3 चीजें जो अमिताभ बच्चन की सुपर फ्लॉप फिल्म झुंड से हर समाज को सीखनी चाहिए!
नागराज मंजुले की झुंड मई के पहले हफ्ते से ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हो रही है. यह फिल्म हालांकि कारोबारी लिहाज से फ्लॉप हो गई थी मगर इसमें भारतीय समाज के लिए तीन बड़े संदेश हैं. यह संदेश जीवन बदलने वाले हैं.
-
Total Shares
फैंड्री और सैराट जैसी फ़िल्में देने वाले मराठी के निर्देशक नागराज मंजुले की झुंड मार्च के पहले हफ्ते में रिलीज हुई थी. झुंड बायोग्राफिकल स्पोर्ट्स ड्रामा है जो विजय बरसे के जीवन पर आधारित है. अमिताभ बच्चन ने विजय बरसे की मुख्य भूमिका निभाई है. यह फिल्म एक जरूरी कहानी दिखाती है. हालांकि जब फिल्म सिनेमाघरों में आई तो उसे दर्शक नहीं मिले और बहुत मुश्किल से 15 करोड़ से कुछ ज्यादा ही कमा पाई. झुंड मई के पहले हफ्ते से जी 5 के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हो रही है.
नागराज मंजुले की फिल्म कारोबारी लिहाज से भले ही असफल साबित हुई हो और मनोरंजक फिल्मों के फ़ॉर्मूले में सेट ना बैठती हो, बावजूद अपने मकसद में एक कामयाब फिल्म नजर आती है. झुंड दर्शकों को अमीर-गरीब और ऊँच-नीच के भेद को ईमानदारी से समझाती है और रास्ता देती है. फिल्म का सबसे बड़ा हासिल इसे माना जा सकता है. यानी अगर सही मकसद मिले तो तमाम खराब चीजों को बदला जा सकता है. उसे सुधारा भी जा सकता है. हो सकता है कि जो नशाखोरी, अपराध के दलदल में नजर आ रहे हों- उन्हें वहीं छोड़ दिया गया हो. उनकी तरफ से मुंह फेर लिया गया हो.
झुंड में अमिताभ बच्चन के अलावा आकाश तोषार, रिंकू राजगुरु और अंकुश गेडाम जैसे कलाकारों ने अभिनय किया है. यह फिल्म तीन बड़ी बातें समझाती नजर आती है जो समाज में रहने वाले हर किसी के लिए जरूरी सबक की तरह है. खासकर भारत जैसे अस्तव्यस्त सामजिक व्यवस्था वाले देश देश में. जहां लोग एक्सक्यूज में फंसे रहते हैं और मकसद हासिल नहीं कर पाते. आइए जानते हैं झुंड के तीन बड़े जरूरी सबक क्या हैं?
झुंड
#1. हर बार जीतना जरूरी नहीं होता
फिल्म के कथानक में एक चीज बहुत गहराई से आती है कि हर बार जीतना जरूरी नहीं होता है. कई बार जीत की जिद छोड़कर हार भी जाना चाहिए. कई बार जीत की जिद छोड़कर हारना इसलिए जरूरी होता है कि आपके आगे बढ़ने की गति अनावश्यक चीजों की वजह से प्रभावित नहीं होती. आप तात्कालिक संतुष्टि से ज्यादा बड़े लक्ष्य हासिल करते हैं. झुंड की कहानी नागपुर के झोपड़पट्टी में रहने वाले लड़कों की है. लड़के हर तरह के गलत काम में लगे हैं. शराब बेंचते हैं. हर तरह के नशे करते हैं. चोरियां करते हैं. सबका लीडर है अंकुश मेश्राम यानी डॉन. विजय बोराडे की वजह से पैसों के लालच में उन्हें फुटबाल का मकसद मिल जाता है.
डॉन अकडू है. एक दिन वह यूं ही भिड़ जाता है. हालांकि डॉन की गलती नहीं है. बस जातीय या आर्थिक क्लास की वजह उसे निशाना बनाया जाता है. जातीय या आर्थिक उत्पीड़नों के मामलों में ऐसी चीजें रोजाना देखने को मिलती हैं. डॉन मारपीट करता है और पुलिस केस होता है. थाना कचहरी, भागा भागी दिखती है. विजय उसकी जमानत लेते हैं और समझाते हैं कि हर बार जीतना जरूरी नहीं होता. कभी-कभी बड़े मकसद के लिए हार भी जाना चाहिए. स्लम टीम को विदेश में फुटबाल खेलने का मौका मिलता है. आखिर में किसी तरह डॉन का भी पासपोर्ट मिल जाता है और वह मुंबई के लिए निकलता है.
इसी दौरान संभ्या जिससे उसकी भिड़ंत हो चुकी थी उसे रोक लेता है. संभ्या डॉन और उसके दोस्त को जलील करता है. इस बार डॉन अपने बड़े मकसद की वजह से माफी मांगता है और संभ्या की अमानवीय डिमांड को पूरा करता जाता है. हालांकि बात और बिगड़ती डॉन की दोस्त के कॉल पर पुलिस आ जाती है और किसी तरह की अनहोनी नहीं हो पाती. डॉन सही समय पर मुंबई पहुंचकर टीम को जॉइन कर लेता है. संभ्या से दूसरी भिड़ंत में डॉन प्रतिक्रिया देता तो हो सकता है कि वह विदेश जाने की बजाय थाने भी जा सकता था. डॉन के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. वह संभ्या से जीतने की कोशिश में और भी बहुत कुछ हार सकता था.
#2. अर्थाभाव में जो समाज हो, उसे पैसे सही जगह खर्च करने चाहिए
यह भी फिल्म का एक बड़ा और कमाल का संदेश है. असल में नागपुर में आंबेडकर जयंती मनाने का जबरदस्त चलन है. झुग्गी के बच्चे जयंती के दिन डीजे के लिए चंदा मांगते दिखते हैं. वे एक दुकानदार के पास पहुंचते हैं, मगर वह डीजे के लिए चंदा देने से मना कर देता है. दुकानदार कहता है कि जिस काम (डीजे बजाने) से समाज का कोई भला नहीं हो सकता- उसके लिए चंदा नहीं देगा. जयंती पर झुग्गी के बच्चे डीजे बजाते हैं डांस भी करते हैं. बाद में बच्चों को विदेश भेजने में विजय को पैसों की वजह से परेशान नजर आते हैं. एक दो को छोड़कर किसी का भी परिवार खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं है. विजय पैसे जुटाने की कोशिश में दिखते हैं. एक दिन उनके घर वही दुकानदार नोटों की गड्डी लेकर पहुंचता है पैसे देता है. जबकि उसने चंदा नहीं दिया था. दुकानदार कहता है कि उसने इन लड़कों को बेहतर होते देखा है. और इस नेक काम में मदद करके उसे अच्छा लगेगा. यह फिल्म का एक बहुत सकारात्मक संदेश है.
अमिताभ बच्चन.
#3. किसी भी परिस्थिति में हताश नहीं होना चाहिए, कभी भी बदल सकती है जिंदगी
नागराज ने दिखाया है कि स्लम फुटबाल इतना लोकप्रिय होता है कि झुग्गी के बच्चे एक टूर्नामेंट करते हैं. फिर एक दृश्य आता जिसमें एक युवा रेल की पटरियों पर झुककर खड़ा है. असल में वह आत्महत्या के लिए यहां आया हुआ है. वह बस सुसाइड करने ही वाला है कि अचानक से मन बदल जाता और कूदकर जान बचा लेता है. वह जीवन से किन्हीं बातों को लेकर निराश जरूर है पर उसमें चीजों को गौर से देखने की अद्भुत क्षमता है. इसी वजह से उसकी जान बचती है. वह रोता है और पटरियों के किनारे-किनारे वापस जाने लगता है. बावजूद कि उसके पास कोई मकसद मौका या जीने की वजह नहीं है.
इसी दौरान उसे कमेंट्री सुनाई देती है और वह फुटबाल मैच देखने पहुंच जाता है. अपने जैसे लड़कों को खेलते देख उसे अच्छा लगता है. इसी दौरान एक टीम परेशान है कि उसका गोलकीपर अब तक नहीं आया. मैच का क्या होगा. सुसाइड की कोशिश करने वाला लड़का कहता है कि क्या वह गोली के रूप में खेल सकता है. चूंकि विकल्प नहीं था तो उसे ले लिया जाता है. चूंकि फोकस उसका बढ़िया था- वह कुछ गोल सफाई से रोकता है. विजय उससे प्रभावित होते हैं. इस तरह सुसाइड करने जा रहे लड़के को अचानक मकसद मिलता है जो उसकी लाइफ बदलती दिखती है. निराश नहीं होना चाहिए. कभी भी किसी की भी जिंदगी बदल सकती है.
आपकी राय