रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा कि दशकों से भारत ने कोई युद्ध नहीं लड़ा है इस वजह से भारतीय सेना के प्रति सम्मान में गिरावट आई है. उन्होंने जिला प्रशासन के अधिकारियों को भेजे गए कमांड ऑफिसरों के पत्रों का उदाहरण भी दिया, जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. उनके इस बयान के निहितार्थ पर सवाल उठाते हुए एक नई बहस को जन्म दे दिया है. उनके विरोधियों ने इस बात को भारतीय सेना के गर्व की कहानियों से जोड़कर देखा है.
इससे सेना के प्रति हमारे देश और लोगों के नजरिए को लेकर एक बुनियादी सवाल उठता है, क्या इसकी वजह 1971 के बाद से अब तक सेना का कोई प्रमुख युद्ध न लड़ना है? इन सवालों के जवाब मेरे लिए साफ हैं क्योंकि मैने 22 साल से ज्यादा समय तक सेना में सेवाएं दी हैं. देश के विभिन्न क्षेत्रों में तैनाती के दौरान लोगों के साथ बातचीत में एक विस्तृत अनुभव हुआ, चाहे वो शांति का दौर हो या फिर कोई मिशन.
व्यक्तिगत स्तर पर अभी भी एक सैनिक का सम्मान किया जाता है और बड़े पैमाने पर लोग उन्हें देश के लिए बलिदान देने वालों की शक्ल में ही देखते हैं. कुछ दिनों पहले मैं लोकसभा टीवी के स्टूडियो जा रहा था, रास्ते में मैं टैक्सी ड्राइवर के साथ बातचीत कर रहा था. वह सामान्य था, जब तक उसे यह नहीं पता था कि कुछ साल पहले तक मैं सेना में था. लेकिन उसके बाद उसका रवैया पूरी तरह से बदल गया. सेना के एक अधिकारी के साथ ड्राइव करना सम्मान की बात है, इस विचार को सुनकर मैं विनम्र हो गया. वह ड्यूटी के वक्त फौजियों के सामने आने वाली अनगिनत चुनौतियों और उनके बलिदान के बारे में बातें करने लगा. और आखिर में उसने म्यांमार में भारतीय सेना के छापे के बारे में कुछ खास बातें की.
मैंने व्यक्तिगत और भारतीय सेना के एक अधिकारी के तौर पर भी देखा कि अब तक ज्यादातर लोगों का नजरिया यही है. बहरहाल, यहां पहले उठाए गए सवालों के जवाब नहीं है. और उसी में कठिनाई है.
सेना एक विरोधाभास का सामना करती है, जिसमें व्यक्तिगत तौर पर सैनिकों का मनोबल ऊंचा रहता है. पर जिन संस्थानों को उनकी समस्याओं का...
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा कि दशकों से भारत ने कोई युद्ध नहीं लड़ा है इस वजह से भारतीय सेना के प्रति सम्मान में गिरावट आई है. उन्होंने जिला प्रशासन के अधिकारियों को भेजे गए कमांड ऑफिसरों के पत्रों का उदाहरण भी दिया, जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. उनके इस बयान के निहितार्थ पर सवाल उठाते हुए एक नई बहस को जन्म दे दिया है. उनके विरोधियों ने इस बात को भारतीय सेना के गर्व की कहानियों से जोड़कर देखा है.
इससे सेना के प्रति हमारे देश और लोगों के नजरिए को लेकर एक बुनियादी सवाल उठता है, क्या इसकी वजह 1971 के बाद से अब तक सेना का कोई प्रमुख युद्ध न लड़ना है? इन सवालों के जवाब मेरे लिए साफ हैं क्योंकि मैने 22 साल से ज्यादा समय तक सेना में सेवाएं दी हैं. देश के विभिन्न क्षेत्रों में तैनाती के दौरान लोगों के साथ बातचीत में एक विस्तृत अनुभव हुआ, चाहे वो शांति का दौर हो या फिर कोई मिशन.
व्यक्तिगत स्तर पर अभी भी एक सैनिक का सम्मान किया जाता है और बड़े पैमाने पर लोग उन्हें देश के लिए बलिदान देने वालों की शक्ल में ही देखते हैं. कुछ दिनों पहले मैं लोकसभा टीवी के स्टूडियो जा रहा था, रास्ते में मैं टैक्सी ड्राइवर के साथ बातचीत कर रहा था. वह सामान्य था, जब तक उसे यह नहीं पता था कि कुछ साल पहले तक मैं सेना में था. लेकिन उसके बाद उसका रवैया पूरी तरह से बदल गया. सेना के एक अधिकारी के साथ ड्राइव करना सम्मान की बात है, इस विचार को सुनकर मैं विनम्र हो गया. वह ड्यूटी के वक्त फौजियों के सामने आने वाली अनगिनत चुनौतियों और उनके बलिदान के बारे में बातें करने लगा. और आखिर में उसने म्यांमार में भारतीय सेना के छापे के बारे में कुछ खास बातें की.
मैंने व्यक्तिगत और भारतीय सेना के एक अधिकारी के तौर पर भी देखा कि अब तक ज्यादातर लोगों का नजरिया यही है. बहरहाल, यहां पहले उठाए गए सवालों के जवाब नहीं है. और उसी में कठिनाई है.
सेना एक विरोधाभास का सामना करती है, जिसमें व्यक्तिगत तौर पर सैनिकों का मनोबल ऊंचा रहता है. पर जिन संस्थानों को उनकी समस्याओं का समाधान करना चाहिए, उनका प्रदर्शन खराब रहता है.
रक्षा मंत्री ने अपने बयान में जिस उदाहरण का जिक्र किया है, वह फौजियों की उन समस्याओं से जुड़ा है जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता. जबकि देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में तैनात बटालियन हर रोज एक चुनौती का सामना करती हैं. अक्सर छोटे और दूरदराज के जिलों से आने वाले सैनिक अपने परिवारों के साथ बिताने के लिए लंबी छुट्टी नहीं ले पाते. इसी वजह से उन्हें अपने कानूनी मुद्दों को हल करने का मौका भी नहीं मिल पाता है. और नतीजा ये होता है कि वे अक्सर विवादों का खात्मा करने की कोशिश में लगे रहते हैं.
पहले कमांडिंग ऑफिसर नियमित रूप से जिला प्रशासन से तत्काल कार्रवाई के लिए सम्पर्क में रहा करते थे, और फीडबैक लेते थे, ज्यादातर मामलों में शीघ्र समाधान हो जाता था. ऐसा ही नजरिया उन इलाकों में भी देखा जाता था, जहां सेना को उग्रवाद विरोधी अभियानों के लिए तैनात किया जाता था. मुझे याद है कि 1995 में मैंने एक कंपनी कमांडर के तौर पर चीफ इंजीनियर को केवल एक पत्र लिखकर डोडा जिले के दूरदराज क्षेत्र में बिजली का ट्रांसफार्मर लगवाया था और आज इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.
इस बदलाव के लिए दो बातों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. पहली, सेना की तैनाती की लंबी अवधि के दौरान सीमावर्ती क्षेत्रों और उग्रवाद, आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों में अपील का सीमित होना. न्यासियों के बोर्ड का कानून तेजी से सेना की लंबी तैनाती के लिए लागू होता जा रहा है. इस अवधि में बलिदान के कम मामले और उल्लंघन के दुर्लभ मामले सैनिकों का आंकलन करने के लिए बेंचमार्क बन जाते हैं. अन्य मामलों में लोगों की भावनाएं बड़े राष्ट्रीय उद्देश्यों को बढ़ावा देती हैं. चेन्नई में 1990 में एक युवा अधिकारी के तौर पर मैंने IPKF का बदलाव के लिए रेलवे सम्पत्ति की दीवारों पर नारे लिखना और भारतीय शांति सेना का निर्दोष लोगों की हत्यारी सेना बन जाना देखा. ये घटनाएं मेरे मन पर अमिट छाप की तरह बनी हुई हैं.
दूसरा, जैसा कि रक्षा मंत्री ने अफसोस जताते हुए अक्सर कहा है कि जब सेना एक बाहरी दुश्मन से लड़ती नहीं दिखती तो वह अपनी चमक खो देती है. उनके अधिकारों और विशेषाधिकारों को लेकर सत्ता के गलियारों में और उसके बाहर सवाल उठाए जाते हैं. हैरानी की बात है कि यह प्रवृत्ति भी नई नहीं है. देश को आजादी मिलने से पहले ही रुडयार्ड किपलिंग ने यह नोट किया था:
"युद्ध के समय और उससे पहले नहीं
भगवान और सैनिकों हमें प्यारे हैं.
लेकिन शांति के समय और जब सब ठीक हो,
भगवान भुला दिए जाते हैं और सैनिक भी."
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.