"मेरी बेटी तो कंप्यूटर पर ही खेलती रहती है. बहुत जानती है कंप्यूटर के बारे में."
"मेरा बच्चा तो मोबाइल से खेलता रहता है. सब वही सेट करता है. मुझे तो उतना पता भी नहीं."
"मेरा बेटा तो फेसबुक पर ही रहता है. खाना न मिले तो भी चलेगा, मगर फेसबुक के बिना नहीं चलने वाला."
मुमकिन है आप अपने बच्चों की इसी अंदाज में तारीफ करते हों - और ये देख कर खुश होते हों. लेकिन दुनिया के ज्यादातर पेशेवर ऐसी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते.
फिर क्या सोचते हैं?
ऐसे ज्यादातर पेशेवरों की पसंद 'स्मार्ट क्लास' में नहीं, बल्कि ब्लैक बोर्ड पर पढ़ाई होती है. वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं जहां परंपरागत तरीके से पढ़ाई होती हो. खेल-कूद, क्रिएटिव कार्यकलाप और पढ़ाई के ट्रेडिशनल तरीके अपनाए जाते हों.
खुद तो ये गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के लिए एक से बढ़ कर एक गैजेट्स और एप्लीकेशन बनाते हैं लेकिन अपने बच्चों को इन सबसे दूर रखते हैं. कुछ ऐसे स्कूल हैं जहां 12 साल से कम उम्र तक के बच्चों को मोबाइल, टैबलेट, कंप्यूटर और इंटरनेट से दूर रखा जाता है.
डर किस बात का?
पहले टीवी और अब गैजेट्स. देखा जा रहा है कि बच्चों की एक बड़ी जमात फिजिकल एक्टिविटीज और खेलकूद से दूर होती जा रही है. यही वजह है कि बच्चे मोटापा और तरह तरह की बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं.
एसोचैम के सर्वे के मुताबिक, देश में 8 से 13 साल के करीब 73 फीसदी बच्चे इंटरनेट पर सक्रिय हैं. टीवी और गैजेट्स के चलते बच्चों की जानकारी तो बढ़ रही है लेकिन उसके साइड इफेक्ट्स खतरनाक नतीजे पेश कर रहे हैं.
कितना पसीना बहाते हो?
पिछले साल टीचर्स डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों से पूछा था कि कितने बच्चों को दिन मंब चार बार पसीना निकलता है? फिर मोदी ने सलाह दी कि बच्चों को खूब दौड़-धूप और मस्ती करनी चाहिए ताकि दिन में चार बार पसीना जरूर आए.
अगर आप अपने...
"मेरी बेटी तो कंप्यूटर पर ही खेलती रहती है. बहुत जानती है कंप्यूटर के बारे में."
"मेरा बच्चा तो मोबाइल से खेलता रहता है. सब वही सेट करता है. मुझे तो उतना पता भी नहीं."
"मेरा बेटा तो फेसबुक पर ही रहता है. खाना न मिले तो भी चलेगा, मगर फेसबुक के बिना नहीं चलने वाला."
मुमकिन है आप अपने बच्चों की इसी अंदाज में तारीफ करते हों - और ये देख कर खुश होते हों. लेकिन दुनिया के ज्यादातर पेशेवर ऐसी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते.
फिर क्या सोचते हैं?
ऐसे ज्यादातर पेशेवरों की पसंद 'स्मार्ट क्लास' में नहीं, बल्कि ब्लैक बोर्ड पर पढ़ाई होती है. वे अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं जहां परंपरागत तरीके से पढ़ाई होती हो. खेल-कूद, क्रिएटिव कार्यकलाप और पढ़ाई के ट्रेडिशनल तरीके अपनाए जाते हों.
खुद तो ये गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के लिए एक से बढ़ कर एक गैजेट्स और एप्लीकेशन बनाते हैं लेकिन अपने बच्चों को इन सबसे दूर रखते हैं. कुछ ऐसे स्कूल हैं जहां 12 साल से कम उम्र तक के बच्चों को मोबाइल, टैबलेट, कंप्यूटर और इंटरनेट से दूर रखा जाता है.
डर किस बात का?
पहले टीवी और अब गैजेट्स. देखा जा रहा है कि बच्चों की एक बड़ी जमात फिजिकल एक्टिविटीज और खेलकूद से दूर होती जा रही है. यही वजह है कि बच्चे मोटापा और तरह तरह की बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं.
एसोचैम के सर्वे के मुताबिक, देश में 8 से 13 साल के करीब 73 फीसदी बच्चे इंटरनेट पर सक्रिय हैं. टीवी और गैजेट्स के चलते बच्चों की जानकारी तो बढ़ रही है लेकिन उसके साइड इफेक्ट्स खतरनाक नतीजे पेश कर रहे हैं.
कितना पसीना बहाते हो?
पिछले साल टीचर्स डे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बच्चों से पूछा था कि कितने बच्चों को दिन मंब चार बार पसीना निकलता है? फिर मोदी ने सलाह दी कि बच्चों को खूब दौड़-धूप और मस्ती करनी चाहिए ताकि दिन में चार बार पसीना जरूर आए.
अगर आप अपने बच्चों की गैजेट्स और सोशल मीडिया पर जारी गतिविधियों पर गर्व करते हैं तो थोड़ा सावधान हो जाइए.
इसका मतलब ये नहीं कि ऐसा होने पर निश्चित रूप से खतरनाक नतीजे हो सकते हैं. हर बच्चे की अलग अलग मेधा शक्ति होती है. कुछ बच्चे ऐसे हैं जिनका बचपन से ही उन्हीं चीजों में ज्यादा मन लगता है जिस फील्ड में उन्हें आगे जाना होता है.
लेकिन हां, आपको सोचने के लिए ये एक अहम मौका जरूर है. आप अपने बच्चे को कैसा माहौल दे रहे हैं, एक बार उसे रिव्यू जरूर करें, अगर आप इसकी जरूरत समझें तो.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.