक्षता और नौकरियों और कॉलेजों में 5% कोटा देंगे'. इसके बजाय, एक मुसलमान होने के नाते, मैं चाहता हूं कि धर्म निरपेक्ष हिंदू नेता मुसलमानों से ये कहें कि- 'हम 5% कोटे का वादा तो नहीं करते लेकिन हम आपकी बेटी को पहली कक्षा से गणित, अर्थशास्त्र और विज्ञान की गारंटी जरूर देंगे'. मुस्लिम माता-पिताओं के लिए मेरा तर्क ये है कि- अगर आप LKG [लोवर किंडरगार्टेन, जो पहली कक्षा से दो साल पहले होता है], से कुरान पढ़ा सकते हैं, तो कक्षा 1 से गणित क्यों नहीं पढ़ा सकते? यह तर्क शिक्षा के अधिकार के कानून के दायरे में ही आना चाहिए.
7. अरब स्प्रिंग विफल रही क्योंकि मुस्लिम समाज में आजाद लोकतंत्रवादी विचारों के लिए कोई आधारभूत ढांचा ही नहीं था. इस्लामी सत्ता या ISIS को विश्व स्तर पर समर्थन मिलता है क्योंकि उत्तेजक विचार तो हमारे समाज में पहले से ही मौजूद हैं. विचार जिसकी वजह से जिहादियों ने पैरिस में चार्ली हेब्दो पर हमला किया था, उन्हें बरेलवी मौलवी भारत भर में प्रचारित कर रहे हैं, खासकर ईशनिंदा और धर्म से हटने को लेकर.
'एक लंबी रणनीति के रूप में- भारत सरकार को पहली से 12वीं कक्षा तक तीन पाठ्य पुस्तकें शुरू करनी चाहिए- पहली भारतीय क्लासिक्स पर जैसे उपनिषद, महाभारत, गीता और शास्त्रीय भारतीय विचारकों पर, दूसरी संविधान के आदर्शों पर प्रवेशिका और तीसरी प्रवेशिका जिसमें सभी धर्मों से लिए गए अच्छे विचार हों.'
8. अबू बकर अल बगदादी के खुद को खलीफा घोषित करने से दो महीने पहले मुंबई के चार युवक इराक जाकर ISIS में शामिल हो गए. उसके बाद, केरल और आजमगढ़ से भी कुछ मुसलमान गए. बाकियों को भारत छोड़ने से पहले हैदराबाद और कोलकाता में रोक लिया गया था. एक युवक मुंबई के अमेरिकन स्कूल में आत्मघाती हमले की तैयारी कर रहा था. ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र, यूएई, कतर में बसने वाले भारतीय सीरिया चले गए. वर्तमान में असम, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, केरल जैसे कई भारतीय राज्यों में ISIS समर्थक गतिविधियां देखी जा रही हैं. इस समय सीरिया में करीब 50 से 300 ISIS समर्थक भारतीय हो सकते हैं.
9. इस्लामी सुधार के बारे में एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि- क्या मुसलमान युवा पीढ़ी अपने माता-पिता और इस्लामी मौलवियों से विरासत में मिले विचारों का त्याग कर सकती है? सौभाग्य से, इतिहास से हमें आशावादी सबक मिलते हैं- युवा पीढ़ी ने इटली और जर्मनी में नाजीवाद और फासीवाद को लेकर अपने माता-पिता की मान्यताओं को त्याग दिया था. भारत में भी, हिंदू युवाओं ने जाति और सती प्रथा का त्याग किया. ईसाई धर्म और यहूदीवाद ने आंतरिक संघर्ष झेले, बाइबल और टोरा आम लोगों की जिंदगी से हट गया. भारत में मनुस्मृति को छोड़ दिया गया. चूंकि मध्य पूर्वी धर्मों में इस्लाम सबसे कम उम्र का है, तो उम्मीद की जा सकती है. कुरान की भूमिका मस्जिदों तक सीमित होनी चाहिए. हमें शांतिप्रिय इस्लाम का अध्ययन करना चाहिए, और भारत में इस्लामिक रिफॉर्म का बीज 6 से 14 साल की उम्र में बो देना चाहिए.
10. (सवाल-जवाब सत्र के दौरान)- ये बहस कि बदलाव अंदर से ही आता है, मुसलमानों के बीच से आता है, ये तर्क मान्य नहीं है क्योंकि पूरे इतिहास में, सामाजिक बदलाव अलग विचारों के प्रभाव से, वैश्वीकरण से, युद्ध और प्रौद्योगिकी से आए हैं. एक नर्मपंथी मुसलमान वो होता है जो अकसर ज्वलंत मु्द्दों पर सोया रहता है. लेकिन वास्तव में अगर एक उदारवादी मुसलमान उग्रवादी इस्लामिक मौलवी के साथ किसी बहस में पड़ता है, तो नर्मपंथी मुसलमान दोनों पर हमला करने के लिए समय पर जाग जाता है.
'भारत में, धर्म निरपेक्षता के तीन अर्थ होते हैं- पहला, ये विचारों का आंदोलन है जो सामाजिक जीवन से धर्म की भूमिका को निकाल देता है और व्यक्ति को अपना रोजमर्रा का जीवन सार्थक और तर्कसंगत तरीके से जीने की ताकत देता है. दूसरा, धर्म निरपेक्षता का संवैधानिक अर्थ है कि- भारतीय सत्ता को नीति निर्माण में धर्म से दूरी बनाना होता है. तीसरा, व्यवहारिक और अमली मायना है जो भारतीयों को परेशान कर रहा है, जिसमें हैं 'मुस्लिम' और बुर्के का समर्थन और दूसरी पारंपरिक इस्लामिक सोच, और फिरकापरस्ती का ऐसा रूप जो देश के सामाजिक तानेबाने की धज्जियां उड़ा रहे हैं.
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