14 Phere Movie Review: मनोरंजक फिल्मों वाली पुरानी कहानी है, लेकिन मनोरंजक है
ओटीटी प्लेटफॉर्म Zee5 पर रिलीज हुई फिल्म '14 फेरे' (14 Phere Movie) की शुरुआत को देखकर प्रियदर्शन की फिल्मों की याद ताजा हो जाती है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी काफी प्रिडिक्टेबल और उलझी हुई लगती है, जो एक जैसी कई फिल्मों के मिश्रण की तरह लगती है.
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आपने अक्सर सुना होगा शादी में सात फेरे होते हैं. सात जन्मों का साथ निभाने के लिए सात कसमें खाई जाती हैं. लेकिन ये शादी जरा हटके है, जिसमें सात नहीं चौदह फेरे होते हैं. सात की जगह चौदह फेरे? ऐसे कैसे? आपके मन में भी ये सवाल उठ रहा होगा. दरअसल इस सवाल का जवाब इस फिल्म की कहानी में रचा-बसा है. तथाकथित खानदानी रसूखदार परिवारों के लिए उनकी परंपरा ही प्रतिष्ठा होती है. अपनी इसी परंपरा और प्रतिष्ठा को बचाए रखने के लिए ये परिवार कई बार अपनों की बलि भी दे देते हैं. यहां इज़्जत के नाम पर हत्या यानि ऑनर किलिंग करना मामूली बात होती है. ऐसे ही परिवारों में जन्में दो प्रेमी जोड़े कैसे एक-दूसरे को दिल दे बैठते हैं और परिजनों की रजामंदी न होते हुए भी उनकी ही मौजूदगी में शादी करते हैं, इसे फिल्म '14 फेरे' में दिलचस्प अंदाज में दिखाया गया है.
विक्रांस मैसी और कृति खरबंदा की फिल्म '14 फेरे' ओटीटी प्लेटफॉर्म Zee5 पर रिलीज हुई है. इसमें गौहर ख़ान, जमील ख़ान, विनीत कुमार, सुमित सूरी, मनोज बख्शी, प्रियांशु सिंह और सोनाक्षी जैसे कलाकार भी अहम भूमिकाओं में हैं. 151 मिनट की इस फिल्म के निर्देशक देवांशु सिंह हैं. फिल्म '14 फेरे' की शुरुआत को देखकर प्रियदर्शन की फिल्मों की याद ताजा हो जाती है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, कहानी काफी प्रिडिक्टेबल और उलझी हुई लगती है, जो एक जैसी कई फिल्मों के मिश्रण की तरह लगती है. निर्देशक देवांशु सिंह सोशल कॉमेडी के जरिए जातिवाद, ऑनर किलिंग और दहेज जैसे कई मार्मिक विषयों को एक साथ बुनने की कोशिश करते हैं, लेकिन दर्शकों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरे नहीं उतर पाते. हां, पुरानी कहानी और कमजोर क्लाइमेक्स के बीच फिल्म मनोरंजक जरूर बन पड़ी है.
फिल्म '14 फेरे' में विक्रांस मैसी और कृति खरबंदा अहम भूमिका में हैं, जिसके निर्देशक देवांशु सिंह हैं.
कहानी: बिहारी राजपूत और राजस्थानी जाटनी की प्रेमकथा
फिल्म '14 फेरे' की कहानी अदिति करवासरा (कृति खरबंदा) और संजय लाल सिंह (विक्रांत मैसी) के आस-पास घूमती रहती है. दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं, लेकिन अदिति संजय की सीनियर है. कॉलेज में ही दोनों के बीच प्रेम संबंध हो जाता है. पढ़ाई पूरी करने के बाद दोनों को एक ही कंपनी में नौकरी मिल जाती है. दोनों लिव इन में रहते हैं, लेकिन शादी का फैसला करते हैं. संजय बिहार के राजपूत परिवार से है, तो अदिति राजस्थान की जाट है. उनके परिवार उनकी जातियों के बाहर किसी भी तरह के शादी-संबंध को बर्दाश्त नहीं करने वाले होते हैं. अदिति चाहती है कि वो कोर्ट मैरिज करके संजय के साथ अमेरिका में सेटल हो जाए, लेकिन संजय अपनी मां को छोड़कर विदेश में नहीं बसना चाहता. वो कहता है कि उसके बिना उनके बूढ़े मां-बाप का क्या होगा. ऐसे में दोनों भारत में ही रहकर शादी की योजना बनाते हैं.
थिएटर करने के शौकीन संजय को आख़िरकार इस समस्या का समाधान भी थिएटर में ही मिलता है. वो एक-दूसरे के परिवारों को नकली माता-पिता से मिलवाकर अपनी शादी करने की योजना बनाते हैं. इसके लिए दो थिएटर कलाकारों की तलाश की जाती है. पिता का किरदार निभाने के लिए एक वेटरन थिएटर आर्टिस्ट अमय (जमील ख़ान) को ढूंढा जाता है. मां का किरदार निभाने के लिए संजय अपने थिएटर ग्रुप की एक्ट्रेस ज़ुबिना (गौहर ख़ान) को मना लेता है. ये दोनों कलाकार पहले संजय के मां-बाप बनकर अदिति के परिवार से मिलते हैं और वहां रिश्ता पक्का करते हैं. इसके बाद अदिति के मां-बाप बनकर संजय के माता-पिता से मिलकर रिश्ता पक्का करते हैं. नकली मां-बाप की तरह नकली रिश्तेदार भी तैयार किए जाते हैं, जो उनके ऑफिस के सहकर्मी होते हैं. योजना के मुताबिक उनकी दो बार शादी होनी होती है.
पहली बार दिल्ली में संजय के असली और अदिति के नकली परिजनों की मौजदूगी में शादी हो जाती है. अदिति अपने ससुराल जाती है. वहां सास के रूप में मां को पाकर बहुत खुश होती है. इधर अदिति के घर में भी उसकी शादी की तैयारी चल रही होती है. इसी बीच संजय के छोटे भाई को उनकी असलियत पता चल जाती है. लेकिन वो परिजनों को बताने की बजाए उनका साथ देता है. नाटकीय घटनाक्रम के बीच अगली शादी जयपुर में होनी होती है. इसमें संजय के नकली और अदिति के असली परिजन शामिल होते हैं. इसी बीच इनका भेद खुल जाता है और अदिति के परिजन बारातियों को दूल्हे-दुल्हन समेत बंधक बना लेते हैं. लंबे संवाद के बीच उनको मारने की कोशिश करते हैं. यही फिल्म का क्लाइमेक्स है. इसके बाद आगे क्या होता है, ये जानकारी दे दी गई, तो फिल्म देखने का मजा खराब हो जाएगा.
फिल्म रिव्यू: विक्रांत के मजबूत कंधों पर टिकी फिल्म
विक्रांत मैसी एक टैलेंटेड और प्रतिभाशाली एक्टर हैं. पूरी फिल्म उनके मजबूत कंधों पर टिकी हुई है. उनकी एक्टिंग, बॉडी लैंग्वेज, आई मूवमेंट और फेस एक्सप्रेशन, सबकुछ शानदार हैं. एक साधारण बिहारी राजपूत लड़के के किरदार को उन्होंने जीवंत कर दिया है, जो अपनी माशूका से प्रेम तो करता है, लेकिन अपने माता-पिता को छोड़ विदेश नहीं जाना चाहता. दुल्हन के लिबास में कृति खरबंदा खूब जंचती हैं. उनकी स्क्रीन पर उपस्थिति आश्चर्यजनक है. लेकिन विक्रांत के अभिनय के सामने बौनी नजर आती हैं. यहां तक कि एक बोल्ड और निडर जाट लड़की के किरदार में उनका हावभाव असरदार नहीं लगता. थिएटर एक्टर के रूप में जमील और गौहर के बीच का संवाद और व्यक्तिगत प्रदर्शन देखने लायक है. उनका ह्यूमर कैरेक्टर के हिसाब से सही है. सरला के रूप में यामिनी दास ने संजय की मां का किरदार बहुत ही शानदार निभाया है. कम बोलकर भी वो फिल्म में अपनी गहरी छाप छोड़ जाती है. रोबिले और ठसकदार राजपूत के किरदार में विनीत कुमार भी गजब लगते हैं.
खुद एक पटकथा लेखक रह चुके निर्देशक देवांशु सिंह से जो उम्मीद थी, उस पर वो खरे नहीं उतरे हैं. उनकी पिछली फिल्म 'चिंटू का बर्थडे' को काफी सराहना मिली, जिसे '14 फेरे' में बरकरार नहीं रख पाए. यदि निर्देशन कसा हुआ होता, तो फिल्म बहुत ही अच्छी होती. रिजू दास की सिनेमैटोग्राफी उम्दा है. राजीव वी भल्ला और JAM8 का संगीत बेअसर है. यहां तक कि फिल्म में एक भी ऐसा गाना नहीं है, जो जुबान चढ़ जाए. कहानी के किरदारों के हिसाब से संगीत भावनाओं की अभिव्यक्ति में भी असफल है. इन सबके बावजूद यह एक पारिवारिक फिल्म हैं, जिसे आप अपने घर में परिवार के साथ बैठकर देख सकते हैं. फिल्म इतनी साफ-सुथरी है कि इसमें सुहागरात में भी नायक नायिक से मुंह फेरकर बात करता है. कुल मिलाकर, फिल्म उन लोगों को निश्चित रूप से पसंद आएगी जो फैमिली ड्रामा देखना पसंद करते हैं.
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