संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले विचार पर शायद केंद्र सरकार ने काम शुरू कर दिया है. संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर भी समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा चाहते थे लेकिन कुर्सी के फेर में नेताओं की हिम्मत नहीं पड़ी पर मोदी सरकार ने साहस दिखाया है. मोदी सरकार ने कैबिनेट की बैठक में राष्ट्रीय सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन का फैसला किया है. ये मौजूदा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का स्थान लेगा और उससे भिन्न होगा. नए आयोग को संविधान संशोधन के जरिये बनाया जाएगा इसलिए इसक दर्जा भी संवैधानिक होगा. संवैधानिक दर्जे का मतलब ये भी हुआ कि आयोग की सिफारिश पर अमल कानून बनाकर किया जा सकेगा जैसा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफारिशों के मामले में होता है. जाहिर है मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा शुरू हो चुकी है. सिरदर्द बन चुके जाट और पाटीदार आरक्षण की मांग के आंदोलन के बीच सरकार के लिए इस मसले का हल निकालना बेहद जरूरी हो गया है. वैसे आरक्षण को खत्म करने के लिए ऐसे ही चरणबद्ध प्रयासों की जरूरत है.
नए आयोग के विधेयक और कामकाज का दायरा अभी सामने नहीं आया है लेकिन अगर इसके नाम को ही आधार बनाएं तो ये पता चलता है कि सरकार ओबीसी आरक्षण के आधार को और व्यापक करना चाहती है. सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन को आधार बनाया जाएगा तो ज्यादा जातियों को कोटे के दायरे में लाया जा सकेगा और तब सरकार के लिए अपने राजनैतिक समीकरण साधना आसन हो जाएगा. मुमकिन है कि सरकार जाटों और पाटीदार समुदाय के सिर्फ शैक्षिक व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का रास्ता नए आयोग के जरिये खोजे. ऐसा हुआ तो कुछ और जातियों को भी ओबीसी की सूची में शामिल करने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. यानी अब ओबीसी कोटे के पत्ते नए सिरे से फेंटे जाएंगे.
संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले विचार पर शायद केंद्र सरकार ने काम शुरू कर दिया है. संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर भी समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा चाहते थे लेकिन कुर्सी के फेर में नेताओं की हिम्मत नहीं पड़ी पर मोदी सरकार ने साहस दिखाया है. मोदी सरकार ने कैबिनेट की बैठक में राष्ट्रीय सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन का फैसला किया है. ये मौजूदा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का स्थान लेगा और उससे भिन्न होगा. नए आयोग को संविधान संशोधन के जरिये बनाया जाएगा इसलिए इसक दर्जा भी संवैधानिक होगा. संवैधानिक दर्जे का मतलब ये भी हुआ कि आयोग की सिफारिश पर अमल कानून बनाकर किया जा सकेगा जैसा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफारिशों के मामले में होता है. जाहिर है मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा शुरू हो चुकी है. सिरदर्द बन चुके जाट और पाटीदार आरक्षण की मांग के आंदोलन के बीच सरकार के लिए इस मसले का हल निकालना बेहद जरूरी हो गया है. वैसे आरक्षण को खत्म करने के लिए ऐसे ही चरणबद्ध प्रयासों की जरूरत है.
नए आयोग के विधेयक और कामकाज का दायरा अभी सामने नहीं आया है लेकिन अगर इसके नाम को ही आधार बनाएं तो ये पता चलता है कि सरकार ओबीसी आरक्षण के आधार को और व्यापक करना चाहती है. सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन को आधार बनाया जाएगा तो ज्यादा जातियों को कोटे के दायरे में लाया जा सकेगा और तब सरकार के लिए अपने राजनैतिक समीकरण साधना आसन हो जाएगा. मुमकिन है कि सरकार जाटों और पाटीदार समुदाय के सिर्फ शैक्षिक व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का रास्ता नए आयोग के जरिये खोजे. ऐसा हुआ तो कुछ और जातियों को भी ओबीसी की सूची में शामिल करने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. यानी अब ओबीसी कोटे के पत्ते नए सिरे से फेंटे जाएंगे.
आरक्षण का पूरा मसला सामाजिक और आर्थिक वजहों पर टिका हुआ है लेकिन हाल में जिन जातियों की तरफ से आरक्षण की मांग उठी है उनकी वजह सामाजिक कम आर्थिक ज्यादा हैं. नौकरियां घट रही हैं, अच्छी पढ़ाई महंगी है और जिन वर्गों में इन दोनों को हासिल करने की चेतना विकसित हो गई है उसके लोगों ने आरक्षण के जरिये इसे हासिल करने के लिए राजनीतिक अभियान चला दिया है. जाट और पाटीदार आरक्षण के फैसले पुख्ता आंकड़ों के अभाव में अदालत में टिक नहीं सके पर सरकार ने रास्ता बंद हो जाने की बात कभी नहीं कही. प्रस्तावित नए आयोग को भी सबसे पहले आंकड़े इकट्ठे करने होंगे और इसमें वन्न्त लगेगा पर तब तक सरकार अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर चुकी होगी. दो साल के भीतर केंद्र सरकार को लोकसभा चुनाव के अलावा गुजरात, कर्नाटक जैसे कई राज्यों के चुनावों का सामना करना है.
स्पष्ट है सरकार अपनी राजनीतिक मुश्किलें पहले ही दूर कर लेना चाहती है ताकि ऐन वक्त पर चुनावी फैसला करने का आरोप न लगे. बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख के बयान ने भाजपा को मुश्किल में डाल दिया था पर नए आयोग के फैसले से पार्टी आरक्षण के मोर्चे पर एक ठोस कदम उठाने की उपलब्धि का बखान कर सकेगी. दबंग और दबे-कुचले का भेद शिक्षा और आर्थिक सुदृढ़ता से दूर किया जा सकता है. समाज में शिक्षा और आर्थिक समृद्धि के हर वर्ग पहुंचने के बाद ही आरक्षण खत्म किया जा सकता है पर आरक्षण की मलाई खाकर तगड़े हो चुके लोग अभी भी इसे छोडऩा नहीं चाहते जो की सरासर डॉ. अंबेडकर का अपमान है.
आरक्षण के असर पर गैर राजनीतिक राय किसी भी सरकार की तरफ से आना मुश्किल है पर बहाने से वह इसे जाहिर कर सकती है. नया आयोग बना तो इसके पास मौजूदा आयोग के मुकाबले ज्यादा ताकत भी होगी. एससी/एसटी कमीशन की तरह इसके पास दीवानी न्यायालय जैसे अधिकार होंगे. यह पीडि़तों की समस्या सुनकर अफसरों को तलब कर सकेगा. इसकी सिफारिशों पर संसद में कानून बनाने के बाद ही किसी जाति को ओबीसी में शामिल किया जा सकेगा. इससे सरकार के पास से कार्यकारी आदेश के जरिये जातियों को ओबीसी में शामिल करने का अधिकार चला जाएगा. अधिकार जाने से सरकार को सीधे विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा. अर्थात आयोग की आड़ मिल जाएगी. विधेयक का मसौदा सामने आने के बाद और बारीक बातों की जानकारी मिलेगी. जातियों को जल्दी से मुख्यधारा में लाने और नियमित समीक्षा से ही आरक्षण का खात्मा हो सकेगा. तब ही सच्चे अर्थ में समाजवाद आ सकेगा.
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