आज एक आर्टिकल पढ़ा जिसमें लिखा था पुरुषों को लगता है फ़ेमिनिस्ट औरतें सेक्स के लिये होती है शादी के लिये नहीं!
हालाँकि, ये अपने आप में बेहद हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण बात है कि एक महिला को आप नारीवाद कहते है? या वो स्वयं कहती है! फेमिनिस्ट कोई औरत हो ही नहीं सकती, ये तो सिर्फ और सिर्फ पुरुष हो सकता है कोई स्त्री कभी नहीं ! हालाँकि, नारीवाद एक विचारधारा है जिसकी शुरुआत एक बड़े तबके को जागरुक करने के लिये उनके अधिकार को पाने के लिये आंदोलन की शुरुआत की गई थी, लेकिन दूसरों के अधिकारों के लिये शुरू की गई ये लड़ाई ख़ुद पर आकर ठहर गई है. सबका अपना सुर अपना संगीत हो गया! सशक्तिकरण के नाम पर पुरुषों को टार्गेट करना, हर छोटी-छोटी बात का मुद्दा बनाना. व्यक्तिगत बातों का पब्लिक इशू बनाना, घर की लड़ाई बाहरी पुरुषों से लड़ना! लेकिन मुझे लगता है जिस दिन ये कुंठित महिलाएं घर के पुरूषों से जीत जायेंगी बाहरी पुरुष इनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे. कुछ दिन पहले एक बड़ी ही विचित्र घटना हुई - एक महिला जो नारीवाद पर बहुत ही जोशिला/ भड़काऊ बोल रही थीं घर पहुँचते ही किसी बात पर कहती है "नहीं नहीं मेरा पति नाराज़ हो जायेगा"; मैं सोचने लगी ये किस तरह का दोहरा चरित्र है?
समाज जिस बात का विरोध करता है हम उस बात के विरोध में खड़े होते ही फेमिनिस्ट बना दिये जाते हैं या फ़ेमिनिस्ट बन जाते हैं. फ़ेमिनिस्ट बनने और बनाने के सबसे आसान तरीक़ों में से अत्यधिक सुगम है सोशल मीडिया पर कोई कैम्पेन चलाना. कुछ दिन पहले एक ऐसा ही कैम्पेन चलाया गया था "नैचरलसेल्फ़ी", फेमिनिस्ट कही जाने वाली औरतें सोशल मीडिया पर मेकअप उतार कर उतर आईं थीं और इस बहकावे में आने वाली महिलाओं को ठीक से पता भी नहीं था कि नैचरल सेल्फ़ी लगाने के पीछे विरोध किस बात का है? कुछ का कहना था पितृसत्ता के खिलाफ है कुछ का कहना था...
आज एक आर्टिकल पढ़ा जिसमें लिखा था पुरुषों को लगता है फ़ेमिनिस्ट औरतें सेक्स के लिये होती है शादी के लिये नहीं!
हालाँकि, ये अपने आप में बेहद हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण बात है कि एक महिला को आप नारीवाद कहते है? या वो स्वयं कहती है! फेमिनिस्ट कोई औरत हो ही नहीं सकती, ये तो सिर्फ और सिर्फ पुरुष हो सकता है कोई स्त्री कभी नहीं ! हालाँकि, नारीवाद एक विचारधारा है जिसकी शुरुआत एक बड़े तबके को जागरुक करने के लिये उनके अधिकार को पाने के लिये आंदोलन की शुरुआत की गई थी, लेकिन दूसरों के अधिकारों के लिये शुरू की गई ये लड़ाई ख़ुद पर आकर ठहर गई है. सबका अपना सुर अपना संगीत हो गया! सशक्तिकरण के नाम पर पुरुषों को टार्गेट करना, हर छोटी-छोटी बात का मुद्दा बनाना. व्यक्तिगत बातों का पब्लिक इशू बनाना, घर की लड़ाई बाहरी पुरुषों से लड़ना! लेकिन मुझे लगता है जिस दिन ये कुंठित महिलाएं घर के पुरूषों से जीत जायेंगी बाहरी पुरुष इनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगे. कुछ दिन पहले एक बड़ी ही विचित्र घटना हुई - एक महिला जो नारीवाद पर बहुत ही जोशिला/ भड़काऊ बोल रही थीं घर पहुँचते ही किसी बात पर कहती है "नहीं नहीं मेरा पति नाराज़ हो जायेगा"; मैं सोचने लगी ये किस तरह का दोहरा चरित्र है?
समाज जिस बात का विरोध करता है हम उस बात के विरोध में खड़े होते ही फेमिनिस्ट बना दिये जाते हैं या फ़ेमिनिस्ट बन जाते हैं. फ़ेमिनिस्ट बनने और बनाने के सबसे आसान तरीक़ों में से अत्यधिक सुगम है सोशल मीडिया पर कोई कैम्पेन चलाना. कुछ दिन पहले एक ऐसा ही कैम्पेन चलाया गया था "नैचरलसेल्फ़ी", फेमिनिस्ट कही जाने वाली औरतें सोशल मीडिया पर मेकअप उतार कर उतर आईं थीं और इस बहकावे में आने वाली महिलाओं को ठीक से पता भी नहीं था कि नैचरल सेल्फ़ी लगाने के पीछे विरोध किस बात का है? कुछ का कहना था पितृसत्ता के खिलाफ है कुछ का कहना था मेकअप के खिलाफ है. मुझे ये मात्र सेल्फ़ी पोस्ट करने का बहाना लगा क्योंकि एक तो प्रोफाइल पिक्चर में मेकअप की कोई कमी नहीं थी दूसरे ये सोशल मीडिया पर एक दिन का कैम्पेन नहीं है बल्कि अत्म अनुभूति की बात है फिर हमें पब्लिक की राय क्यों चाहिये? हमें मेकअप नहीं करना है हम नहीं करेंगे, लेकिन इसमें सोशल मीडिया पर सेल्फ़ी पोस्ट कर दिखाने की ज़रूरत नहीं थी वो भी "ब्यूटी फेस एप" के सहारे बल्कि ज़रूरत इस बात की है कि हम बिना मेकअप घर से बाहर निकलना शुरू करें क्योंकि सेल्फ़ी तो हम वैसे भी आये दिन पोस्ट करते ही रहते हैं और वाह, ख़ूबसूरत; लाजबाब और अति सुंदर जैसे लफ़्ज़हार मिलते रहते है.
पीरियड्स, सेक्स, पोर्न या ब्रा पर बात करना फेमिनिज्म नहीं है ये तो फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन है जिन्हें कुछ स्त्रियाँ नारीवाद समझती हैं और ऐसा नारीवाद पुरूषों जैसे सेक्स की आज़ादी और कम कपड़े पहनने की आज़ादी को लेकर शुरू होती है! जबकि ये दोनों बातें व्यक्तिगत हैं! आपका जिसके साथ मन करे सो जाइये कौन देखने जाता है कौन पूछने जाता है "किसके साथ सो कर आइ हो?" सिवाय आपकी फ़ैमिली के और जवाब भी आपको अपने परिवार को ही देना पड़ता है लेकिन जब आप ख़ुद ढिंढोरा पीट कर बताती है तब बाह्य पुरुष आपको सेक्स टॉय समझ लेते हैं! पुरुषों का ऐसा लगना असामान्य नहीं है क्योंकि फ़्री सेक्स की हिमायती महिलायें आसानी से किसी के साथ भी सो जाती हैं! शायद ढिंढोरा भी इसलिये पीटती है कि मैं सुलभ उपलब्ध हूँ!
कपड़े ना पहनने का मन हो मत पहनिये, लोग क्या कहते है उसकी परवाह बिलकुल मत करिये ठीक वैसे ही जैसे लोग आपको ख़ूबसूरत नहीं मानते और इसकी परवाह क्यों करना. ठीक इसी तरह लोग (पुरुष) आपके नंगे शरीर को घूरते है और आपको परवाह करनी चाहिए लेकिन नहीं उन्हें तो हर बात को पब्लिक करके पब्लिसिटी बटोरनी है! फेमिनिस्ट महिलायें आइडेंटिटी क्राइसेस की काली गुफ़ा में भटकती हुई आत्मा की तरह होती हैं, इन्हें अटेंशन सीकर कहा जा सकता है. नित नये बहाने से सबका ध्यान अपनी ओर खींचती है! जब उन्हें जागरुकता में ध्यान देना चाहिये वो फेमिनिज्म पर ध्यान देती है क्योंकि उन्हें पब्लिसिटी चाहिये. इसलिये ऐसी औरतों के साथ मर्द सिर्फ़ सोना चाहते है क्योंकि ये फ़्री सेक्स की हिमायती होती है, पुरुष इन्हें मात्र सुलभ उपलब्ध सेक्स समझते है. फेमिनिस्ट औरतों के लिये सिगरेट और शराब पीना भी मज़बूत होने का दिखावा करना होता है! कुछ पुरुष इनके प्रेम में पड़ जाते हैं लेकिन शादी नहीं करना चाहते हैं! प्रेम के कई भावुक छनों में जब ये मज़बूत महिलाएँ कमज़ोर हो जाती है तब पुरुष इनसे भयभीत होकर भाग जाते है क्योंकि वो इनका असली कमज़ोर चेहरा देख लेते है!
जबकि लाखों उदाहरण है एम्पावर्ड औरतों के साथ मर्द ना सिर्फ़ खड़े होते हैं बल्कि शादी कर जीवन भर साथ निभाते हैं. आख़िर एम्पावरमेंट की शुरुआत अपने घर से ही तो होगी, जब एक स्त्री अपने पति के साथ सेक्स अपनी इच्छा से करेगी, अपने किचन में अपनी पसंद का खाना बनायेगी या अपने कमरे में अपनी पसंद का पर्दा लगवाएँगी. नारीवाद का मोर्चा संभालने वाली अधिकांश महिलायें सिर्फ सेक्स और कपड़े की आज़ादी की बात करती है जबकि सच तो ये है कि महिलाओं को अपने बच्चे के बारे में स्वतंत्रता निर्णय लेने का अधिकार नहीं, बीमार बच्चे को पति की अनुमति के बिना डॉक्टर के पास भी ले जाने का अधिकार नहीं.
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