मनु ऋषि कब क्या कह गए, पता नहीं. कार्यस्थल पर वर्ण-पद्धति ब्रिटिशों ने लाई होगी. जैसे अस्पतालों में एक बहुत बड़े डॉक्टर, उनके पीछे एक बड़े डॉक्टर, उनके पीछे चार जूनियर डॉक्टर, फिर मैट्रन, स्टाफ नर्स, ट्रेनी नर्स, वार्डबॉय और आखिर में स्वीपर. इन सबके अलग-अलग गुट, अलग वेश-भूषा, अलग खान-पान, अलग शौक, अलग गाड़ियां, और अलग सोशल स्टेटस हैं.
समस्या तब आती है जब इस मानसिकता के साथ आप किसी ऐसे देश में कदम रखते हो जो ब्रिटिश उपनिवेश न रहा हो. गधों को कुछ समझ ही नहीं.
हमारी स्वीपर-कम-धोबी पहले एम.बी.ए. कर चुकी हैं. पहले होटल में जॉब करती थीं जो काफी स्ट्रेसफुल था. यहां बस एक बार फ्लोर में पोछा मारो और कपड़े उठाकर वाशिंग-मशीन में रखो, कभी कॉफी बना दो. उनकी गाड़ी हमारे क्लिनिक की सबसे बड़ी गाड़ी है, और वो शान से गॉगल्स लगाकर धूप में सिगरेट पीती दिख सकती हैं.
जहां अस्पताल की स्वीपर एमबीए हो,और पार्किंग में खड़ी उसकी कार सबसे बड़ी हो. |
यहां के मालिक की पत्नी (यानी मालकिन) मेरी सेक्रेट्री हैं, जिनका काम कुछ अस्पतालों के रिसेप्शनिस्ट की भांति है. इसके अलावा मेरी फाइल वगैरह संभालना, कुछ हल्की-फुल्की झाडू-फटके भी. कोई सर झुका कर काम नहीं करता. मुझे कोई सलाम नहीं ठोकता, सब नाम से बुलाते हैं. बताओ, इसी लिए डॉक्टरी पढ़ी थी क्या?
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