26 नवंबर 1949 को हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ था. लिहाजा इसे देश में संविधान दिवस के तौर पर याद किया जाता है. आज जब हम इस दिवस को संविधान दिवस के रूप में याद कर रहे हैं तो हमे इसके बहुआयामी पक्षों पर विचार करते हुए याद करने की जरूरत है. आजादी से पूर्व एवं आजादी के बाद देश में जरूरत के अनुरूप तमाम कानून बनाए गए और उन कानूनों को लागू भी किया गया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हम उन कानूनों का मूल्यांकन भी समय-समय पर किए हैं ? आज इस विषय पर विस्तार पर बहस की जरूरत है.
पहला सवाल यही है कि कानून का अर्थ क्या है ? इस बारे में ऑस्टिन का कथन है कि कानून संप्रभु की आज्ञा है. राज्य के सन्दर्भ में अगर बात करें तो राजतंत्र वाली व्यवस्था में राजा का आदेश ही कानून होता था. शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सैद्धांतिक रूप से कानून की परिभाषा कमोबेस वही है. सवाल है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून लोकहित के लिए हैं या लोकहितों को ही कानून के मापदंड पर रखकर देखना होगा ? निश्चित तौर पर लोक का हित सर्वोपरी हो, किसी के साथ अन्याय न हो, कानून का उद्देश्य इतना भर है. क्या हम कानूनों को तैयार करते समय उन मानकों का ध्यान रखते हैं जो उक्त कानून के भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों नजरिए से लोकहित के खिलाफ न जाए ? अगर इस सवाल का जवाब खोजने जायेंगे तो एक घोर अनिश्चितता एवं भ्रम की स्थिति देखने को मिलेगी. कई ऐसे कानून जो कभी इतिहास की जरूरत थीं, आज भी कायम हैं. कई ऐसे कानून जो वर्तमान के अनुकूल बदलने या खत्म होने चाहिए, आज भी पुराने प्रारूप में ही लागू हैं. कई ऐसे कानून जिनके विरोधाभाषी कानून समय के साथ-साथ लागू किये गए लेकिन पुराना कानून आज भी कायम है, उन्हें खत्म नहीं किया गया है. सूचना का अधिकार कानून, बांस को पेड़ का दर्जा देकर उसे काटने पर पाबंदी लगाने वाला कानून अथवा तांबे के पतले तारों को घर में रखने को अवैध मानने वाला कानून सहित तमाम उदाहरण हैं.
26 नवंबर 1949 को हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ था. लिहाजा इसे देश में संविधान दिवस के तौर पर याद किया जाता है. आज जब हम इस दिवस को संविधान दिवस के रूप में याद कर रहे हैं तो हमे इसके बहुआयामी पक्षों पर विचार करते हुए याद करने की जरूरत है. आजादी से पूर्व एवं आजादी के बाद देश में जरूरत के अनुरूप तमाम कानून बनाए गए और उन कानूनों को लागू भी किया गया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हम उन कानूनों का मूल्यांकन भी समय-समय पर किए हैं ? आज इस विषय पर विस्तार पर बहस की जरूरत है.
पहला सवाल यही है कि कानून का अर्थ क्या है ? इस बारे में ऑस्टिन का कथन है कि कानून संप्रभु की आज्ञा है. राज्य के सन्दर्भ में अगर बात करें तो राजतंत्र वाली व्यवस्था में राजा का आदेश ही कानून होता था. शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सैद्धांतिक रूप से कानून की परिभाषा कमोबेस वही है. सवाल है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून लोकहित के लिए हैं या लोकहितों को ही कानून के मापदंड पर रखकर देखना होगा ? निश्चित तौर पर लोक का हित सर्वोपरी हो, किसी के साथ अन्याय न हो, कानून का उद्देश्य इतना भर है. क्या हम कानूनों को तैयार करते समय उन मानकों का ध्यान रखते हैं जो उक्त कानून के भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों नजरिए से लोकहित के खिलाफ न जाए ? अगर इस सवाल का जवाब खोजने जायेंगे तो एक घोर अनिश्चितता एवं भ्रम की स्थिति देखने को मिलेगी. कई ऐसे कानून जो कभी इतिहास की जरूरत थीं, आज भी कायम हैं. कई ऐसे कानून जो वर्तमान के अनुकूल बदलने या खत्म होने चाहिए, आज भी पुराने प्रारूप में ही लागू हैं. कई ऐसे कानून जिनके विरोधाभाषी कानून समय के साथ-साथ लागू किये गए लेकिन पुराना कानून आज भी कायम है, उन्हें खत्म नहीं किया गया है. सूचना का अधिकार कानून, बांस को पेड़ का दर्जा देकर उसे काटने पर पाबंदी लगाने वाला कानून अथवा तांबे के पतले तारों को घर में रखने को अवैध मानने वाला कानून सहित तमाम उदाहरण हैं.
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गैर-जरुरी कानूनों की जटिलता एवं उनकी अप्रासंगिकता पर अनेक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी खुलकर बोलते रहे हैं. ऐसे तमाम कानूनों को वर्तमान की केंद्र सरकार द्वारा समाप्त भी किया गया है. बावजूद इसके अभी भी तमाम ऐसे तमाम कानून हैं जो समाप्त किए जाने चाहिए अथवा जरूरत के अनुरूप उनमे सुधार किए जाने चाहिए. गैर-जरुरी एवं अप्रासंगिक कानूनों को समाप्त करने की दिशा में देश में कई रिसर्च संस्थान काम कर रहे हैं. सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी के अंतर्गत कानूनों पर काम करने वाली आईजस्टिस की टीम ने ऐसे कुछ महत्वपूर्ण कानूनों की सूचि तैयार की है. कानूनों का मकड़जाल किस कदर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब आईजस्टिस के शोधार्थियों की टीम द्वारा दिल्ली के कानून सचिव से यह जानकारी मांगी गयी कि अभी दिल्ली में कुल कितने कानून लागू हैं, तो उनके पास आंकड़ों में कोई जवाब नहीं था. सरकार की नीतियों एवं देश की राजनीति पर शोधकार्य करने वाली शोध संस्था डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन द्वारा भी हाल में ही एक रिपोर्ट जारी की गयी है जिसमे उन तमाम कानूनों पर शोधपरक जानकारी दी गयी है, जिन्हें हाल में समाप्त किया गया है अथवा किया जाना है.
सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी द्वारा दिल्ली एवं अन्य राज्यों में लागू में गैर-उपयोगी कानूनों की सूचि तैयार की गयी है. इनमें से कई कानून ऐसे हैं जो दूसरे राज्यों से लिए गये थे. हालांकि उन राज्यों में इन कानूनों को समाप्त किया जा चुका है लेकिन दिल्ली में अभी भी लागू है. उदाहरण के लिए अगर देखें तो एक कानून है-
पंजाब विलेज एंड स्माल टाउन पैट्रोल एक्ट 1918, इसके तहत छोटे कस्बों एवं गांवों के निवासियों रात में अपने गांव की निगरानी के लिए गश्त ड्यूटी करना पड़ता था. यह उस दौरान की व्यवस्था का हिस्सा था जब इसकी जरूरत रही होगी. दिल्ली के लिहाज से अब इस कानून को लागू रखने का कोई औचित्य नहीं है. लिहाजा इस कानून को कानून-पुस्तिका से हटा दिया जाना चाहिए. एक और कानून है पंजाब कॉपिंग फीस कानून 1936, ये आज भी लागू है. लेकिन इसका औचित्य नहीं है. इसके तहत अगर कोई नागरिक सरकार से कोई जानकारी लेता है तो इसके दस्तावेजों के खर्चे का भुगतान करना होगा. चूंकि सूचना का अधिकार कानून में इसको अलग से तय कर दिया गया है तो अब इस कानून के लागू रहने का कोई औचित्य नहीं है. लिहाजा इस कानून को समाप्त किया जाना चाहिए.
कई कानून तो ऐसे हैं जो चलन में बेशक न हों लेकिन कानून-पुस्तिका में आज भी कायम हैं, जिसका फायदा अगर कोई संबंधित अधिकारी गलत ढंग से उठाना चाहे तो उठा सकता है. नजीर के तौर पर एक बेहद हास्यास्पद कानून है कि अगर आपके पास गाय का नवजात बछड़ा है तो वो बैल बनेगा या सांड बनेगा, ये बछड़े का मालिक होने के नाते आपको तय करने का अधिकार नहीं है. इसके लिए भी आपको सरकारी प्रक्रिया के तहत जाना होगा. बेशक समय के साथ-साथ ये कानून अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं लेकिन आज भी कानून-पुस्तिका में बने हुए हैं. लिहाजा इन कानूनों को हटा दिया जाना बेहद जरुरी है.
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चूंकि गैर-जरुरी कानूनों का मकड़ जाल बेहद उलझा हुआ है लिहाजा एकबार में सबको समाप्त करना बेहद मुश्किल काम है. तमाम शोधार्थी इस विषय पर अपने सुझाव प्रस्तुत कर चुके हैं. बड़ा सवाल है कि आखिर कानून बनाने की प्रक्रिया में ही सुधार क्यों न हो ? कानून बनाते समय क्यों न उससे जुड़े भविष्य और लागत सहित व्यवहारिक शोध को भी तरजीह दी जाए. कोई कानून लागू होने के बाद किस ढंग से काम करेगा इसको लेकर उससे जुड़े कुछ बहुआयामी पूर्व-शोध कार्यों पर क्यों न गौर किया जाय. कानून की ड्राफ्टिंग टीम में शोधार्थियों को भी तरजीह देकर एक स्वायत्त प्री-रिसर्च भी कराया जाना चाहिए.
जिस कानून को लाया जा रहा है, उसका प्रमुख उद्देश्य क्या है, यह स्पष्ट शब्दों में तय होना चाहिए और उन्हीं उद्देश्यों के मानदंडों पर आगे चलकर उस कानून का सतत मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए. कानून अपने तय उद्देश्य को प्राप्त कर रहा है अथवा नहीं कर रहा है, इसका समय-समय पर मूल्यांकन करके ही उसको आगे जारी रखना ठीक प्रतीत होता है. कानून को लागू कराने में लागत के सवाल पर कभी गंभीरता से चर्चा नहीं होती है. लागत का प्रश्न इसलिए कि हमे यह स्पष्ट पता हो कि क्या देकर क्या हासिल करने की नीति हम बनाने जा रहे हैं. लागत का सही मूल्यांकन किए बिना हम कानून को सफल नहीं बना सकते हैं. ये तमाम सुझाव आईजस्टिस टीम द्वारा दिए जा रहे हैं. हालांकि सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी ने 26 नवम्बर को ‘नेशनल लॉ रिपील डे’ के तौर पर मनाने की मांग रखी है. यानी इस दिन हम इसबात पर बहस करें कि कौन-कौन से कानून ऐसे हैं, जो अप्रासंगिक हैं. उन्हें खत्म किया जाय. चूंकि अप्रासंगिक कानूनों को समाप्त किए जाने का ठोस प्रयास पिछली संप्रग सरकार में नीतिगत रूप से नहीं हुआ था लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार ने इस दिशा में ठोस पहल की है. लिहाजा यह उम्मीद की जानी चाहिए कि गैर-जरुरी कानूनों को समाप्त तो किया ही जाय, साथ में कानून बनाने की नीति में भी सुधार किया जाय.
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