सिर्फ तीन शब्द कहकर भारतीय मुस्लिमों द्वारा अपनी पत्नी को तलाक दे देने के खिलाफ चल रही लड़ाई में आखिरकार औरतों को जीत मिल ही गई. कम से कम कानूनी तौर पर तो इस क्रूर व्यवस्था का अंत हो गया. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने गेंद को सरकार के पाले में फेंक दिया है.
छः महीने बाद, नीति निर्माताओं को एक कानून लागू करके तीन तलाक को निरर्थक और खत्म करना होगा. एक बार फिर से इस मुद्दे पर राजनीति का खेल शुरु होने के लिए तैयार रहें. खासकर अगर आपको याद हो कि कैसे यूपी चुनाव से ठीक पहले तीन तलाक एक अभियान बन गया था या फिर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस मुद्दे को उठाया था.
छटपटाहट
लेकिन इस "बर्बर मध्ययुगीन प्रथा" के खिलाफ छाती पीटने, सभी टीवी चैनलों के सामने बुर्का पहने मुस्लिम महिलाओं का जीत संकेत के लिए "वी" का संकेत देने से इतर कुछ चीजें अभी भी परेशान करती हैं.
सबसे पहले तो ये कि फैसले पर एक राय नहीं थी. दूसरा कि सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने का समय दिया है, तीसरा भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहार और जज अब्दुल नज़ीर ने तीन तलाक के पक्ष में स्टैंड लिया.
सुप्रीम कोर्ट ने सात तीन तलाक याचिकाओं की रोजाना सुनवाई के लिए बनाई गई पांच जजों की बेंच में धार्मिक तटस्थता को बनाए रखने की पूरी कोशिश की थी: मुख्य न्यायमूर्ति खेहर (सिख), न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ (ईसाई), न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन (पारसी), न्यायमूर्ति यू यू ललित (हिंदू) और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर (मुस्लिम). लेकिन क्या ये वास्तव में जरुरी था?
लेकिन ये कितना जरुरी था? क्या हमें सर्वोच्च न्यायालय पर इतना भरोसा नहीं है कि वो अपने सभी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर...
सिर्फ तीन शब्द कहकर भारतीय मुस्लिमों द्वारा अपनी पत्नी को तलाक दे देने के खिलाफ चल रही लड़ाई में आखिरकार औरतों को जीत मिल ही गई. कम से कम कानूनी तौर पर तो इस क्रूर व्यवस्था का अंत हो गया. अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने गेंद को सरकार के पाले में फेंक दिया है.
छः महीने बाद, नीति निर्माताओं को एक कानून लागू करके तीन तलाक को निरर्थक और खत्म करना होगा. एक बार फिर से इस मुद्दे पर राजनीति का खेल शुरु होने के लिए तैयार रहें. खासकर अगर आपको याद हो कि कैसे यूपी चुनाव से ठीक पहले तीन तलाक एक अभियान बन गया था या फिर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस मुद्दे को उठाया था.
छटपटाहट
लेकिन इस "बर्बर मध्ययुगीन प्रथा" के खिलाफ छाती पीटने, सभी टीवी चैनलों के सामने बुर्का पहने मुस्लिम महिलाओं का जीत संकेत के लिए "वी" का संकेत देने से इतर कुछ चीजें अभी भी परेशान करती हैं.
सबसे पहले तो ये कि फैसले पर एक राय नहीं थी. दूसरा कि सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने का समय दिया है, तीसरा भारत के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहार और जज अब्दुल नज़ीर ने तीन तलाक के पक्ष में स्टैंड लिया.
सुप्रीम कोर्ट ने सात तीन तलाक याचिकाओं की रोजाना सुनवाई के लिए बनाई गई पांच जजों की बेंच में धार्मिक तटस्थता को बनाए रखने की पूरी कोशिश की थी: मुख्य न्यायमूर्ति खेहर (सिख), न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ (ईसाई), न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन (पारसी), न्यायमूर्ति यू यू ललित (हिंदू) और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर (मुस्लिम). लेकिन क्या ये वास्तव में जरुरी था?
लेकिन ये कितना जरुरी था? क्या हमें सर्वोच्च न्यायालय पर इतना भरोसा नहीं है कि वो अपने सभी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर फैसला सुनाता है फिर चाहे जज का धर्म कोई भी क्यों न हो?
और फिर उसके बाद जजों के फैसले में ही टकराव हो गया. चीफ जस्टिस खेहर और न्यायमूर्ति नज़ीर ने ट्रिपल तलाक का समर्थन कर दिया जबकि न्यायमूर्ति नरिमन, ललित और यूसुफ ने इसे असंवैधानिक बताया. चीफ जस्टिस खेहर और न्यायमूर्ति नज़ीर ने कहा कि सुन्नी मुसलमानों के बीच ट्रिपल तलाक 1,000 सालों से चला आ रहा है. और इसे तब तक खत्म नहीं किया जा सकता जब तक कि संसद इस पर कानून नहीं बना देती.
क्या केस में मुद्दा परंपरा का था या फिर संवैधानिकता का? मुख्य याचिकाकर्ता शायरा बानो ने तीन तलाक की संवैधानिकता को चुनौती दी थी. इसलिए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के सदस्यों ने 50,000 से ज्यादा हस्ताक्षरों के साथ उनका समर्थन किया था. अगर सिर्फ परंपरा ही एक बिंदु थी, तो क्या भारत कभी सती प्रथा से छुटकारा पा सकता था? क्या बेटियों को कभी उनके पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा मिल सकता था? या जिन मंदिरों में सदियों से सिर्फ पुरुषों को प्रवेश करने की इजाजत थी वहां क्या महिलाओं को कभी प्रवेश करने का अधिकार मिलता?
क्या पूर्व के कानून के भविष्य के कानून को नियंत्रित कर सकते हैं?
मुख्य न्यायधीश खेहर और न्यायमूर्ति नजीर ने छह महीने तक तीन तलाक के कानून पर रोक लगाने की सिफारिश की. उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से अपने मतभेदों को अलग रखकर छह महीनों के भीतर एक कानून लाने में केंद्र सरकार के मदद की गुजारिश की. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो तीन तलाक पर रोक जारी रहेगा. न्यायाधीश (अल्पमत फैसले) ने भी "उम्मीद" व्यक्त की कि कानून बनाते समय मुस्लिम निकायों और शरिया की चिंताओं को ध्यान में रखा जाएगा.
इससे सुप्रीम कोर्ट के इरादे और साहस के बारे में गंभीर सवाल उठते हैं. क्या ये छह महीने की समय-सीमा एक बार फिर से उसी कानूनी लड़ाई को नहीं खोल देगा जो रूढ़िवादी और प्रगतिशील, मुल्लाओं और पीड़ितों के बीच इस मामले को अदालत में आने से पहले से ही चल रहा था?
आखिर सुप्रीम कोर्ट को प्रशासनिक प्रक्रियाओं के बारे में क्यों सोचना पड़ता है? क्यों वो न्याय नहीं देते जिसका अधिकार उन्हें संविधान देता है?
ट्रिपल तलाक आज के आधुनिक, स्वतंत्र भारत में अप्रासंगिक है. क्योंकि महिलाओं (या किसी के लिए लागू होता है) को निजी जीवन में मनमाने प्रतिबंधों और पुरातन रीति-रिवाजों में फांस कर नहीं रख सकते. आज हम जिस फैसले को एक "ऐतिहासिक फैसला" कह रहे हैं वो इधर का उधर हो जाता अगर किसी एक और जज ने मान लिया होता कि तीन तलाक जायज है क्योंकि ये सदियों से चला आ रहा है!
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