बॉक्स ऑफिस पर लाल सिंह चड्ढा की नाकामी बॉलीवुड को कौन से 5 सबक सिखा रही है
आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा की नाकामी में बॉलीवुड के लिए पांच बड़े सबक छिपे हैं. बॉलीवुड को समझना होगा कि अब पारंपरिक ट्रिक्स से काम नहीं चलने वाला है. ग्लोबल ऑडियंस के दौर में उसे बेहतर कंटेंट चाहिए. राजनीतिक इफ बट के लिए उसके पास संसद और विधानसभाएं हैं.
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ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान के करीब-करीब चार साल बाद आमिर खान 'लाल सिंह चड्ढा' के साथ दर्शकों के बीच में थे. रिलीज के महीनों पहले अद्वैत चंदन के निर्देशन में बनी फिल्म का प्रमोशन भी शुरू हो गया था. रक्षा बंधन के दिन फिल्म रिलीज हुई. ट्रेड सर्किल में तमाम वजहों से तय माना जा रहा था कि लाल सिंह चड्ढा ही वह फिल्म है जो कोरोना महामारी के बाद बॉलीवुड को 400 करोड़ क्लब की फिल्म देने जा रही है. फिल्म के 400 करोड़ कमाई कर लेने की वजहें थीं. पिछले एक दशक में आमिर की लगभग सभी फ़िल्में कारोबार के लिहाज से बॉलीवुड की ब्लॉकबस्टर रही हैं.
गजनी (100 करोड़ क्लब), 3 इडियट्स (200 करोड़ क्लब), धूम 3 (250 करोड़ क्लब), पीके (300 करोड़ क्लब) और दंगल (350 करोड़ क्लब) ने दर्शकों का जबरदस्त मनोरंजन किया. सभी फिल्मों ने घरेलू बॉक्स ऑफिस पर कमाई के कीर्तिमान तो बनाए ही थे, विदेशी बॉक्स ऑफिस पर जमकर कमाई भी की. यहां तक कि एक्टर की पिछली फिल्म 'ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान' ने पहले दिन सबसे ज्यादा ओपनिंग (52.25 करोड़) के मामले में कीर्तिमान बना दिया था. देसी बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की कुल कमाई 150 करोड़ से ज्यादा रही.
मध्यम बजट में बनी सीक्रेट सुपरस्टार भले 70 करोड़ से ज्यादा नहीं कम पाई मगर फिल्म ने ओवरसीज मार्केट में कई सौ करोड़ कमाने में सफलता पाई. वैसे इसमें चीन का कंट्रीब्यूशन रिकॉर्डतोड़ था. कहां तो 400 करोड़ की उम्मीद में रिलीज हुई लाल सिंह ने पहले तीन दिन में 30 करोड़ से कम कमाई ही कर पाई है. ट्रेंड से तो यही लग रहा कि फिल्म पांच दिन के लंबे त्योहारी वीकएंड में 50 करोड़ भी नहीं कमा पाएगी.
लाल सिंह चड्ढा में आमिर खान.
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि फिल्म बायकॉट कैम्पेन की वजह से ही फ्लॉप हुई है. क्योंकि इससे पहले आमिर और भंसाली की कई फिल्मों के खिलाफ कैम्पेन दिखे बावजूद फिल्मों ने जबरदस्त कामयाबी हासिल की. आइए जानते हैं लाल सिंह चड्ढा के बॉक्स ऑफिस में बॉलीवुड के लिए कौन से पांच सबक छिपे हैं:-
#1. महानायकों का स्टारडम ख़त्म हो चुका है
बॉलीवुड में सिनेमा कारोबार पूरी तरह से महानायकों के आभामंडल के नीचे दबा नजर आ रहा था. दक्षिण भारतीय सिनेमा उद्योग ने जब तक दूसरे क्षेत्रों में जाने का जोखिम नहीं उठाया था और कोरोना महामारी के बाद फ़िल्में देखने के एक माध्यम के रूप में ओटीटी की लोकप्रियता से पहले बॉलीवुड की फिल्मों का कारोबार स्टार केंद्रित था.
सिनेमा के स्टार केंद्रित होने की वजह से मनमानापूर्ण रवैया दिखता था. नायक ही फिल्मों की कहानी से लेकर कास्टिंग तक तय करते थे. कुछेक नामों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश लेखक-निर्देशक शोपीस भर थे. यह भी देखने को मिला कि निर्देशक आधी फ़िल्में करने के बाद सितारों की मनमानी की वजह से प्रोजेक्ट से अलग हो जाया करते थे.
मनमानी लंबे समय से थी. यहां तक कि किसी फिल्म का बड़ा स्टार अच्छी एक्टिंग करने वाले एक्टर्स के सीन्स तक कटवा दिए जाते थे. कुछ सितारों का होना भर फिल्मों की सफलता की गारंटी बन गया था. लेकिन दक्षिण और ओटीटी के प्रतिस्पर्धा में आने के बाद अच्छे कंटेंट से बॉलीवुड के स्टारडम की हवा निकल गई. अब तक शाहरुख खान, अजय देवगन, सलमान खान, कंगना रनौत, जॉन अब्राहम, रणबीर कपूर, रणवीर सिंह, वरुण धवन जैसे ना जाने कितने सुपर सितारों की फ़िल्में नकारी जा चुकी हैं.
सलमान खान की राधे: योर मोस्ट वॉन्टेड भाई, अक्षय की लगातार तीन फिल्मों की नाकामी और आमिर खान लगातार दूसरी नाकामी में साफ़ और सीधा संदेश है- स्टारडम वाला दौर ख़त्म हो चुका है. नायकों को चाहिए कि उम्र के हिसाब से भूमिकाओं को चुनें और अपनी भूमिका तय करें कि वे एक्टर हैं या कुछ और.
#2. जरूरी नहीं कि रीमेक भी मूल फिल्म की तरह ही हिट हो
बॉलीवुड में सफलता का एक फ़ॉर्मूला सफल फिल्मों की कॉपी बनाने को लेकर दिखा. खासकर सलमान खान की वॉन्टेड के जरिए यह फ़ॉर्मूला का रूप लेता दिखा. कुछ रीमेक फिल्मों की कामयाबी के बाद धड़ाधड़ फ़िल्में बनने लगीं. मगर जो कंटेंट अच्छे थे उन्होंने कामयाबी पाई और जो कंटेंट दर्शकों की उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाए, टिकट खिड़की पर डूब गई.
इसमें भी दक्षिण से प्रतिस्पर्धा, दक्षिण की तमाम फिल्मों के डब वर्जन का टीवी प्रीमियर जिसमें अधिकांश फ़िल्में बॉलीवुड में भी बनी (उदाहरण के लिए जर्सी) और ओटीटी जहां मूल फ़िल्में उपलब्ध थीं- बड़ा योगदान है. हिंदी दर्शकों को डब की तुलना में मूल कई फ़िल्में ज्यादा बेहतर लगीं. भारत (ओड टू माई फादर का रीमेक) और राधे योर मोस्ट वॉन्टेड भाई ( द आउट लॉज का रीमेक) जैसी फिल्मों का उदाहरण लिया जा सकता है. वैसे लिस्ट बहुत लंबी है.
लाल सिंह चड्ढा भी फॉरेस्ट गंप का रीमेक है. फॉरेस्ट गंप की तुलना में लाल सिंह चड्ढा के कई पहलू (कहानी, बोल्डनेस और एक्टिंग), दर्शकों को पसंद नहीं आए. यानी बॉलीवुड रीमेक के जिस फ़ॉर्मूले पर दौड़ रहा था उसका सीधा संदेश यही है कि किसी हिट फिल्म का रीमेक कारोबारी सफलता की गारंटी नहीं है. चाहे कबीर सिंह हो दृश्यम या फिर धमाका- रीमेक वही सफल होगी जिसका कंटेंट दर्शकों को पसंद आएगा.
#3. भारी भरकम बजट की फिल्म नहीं बढ़िया कंटेंट चाहिए
बॉलीवुड में एक ट्रेंड यह भी दिखा है कि भारी भरकम बजट से फिल्मों को भव्य बनाकर दर्शकों को आकर्षित किया जा सकता है. दक्षिण में फिल्मों की भव्यता पर दिल खोलकर पैसे खर्च किए जाते हैं. लेकिन वहां के उद्योग में बॉलीवुड से अलग कम होता है. वहां फिल्म में जितनी नायक की मर्जी चलती है उतनी ही मर्जी लेखक, संगीतकार, गायक, संपादक और तकनीकी सहयोगियों की चलती है. निर्देशक सबको लीड करता है और निर्माता पैसे खर्च करता है.
बॉलीवुड में बड़े सितारों की फिल्म का बजट तो बढ़ जाता है मगर दूसरी चीजों में स्वतंत्रता नहीं दिखती. और निश्चित ही इसका असर कंटेंट पर पड़ता है. लाल सिंह चड्ढा में भी आमिर की मर्जी ज्यादा दिखती है. अद्वैत चंदन के साथ एक सुपरहिट फिल्म करने के बावजूद वह उनके कौशल पर भरोसा नहीं करते और उनका टेस्ट तक लेते हैं. गंगूबाई काठियावाड़ी जैसी फ़िल्में इसलिए चल जाती हैं कि वहां संजय लीला भंसाली जैसे दिग्गज निर्देशक अपने तरीके से फिल्म बनाते हैं.
बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, धाकड़ और लाल सिंह चड्ढा जैसी भारीभरकम बजट में बनी फिल्मों की असफलता को लेकर बताने की जरूरत नहीं है कि इनका बजट तो बहुत बढ़िया था लेकिन कंटेंट में बजट की अपेक्षा कमाई करने का दम ही नहीं था.
#4. त्योहारी वीकएंड बॉलीवुड के मन का संतोष भर था और कुछ नहीं
बॉलीवुड निर्माताओं की एक धारण यह भी है कि त्योहारी माहौल में लंबे चौड़े वीकएंड में फ़िल्में रिलीज करने से कारोबारी फायदा मिलता है. होली, रक्षा बंधन, स्वतंत्रता दिवस, दशहरा, दीपावली, क्रिसमस और न्यूईयर बड़े इवेंट हैं. फिल्मों की रिलीज के लिए मारामारी दिखती है. अगर इस साल बॉलीवुड की कई फिल्मों का कारोबार देखें तो त्योहारी वीकएंड में रिलीज धारणा भर के अलावा कुछ भी नहीं दिखती.
लाल सिंह चड्ढा और रक्षा बंधन, स्वतंत्रता दिवस के उत्सवपूर्ण माहौल में गुरुवार को रिलीज हुईं. फिल्म जिस दिन आई उस दिन रक्षा बंधन की छुट्टी भी थी. शुक्र, शनि और रविवार का वीकएंड था ही. सोमवार को स्वतंत्रता दिवस के रूप में भी छुट्टी है. कुल मिलाकर पांच दिनों का लंबा चौड़ा वीकएंड था. मगर छुट्टियों के होने के बावजूद हिंदी पट्टी में दर्शक फिल्म देखने नहीं निकले.
जबकि पिछले कई महीनों में नॉन हॉलिडे पर रिलीज हुई दक्षिण, हॉलीवुड यहां तक कि बॉलीवुड की कुछ मध्यम बजट की फिल्मों ने कंटेंट की वजह से उम्दा कमाई की. कारोबारी लिहाज से त्योहारी वीकएंड में फ़िल्में रिलीज करना बॉलीवुड निर्माताओं के मन का संतोषभर है और कुछ नहीं. इसका फायदा उसी स्थिति में मिलता है जब कंटेंट दर्शकों को प्रभावित करे.
#5. जनभावनाओं की भी अहमियत है
लाल सिंह चड्ढा की नाकामी के पीछे सबसे अहम संदेश यह है कि बॉलीवुड के फिल्ममेकर्स को जन भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए. किसी मुद्दे पर दक्षिण के सितारों की सार्वजनिक प्रतिक्रियाएं 'निजी' नजर नहीं आती. लेकिन कुछ साल पहले तक बॉलीवुड के सितारे नेताओं की तरह चीजों की 'निजी' व्याख्या करते दिखते हैं. कई बार दिखा है जब उनकी व्याख्याओं सार्वजनिक व्यवहार से जनभावनाओं को ठेस पहुंचा हैं.
पक्षपातपूर्ण टिप्पणियां, एरोगेंस, फैन्स पत्रकारों के साथ बॉलीवुड सितारों का दुर्व्यहार भी बॉलीवुड के खिलाफ जाता दिख रहा है. आमिर की कई टिप्पणियां धार्मिक आधार पर लोगों को पक्षपातपूर्ण लगी. पाखंड, रूढ़ीवाद के नाम पर उन्होंने हमेशा एक ख़ास धर्म पर टिप्पणियां तो की, लेकिन दूसरे धर्मों से जुड़े पाखंड और रूढ़ीवाद पर पब्लिक डिबेट के बावजूद उनकी टिप्पणियां कभी देखने को नहीं मिलीं.
सार्वजनिक व्यवहार, नशीली वस्तुओं के प्रचार को लेकर भी लोगों में गुस्सा दिखा है. लाल सिंह चड्ढा की नाकामी का एक संदेश यह भी है कि बॉलीवुड सितारों को भेदभावपूर्ण टिप्पणियों से बचना चाहिए जो जनभावनाएं आहत करने वाली साबित होती हैं.
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