सरहद के उस पार से ज्यादातर आतंक और नफरतों में लिपटी कहानियां ही इधर आती हैं. मगर इस बार कहानी जुदा है और चोट थोड़ी गहरी. पाकिस्तान में पैदा हुए और पले-बढ़े एक पाकिस्तानी मुसलमान की कहानी है ये. एक ऐसे पाकिस्तानी मुसलमान की जो हाल के वक्त में पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं का सबसे बड़ा मसीहा था. वो पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं और ईसाइयों को भी इंसान और इंसानियत के चशमे से देखने लगा था और बस उसकी इसी गलती की उसे ऐसी सज़ा मिली कि बस पूछिए मत.
1947 में बंटवारे के वक्त जिन्ना के बसाए नए मुल्क में लाखों मुसलमान अपनी तकदीर बनाने हिंदोस्तान से गए थे, लेकिन 70 साल बाद उसी पाकिस्तान से एक मुसलमान भारत आया है जो नापाक पाक के ऐसे खूनी किस्से बयान करता है जिसको सुनकर किसी का भी कलेजा मुंह को आ जाए. ज़ुल्फिकार शाह ने पाकिस्तान में इंसानियत को ऐसे मुल्क में बचाना चाहा जहां इंसानियत को बरसों पहले गड्ढ़ा खोदकर दफना दिया गया. काम मुश्किल था और रास्ता खतरकनाक. मगर जुल्फिकार डरे या हारे नहीं. बल्कि पाकिस्तान में रहते हुए ही उन्होंने अल्पसंख्यक हिंदुओं और ईसाईयों के लिए जेहाद छेड़ दिया.
जेहादियों के मुल्क में ये ऐसा जिहाद था जिसमें शामिल होने वालों को जन्नत की हूरों का लालच नहीं दिया गया. वो खुद आए और इतनी तादाद में आए कि जिहाद का कॉपीराइट रखने वाले भी कांप उठे. जुल्फिकार बताते हैं सिंध की वो दास्तान जो खून में सनी है और ज़िल्लत में लिपटी है. जिन्ना के मुल्क में जब तालिबानियों ने कब्ज़ा किया तो उन्होंने सबसे पहले सिंध में बसे सिंधी हिंदुओं और ईसाई पर ज़ुल्म ढाए. मजहब बदलने से इंकार करने पर मर्दों पर गोलियां बरसाई गईं. औरतों की इज्जत को तार तार किया. और इनकी जमीन पर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया.
पाकिस्तान में जब कोई सिंधियों-बलूचों पुरसाने हाल नहीं था तब इसी...
सरहद के उस पार से ज्यादातर आतंक और नफरतों में लिपटी कहानियां ही इधर आती हैं. मगर इस बार कहानी जुदा है और चोट थोड़ी गहरी. पाकिस्तान में पैदा हुए और पले-बढ़े एक पाकिस्तानी मुसलमान की कहानी है ये. एक ऐसे पाकिस्तानी मुसलमान की जो हाल के वक्त में पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं का सबसे बड़ा मसीहा था. वो पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं और ईसाइयों को भी इंसान और इंसानियत के चशमे से देखने लगा था और बस उसकी इसी गलती की उसे ऐसी सज़ा मिली कि बस पूछिए मत.
1947 में बंटवारे के वक्त जिन्ना के बसाए नए मुल्क में लाखों मुसलमान अपनी तकदीर बनाने हिंदोस्तान से गए थे, लेकिन 70 साल बाद उसी पाकिस्तान से एक मुसलमान भारत आया है जो नापाक पाक के ऐसे खूनी किस्से बयान करता है जिसको सुनकर किसी का भी कलेजा मुंह को आ जाए. ज़ुल्फिकार शाह ने पाकिस्तान में इंसानियत को ऐसे मुल्क में बचाना चाहा जहां इंसानियत को बरसों पहले गड्ढ़ा खोदकर दफना दिया गया. काम मुश्किल था और रास्ता खतरकनाक. मगर जुल्फिकार डरे या हारे नहीं. बल्कि पाकिस्तान में रहते हुए ही उन्होंने अल्पसंख्यक हिंदुओं और ईसाईयों के लिए जेहाद छेड़ दिया.
जेहादियों के मुल्क में ये ऐसा जिहाद था जिसमें शामिल होने वालों को जन्नत की हूरों का लालच नहीं दिया गया. वो खुद आए और इतनी तादाद में आए कि जिहाद का कॉपीराइट रखने वाले भी कांप उठे. जुल्फिकार बताते हैं सिंध की वो दास्तान जो खून में सनी है और ज़िल्लत में लिपटी है. जिन्ना के मुल्क में जब तालिबानियों ने कब्ज़ा किया तो उन्होंने सबसे पहले सिंध में बसे सिंधी हिंदुओं और ईसाई पर ज़ुल्म ढाए. मजहब बदलने से इंकार करने पर मर्दों पर गोलियां बरसाई गईं. औरतों की इज्जत को तार तार किया. और इनकी जमीन पर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया.
पाकिस्तान में जब कोई सिंधियों-बलूचों पुरसाने हाल नहीं था तब इसी पाकिस्तानी मुसलमान ने उनका साथ दिया. उनके हक के लिए लड़ाई लड़ी. 2009 से लेकर 2012 तक ज़ुल्फी ने सिंधी हिंदुओं और ईसाई को बचाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी झोंक दी. 3 सालों में एक हजार से ज्यादा रैलियां करके ये पाकिस्तान में बेसहारा हिंदुओं और ईसाइयों के मसीहा बन गए. सिंधियों के हक के लिए हैदराबाद से कराची तक रैली निकाली तो उसमें शामिल 50 हजार लोगों में से 30 हजार हिंदू और सैंकड़ों ईसाई इनके कदमों से कदम मिलाने के लिए घरों से बाहर निकल आए. डर की बेड़ियां टूटने लगीं, मगर इस आंदोलन का नतीजा आना अभी बाकी था.
पाकिस्तानी सेना और हुकमरान इस आंदोलन को तो नहीं दबा पाए, मगर उन्होंने ज़ुल्फी की आवाज को दबा दिया. पाकिस्तानी हिंदुओ और ईसाई की आवाज को बुलंद करने का खामियाजा ज़ुल्फिकार शाह को उठाना पड़ा. पाकिस्तान से जबरन इन्हें पत्नी के साथ निकाल दिया गया. और बेवतन होने के बाद नेपाल में जब ये दरबदर फिर रहे थे, तब बड़े शातिराना तरीके से आईएसआई ने इनकी रगों में जहर घोल दिया. सिंध की आजादी और सिंधियों के हक के लिए जुल्फिकार शाह ने अपनी खुशियों में आग लगा दी. अब इनकी जिंदगी में कुछ नहीं बचा है, सिवाए दो चीज़ों के- पहला वो सुकून जो इन्होंने पाकिस्तान में इन बेसहारा हिंदुओं की मदद करके हासिल किया और दूसरा आईएसआई का जहर जो अब इनके जिस्म को धीरे धीरे खोखला करता जा रहा है.
जिंदा होकर भी मौत से कोई बेहतर हालात नहीं हैं ज़ुल्फी के. हमें लगा कि हम उनके उस दर्द को जी नहीं सकते तो कम से कम महसूस तो कर ही सकते हैं. मगर यकीन मानिए ये सिर्फ और सिर्फ हमारी गलतफहमी ही थी. कायदे से समझें तो उन लोगों को इस इंसान की पूजा करनी चाहिए जो खुद को हिंदुओं का रहनुमा कहते हैं. क्योंकि एक मुसलमान होते हुए इसने पाकिस्तानी हिंदुओं के लिए जो किया उसके बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते. लोग तो बस अपना वक्त देते हैं मगर इसने तो अपनी सारी ज़िंदगी दे दी...घर दे दिया..वतन दे दिया..सेहत दे दी.. और अपनी सांसें भी इंसानियत के लिए न्योछावर कर दीं.
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