आमिर खान की लगान 20 साल बाद भी फ्रेश है, 5 कारण...
लगान की पूरी कहानी काल्पनिक है. लेकिन इतनी सशक्त और बांध कर रखती है कि कई मर्तबा लोग ऐतिहासिक घटना मानने की भूल कर बैठते हैं.
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लगान वैसे तो आम बॉलीवुड फिल्मों की तरह एक सामान्य कहानी है जिसमें प्रेम त्रिकोण, बढ़िया सा संगीत, नाच गाना, थोड़ा बहुत कॉमिक अंदाज, विद्रोह और प्रतिशोध को दिखाया गया है. मगर भारत के सामजिक ढांचे, क्रिकेट और ब्रिटिश राज की दमनकारी गतिविधियों में इन्हीं तत्वों को कुछ इस तरह गूंथा गया कि एक कालजयी फिल्म सामने आ जाती है. लगान को बने 20 साल हो गए. इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती ही यही है कि हर दौर में इसे बार-बार देखने के बावजूद हमेशा ताजगी का एहसास होता है.
लगान की कहानी चंपानेर रियासत के एक गांव की है. कई साल से सूखे की मार झेल रहा गांव परेशान है. इतना की अंग्रेजों को लगान देने की स्थिति में नहीं है. सरपंच गांव के लोगों को लेकर राजा से मोहलत की गुहार लगाने गया है. इसी दौरान एक घटना से अहंकार में डूबा ब्रिटिश अफसर भुवन (आमिर खान) को क्रिकेट मैच में खेलने की चुनौती देता है. शर्त है- जीत पर लगान माफ़ और हारने पर तीन गुना टैक्स गांव वालों को भरना पड़ेगा. भुवन शर्त मान लेता है. शर्त से पहले क्रिकेट का खेल भोले-भाले भुवन को जितना आसान दिख रहा था हकीकत में वो काफी पेंचिदा था.
मनमानी शर्त के लिए तैयार हो गए भुवन को लेकर गांव में तीखा विरोध होता है. हालांकि उसकी विधवा मां और प्रेमिका गौरी (ग्रेसी सिंह) फैसले के साथ हैं. धीरे-धीरे गांव के कुछ लोग भुवन के साथ आते हैं. इस बीच ब्रिटिश कैप्टन एंड्रू रसेल (पॉल ब्लैकथोर्न) की बहन एलिजाबेथ रसेल (शैली) भुवन की ईमानदारी, भोलेपन और आत्मविश्वास से प्रभावित होकर गांववालों को चोरी छिपे क्रिकेट के नियम कायदे और दूसरे बेसिक प्रशिक्षण देती है. एलिजाबेथ, भुवन को मन ही मन प्यार भी करने लगती है. गौरी के अलावा भुवन के प्रति एलिजाबेथ के प्रेम को कोई भांप नहीं पाता. गौरी को इस बात से चिढ़ भी है. तमाम उतार-चढ़ाव के बाद क्रिकेट से बिल्कुल अनजान भुवन की टीम वो अनहोनी कर देती है जिसकी कल्पना ब्रिटिश कैप्टन और उनके साथियों ने सपने में भी नहीं की थी.
आइए उन वजहों पर विस्तार से जानते हैं जो लगान को एवरग्रीन फिल्म बनाती हैं:-
#1. वास्तविकता के बिल्कुल करीब काल्पनिक कहानी
एपिक स्पोर्ट्स म्यूजिकल ड्रामा लगान में साल 1900 से पहले का तत्कालीन भारतीय राज और समाज दिखाया गया है. हालांकि पूरी कहानी काल्पनिक है. लेकिन इतनी सशक्त और बांध कर रखती है कि कई मर्तबा लोग ऐतिहासिक घटना मानने की भूल कर बैठते हैं. दरअसल, लगान भले ही काल्पनिक थी, वावजूद वास्तविक सामजिक घटनाओं और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समेटे हुए थी. बात चाहे भारतीय समाज में जातीय-धार्मिक ताने बाने या मौजूदा सियासी हालात की. हर बिंदु को उसमें समेटा गया. स्वतंत्रता आंदोलन में हर जाति धर्म के सामूहिक प्रयास को उकेरा गया. उनकी पीड़ाओं को जगह दी गई. फिक्शन सर्वकालिक होता है, लेकिन लगान में वह हकीकत के इतना करीब है कि ध्यान में ही नहीं आता कि अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम की अगुआई करने वाला भुवन एक काल्पनिक घटना का काल्पनिक पात्र भर है.
#2. अंग्रेजों के दिए जख्म जो लगान देखकर याद आ जाते हैं
लगान में तत्कालीन ग्रामीण भारत और समाज की सार्वभौम चिंताएं थीं. सिर्फ किसानों के संघर्ष भर पर नहीं बल्कि व्यापक स्तर पर भूमिहीन, पशुपालक समाज और दूसरे दक्ष कारीगर/कामगारों के उत्पीड़न की कहानी भी है. ब्रिटिश राज के अमानवीय दमन के खिलाफ भुवन के साथ मुस्लिम किसान (इस्माइल), लोहार (लाखा और अर्जन) और वैद्य (ईश्वर काका) खड़े हैं. समाज से बहिष्कृत किया गया दलित कचरा भी जरूरत पड़ने पर सबसे बड़ा ट्रंप कार्ड बनता है. दूर शहरी सिख देवा सिंह सोढ़ी भी अंग्रेजों से संघर्ष की खबर सुनकर सामूहिक प्रयास में साथ मिल जाता है.
चंपानेर के राजा भी दिल से गांववालों के पक्ष में हैं पर अंग्रेजी राज में उनकी स्थिति ऐसी नहीं कि कोई फैसला कर सके या उसे प्रभावित कर सकें. उनके पास सिर्फ दिखावे की उपाधि और राजसी ठाठ-बाट भर बचा है. एक जगह अंग्रेज अफसरों के साथ मैच का लुत्फ़ लेते राजा गांववालों के खेल से इतना खुश होता है कि तुरंत गले में पहना मोतियों का हार न्योछावर करना चाहता है. उसके हाथ गले तक बढ़ते भी हैं मगर अगले ही पल आसपास अंग्रेजों को देख हाथ वापस चले जाते हैं और चेहरे पर मुस्कराहट की चादर में बेबसी का दर्द दिखता है. भारतीय समाज ने अंग्रेजों के जंगल राज का जख्म अभी तक भुलाया नहीं है. फिल्मों का दमन विरोधी बैकग्राउंड तो हमेशा हिट होता है, लेकिन लगान ने भारतीयों के भीतर अंग्रेजों से हिसाब बराबर करने की कसक को मौका दिया.
सही मायने में लगान को हर दौर में शोषण के खिलाफ प्रतिनिधि फिल्म भी मान सकते हैं जो धर्म-जाति और भाषा से ऊपर उठकर व्यापक स्तर पर भारतीयों की आवाज का प्रतिनिधित्व करती है. शोषण के खिलाफ लगान की भावुकता हमेशा फ्रेश नजर आती है.
#3. प्रेम में उत्सर्ग, लीक से हटकर चित्रण
लगान में प्रेम त्रिकोण है. जबकि हकीकत में दो प्रेम त्रिकोण है. भुवन और गौरी एक-दूसरे को प्रेम करते ही हैं. मगर गौरी के प्रति लाखा का भी एकतरफा प्रेम है. निश्चित ही गौरी और भुवन के प्रेम में परस्पर समर्पण और सम्मान है. सभी के प्रेम में बिछोह, करूणा, उत्सर्ग समाया हुआ है. गौरी को बेहद चाहने वाले लाखा के प्रेम में प्रतिशोध भी दिखता है, लेकिन वो किसी भी रूप में अश्लील नहीं है. लगान में दर्शाया गया प्रेम अंत तक अपने अपने हिस्से की कसक छोड़ जाता है.
एलिजाबेथ चंपानेर छोड़ने तक भुवन से नहीं कह पाती कि वो उससे प्रेम करती है. कृष्ण के लिए राधा की तरह इतना प्रेम करती है कि भुवन की यादों के सहारे ताउम्र अविवाहित रहती है. लाखा भी गौरी को बेहद चाहता है. यही वजह है कि भुवन से प्रतिशोध लेना चाहता है. लेकिन गांव के लिए वो अपने प्रेम का उत्सर्ग कर देता है. ये भी प्रेम का एक महान रूप है, बॉलीवुड मसाला कहानियों से अलग यहां विछोह के बाद भी जीवन की गुंजाइश बनी हुई है. आम मुम्बइया फिल्मों की तरह लगान के त्रिकोण प्रेम में नाकामी की वजह से यहां ना तो हत्याएं होती हैं ना ही किसी नायक-नायिका की मौत होती है.
दर्शक गौरी और भुवन के मिलन से बार-बार खुश तो होते हैं, लेकिन एलिजाबेथ का बिछोह उन्हें टीस से भर देता है. लगान में प्रेम का ये रूप बार-बार देखने पर भी रोचक लगता है.
#4. दिल थाम देने वाले क्रिकेट मुकाबले ने बनाया दिलचस्प
फिल्मों में किसी स्पोर्ट्स मुकाबले को शामिल करना नई बात नहीं है. लगान से पहले दिलीप कुमार की नया दौर में घोड़ा गाडी रेस और आमिर की ही जो जीता वही सिकंदर में साइकिल रेस दिखाया जा चुका है. लगान में क्रिकेट को शामिल किया गया. एक ऐसा खेल जिससे हर भारतीय जुड़ाव महसूस करता है. हकीकत में क्रिकेट मैच लगान की सबसे बड़ी यूएसपी है. दर्शकों को लगता है कि वो टीम इंडिया का ही कोई मैच देख रहे हों. लगान की हर गेंद और हर शॉट पर दर्शक वैसी ही प्रतिक्रियाएं देते हैं जैसे वास्तविक मैचों के दौरान होती है. अनाड़ियों की टीम का खिलाड़ियों को चित करना, इससे ज्यादा सुकून देने वाला पल क्या हो सकता है सिनेमा के दर्शकों के लिए.
आमिर के अलावा जिन कलाकारों ने भुवन की टीम में जगह पाई, वो कोई जानामाना चेहरा नहीं थे. इसीलिए सभी ने अपना रोल बखूबी निभाया, और इस कल्पना को मजबूत किया कि शायद ऐसे ही कभी आम दिखने वाले भारतीयों ने अंग्रेजों को मजा चखाया होगा. यह कहने में कोई शक नहीं कि लगान में अगर अंग्रेजों और गांववालों के बीच हुए मैच का लंबा सीक्वेंस इतने प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया होता तो शायद फिल्म इसी पॉइंट पर टूट गई होती. क्रिकेट की वजह से भी लगान को बार बार देखने में बोरियत महसूस नहीं होती.
#5. रहमान की धुनों का जादू
एआर रहमान ने लगान के मूड के हिसाब से धुन बनाई वो लोगों की जुबान पर चढ़ गई. सुन मितवा, से लेकर पूरी फिल्म की भाषा पर विशुद्ध देशी अवधी और हिंदी प्रभाव लगान को ऑथेंटिक बनाता ही है, साथ ही हर दर्शक को अपनी जड़ों के बारे में सोचने का मौका देता है, जिसका कहीं न कहीं गांवों से जुड़ाव है. रहमान की धुन में बेजोड़ भजन भी सुनाई पड़ा.
जाहिर तौर पर सभी चीजों ने इसे एक फैमिली फिल्म बनाई जो समय और सीमा दोनों से परे नजर आती है. हर बार देखने पर ताजगी का एहसास होता है.
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