A Thursday Review: होस्टेज ड्रामा के बीच कैपिटल पनिशमेंट है एक बड़ा मुद्दा!
A Thursday फिल्म की शुरुआत होती है डे केयर में बच्चों की खिलखिलाहट के बीच. किन्तु पंद्रह मिनट के भीतर ही फिल्म का मिजाज़ बदलने लगता है, जब एक वीडियो मेसेज सोशल मिडिया के बीच आता है - 'मेरी पुलिस से कुछ डिमांड्स है और मैंने 16 बच्चों को होस्टेज बना लिया है.' कह सकते हैं फिल्म में यामी ने अपना बेस्ट दिया है.
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बहज़ाद खम्बाटा जिन्होंने 2019 में ब्लैंक फिल्म में क्रिटिक्स से तारीफ बटोरी और ओह माय गॉड में असिस्टेंट डाइरेक्टर के तौर पर काम किया अब ले कर आएं हैं - A Thursday. इस थर्स्डे को डिज़्नी हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई यह फिल्म ए वेडनेसडे का सीक्वल नहीं है हलाकि टेम्पलेट कुछ कुछ वैसा ही है. फिल्म में किरदार आम से लोग और बेहतरीन कलाकार हैं. शुरू में आपको एक फैमिली या सोशल फिल्म का सा एहसास होगा लेकिन अगले पंद्रह मिनट के भीतर ही फिल्म दो पैरलेल लेवल पर चलने लगती हैं. क्यूट यामी और होस्टेज यामी ! मुम्बई में बेस्ड फिल्म में उस दिन शहर में प्रधानमंत्री का दौरा है. प्रधानमंत्री माया राजगुरु के किरदार में डिम्पल कपाड़िया का रोल औसत किन्तु महत्वपूर्ण है. नेहा यानि यामी गौतम प्लेस्कूल की ओनर है वहीं उनके मंगेतर रोहित मीरचंदानी यानि करणवीर शर्मा क्रिमिनल लॉयर हैं.
फिल्म अ थर्स्डे में एक्टर यामी गौतम ने अपने करियर में अब तक की सबसे बेस्ट एक्टिंग की है
फिल्म की शुरुआत होती है डे केयर में बच्चों की खिलखिलाहट के बीच. नैना टीचर यानि की यामी गौतम का मुस्कराता चेहरा और बच्चों के प्रति उनका प्यार. किन्तु पंद्रह मिनट के भीतर ही फिल्म का मिजाज़ बदलने लगता है, जब नैना टीचर का वीडियो मेसेज सोशल मिडिया,पुलिस और डे-केयर के पेरेंट्स के बीच आता है- 'मेरी पुलिस से कुछ डिमांड्स है और मैंने 16 बच्चों को होस्टेज बना लिया है.'
इस मेसेज के साथ ही फिल्म एक दूसरी ओर मुड़ जाती है. यामी गौतम की पहली डिमांड में पांच करोड़ रूपये और जावेद खान यानि अतुल कुलकर्णी एक पुलिस अधिकारी से ही बात करने की ज़िद,कहानी में किसी और कहानी के होने का अंदेशा देता है . होस्टेज सिचुएशन की सोशल अपडेट नेहा के फेसबुक अकाउंट पर लोगों को मिलती है.
होस्टेज ड्रामा में नेहा न सिर्फ पैसा और कुछ खास लोगो को पकड़ने की डिमांड करती है बल्कि एक समय पर भारत के प्रधानमंत्री से बात करने की मांग भी रखती है, जो कि कहानी को थोड़ा लचर सा बना देती है. फिल्म के अंत तक आप भारत के उस घिनौने सच का सामना करते है जिसे देख कर भी हम अनदेखा करते रहे हैं.
यामी का किरदार यानि नेहा बचपन में बलात्कार का शिकार हुई है. बलात्कारी और कोई नहीं बल्कि उनके स्कूल बस का ड्राइवर है जिसे पुलिस भी पकड़ नहीं पाती. इस ट्रामा इस ज़ख्म को ले कर ही वो बड़ी होती है और कहीं न कहीं मानसिक तौर पर उस गुस्से और हताशा के पिंजरे में जकड़ी रहती है. सालों बाद उस बलात्कारी को देख उसे पकड़ने और सज़ा दिलवाने के इरादे से ये होस्टेज का खेल रचती है.
पुलिस अफसर जावेद खान वही पुलिस वाले हैं जिन्होंने एक बलात्कार के केस पर काम करने से ज़्यादा किसी हाई प्रोफ़ाइल केस पर काम करना ज़रूरी समझा. वो बलात्कारी सज़ा से बच जाता है . अंत तक कहानी में यामी के हाथों बलात्कारी का क़त्ल होता है. कहानी आपको अच्छी है और दर्शक को बांधने में भी कुछ हद तक कामयाब होती है, लेकिन इससे ए वेडनेसडे वाली उम्मीद न रखें उस कसावट की कमी दिखती है.
बैकग्राउंड म्युज़िक अच्छा है.होस्टेज की डिमांड करती हुई यामी गौतम किसी साइकोपैथ की झलक देने में कामयाब भी होती है. आप जानते है की फिल्म की कहानी सच नहीं लेकिन फिर भी कुछ बातें सच्ची और अच्छी लगती है- एक प्रेग्नेंट पुलिस अफसर जो फिल्ड पर काम करती हुई दिखाई देती है. नेहा धूपिया इस किरदार में सहज लगतीं हैं. हालाँकि इसे कितने देखेंगे नहीं पता.
एक अधिकारी का यह कहना की, प्रधानमंत्री माया राजगुरु यानि डिम्पल कपाडिया का 12 बच्चों की जान के बदले होस्टेज से बात करने को तैयार होना उनकी महिला होने की कमज़ोरी और अति भावनात्मकता की निशानी है- यह समाज की आमतौर पर महिला की तार्किक बुद्धि पर प्रश्न चिन्ह लगाने की सोच है. किन्तु इस प्रश्न के काट में माया राजगुरु का कहना कि,'इमोशन कैन बी एन एसेट' बहुत ज़रूरी है.
मीडिया की सच्चाई भी बखूबी दिखाई गयी है. कैसे किसी भी संवेदनशील मुद्दे को केवल खबर बना कर पोल करवा कर न्यूज़ चैनल किस तरह से टीआरपी की रेस लगते हैं यह देखने लायक है . लेकिन फिर भी रियल लाइफ मिडिया की झलक नहीं मिली क्योंकि असल में तो मीडिया एक ट्वीट एक पोस्ट पर पूरे परिवार को पागल, देशद्रोही पाकिस्तानी करार कर देती है ! इस मुकाबले फिल्म की मीडिया शरीफ है!
यूं तो डिप्रेशन पर खुल कर बात होने लगी है लेकिन आज भी समाज का एक बड़ा तबका, एंग्जायटी डिप्रेशन को पागलपन और एंगर इशू का नाम दे कर दरकिनार कर देते हैं. सरकारी तंत्र की कमियां, वीआईपी कल्चर, रेप जैसे घिनौने अपराध में भी पुलिस की लचरता आदि भी आप देखना चाहे तो ज़रूर दिखेंगी.
फिल्म के अंत में स्क्रीन पर आपको नज़र आता है ये - Since you have started watching this film as per statistics 8 women have been raped in our country.
ये वो आंकड़ा है जो आधिकारिक है. घरों और रिश्ते की आड़ में होने वाले बलात्कार तो पुलिस तक पहुंच भी नही पाते और अपराधी बेशर्मी से मुस्कराता उस लड़की के घर मे ही चाचा ताऊ मामा भाई बन कर बैठा रहता है. नारी सुरक्षा के तमाम पहलुओं पर नज़र डालते हुए बलात्कार का नाम ही रोंगटे खड़े करने वाला होता है.
ये मात्र किसी नारी की अस्मिता से खिलवाड़ या ज़ोर जबरदस्ती से शारीरिक प्रताड़ना है बल्कि उसके आत्मसम्मान की धज्जियां उड़ाने और उसे सिरे से रौंदने का नाम है.किसी बच्ची से होने वाला ऐसा कृत्य उसे जीवनभर के लिए एक नासूर दे हटा है जिसकी टीस कभी कम नहीं होती.
फ़िल्म में नेहा जैसवाल के किरदार का अपने बलात्कारी को मारना एक साफ संदेश है कि कोई भी पीड़िता अपने अपराधी के लिए केवल एक चाह रखती है - कैपिटल पनिशमेंट यानी मौत. ये मुद्दा जितने ज़ोरों से उठना चाहिए उतने ज़ोरों से उठता नहीं.
आज भी भारत की अदालतें बलात्कारी से पीड़िता के विवाह को एक हल या सज़ा के रूप में देखते हैं. यदा कदा सज़ा होती है किंतु वह बलात्कार के आंकड़ों से मेल नही खाती. तो बलात्कार हो रहे है और अपराधी अगले शिकार की तलाश में खुला घूम रहा है. ऐसे में रेप के कैपिटल पनिशमेंट की मांग रखती हुई यह फिल्म एक ज़रूरी फिल्म है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.
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