Mirzapur 2 review: महफ़िल लूटने के फेर में खुद लुट बैठा मिर्जापुर का सीजन 2
अब जबकि अमेजन प्राइम (Amazon Prime) की चर्चित वेब सीरीज मिर्ज़ापुर (Mirzapur) का दूसरा सीजन आ गया है तो उसे देखते हुए हम बस इतना ही कहेंगे कि मिर्ज़ापुर का सीजन 2 (Mirzapur Season 2) समय बर्बाद करता है. कोई बहुत बड़े फैन हो तो एक बार झेल सकता है. बाकी अब अगले सीजन के लिए कोई क्रेज बचा नहीं है.
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लव सेक्स और गालियों से घिरा समाज अब हथेली पर मौजूद सबसे छोटी और सबसे कारीब स्क्रीन पर भी सिनेमा बनकर नज़र आने लगा है. मिर्ज़ापुर के पिछले सीज़न में ढेर गालियां थीं तो बेहतरीन डायलॉग भी थे, अच्छी स्क्रिप्ट भी थी. लेकिन इस बार क्या है? कहानी मुन्ना से शुरु होती है जो बिस्तर पर पांच गोली खाकर पड़ा हुआ है और सपने में देख रहा है कि गुड्डू उसे मारने वाला है लेकिन वो नहीं मर रहा. 'वो अमर हैं पर चु** नहीं हैं.' दूसरी ओर कालीन भैया पर जेपी यादव का प्रेशर है कि क्राइम कम होना था तो ज़्यादा क्यों हुआ? इस चलते कालीन भैया डायरेक्ट सिएम से हाथ मिलाना चाहते हैं. बीना त्रिपाठी के लिए फिर लालायित उनके ससुर बाउजी नए पैतरे आजमाते हैं लेकिन बीना उनसे दो हाथ तेज़ ऐसा बेवकूफ बनाती हैं कि सारा खेल पलट जाता है.बीना के बच्चा होने वाला है और बीना की नज़र में अब मिर्ज़ापुर की गद्दी का उत्तराधिकारी वो है. पर मिर्ज़ापुर की गद्दी के लिए तीन गोली खाए घायल गुड्डू और जौनपुर में अपने पिता की सरे-बाजार हत्या होने से आहत शरद, दोनों उम्मीदवार मानते हैं. वहीं एक नया एंगल बिहार के सीवान में दद्दा त्यागी और उनके बेटों द्वारा संचालित गाड़ियां चोरी करने का धंधा अलग चल रहा है.
मिर्ज़ापुर का सीजन 2 दर्शकों में सिर्फ बोरियत पैदा करता है
इन सबकी शुरुआत, पहले चार एपिसोड बहुत लाजवाब हैं. टाइट ग्रिप है, अच्छा स्क्रीनप्ले है और बेहतरीन अदाकारी है. अली फज़ल के स्क्रीन पर आने का इंतज़ार बनता है. रॉबिन (प्रियांशु पैन्यूली) नामक करैक्टर अलग महफ़िल लूटने लायक बनाया है लेकिन बेवजह की गालियां, हद से ज़्यादा गोलियां और ढीला होता स्क्रीनप्ले अगले 5 एपिसोड, यानी 5 से 9 तक उबा देता है.
करैक्टर अपना अंदाज़ खोने लगते हैं, कहानी बदले से हटकर बिजनेस पर बढ़ चलती है, फिर राजनीति की अति होने लगती है, कुर्सी की खींचतान में एक एपिसोड निकल जाता है और क्लाइमेक्स आते-आते आप भूल जाते हो कि आप मिर्ज़ापुर देख रहे थे या गैंग्स-ऑफ-वासेपुर। बल्कि इसका नाम डिसीजन-पुर होता तो ज़्यादा बेहतर लगता, सबको ख़ुद से निर्णय लेने हैं, मानों गुलामों की आज़ादी पर बनी क्रान्ति है.
डायरेक्शन
डायरेक्शन, मिहिर और गुरमीत का है. कहानी पुनीत कृष्णा की ही है. डायरेक्शन चार एपिसोड बाद अपना पेस खोने लगता है और हर करैक्टर के जीवन का हर शेड दिखाने के चक्कर में, गुड्डू जैसे लोकप्रिय करैक्टर को पिलपिला कर जाता है. हालांकि स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स की तारीफ बनती है. ढेर ग़ैर-ज़रूरी गालियां होने के बावजूद कुछ डायलॉग्स बहुत दमदार हैं. उदाहरण 'अरे वो नेता है, और नेता कुछ नहीं देता. हम लड़के वाले हैं फिर भी सारा ख़र्च हमने ही किया है, वहां से क्या आना था? बस बहु. वो तो कोर्ट मैरिज से भी आ ही रही है.'
स्क्रीनप्ले ने न्याय सिर्फ बीना की कहानी के साथ किया है. उसमें पिछले पार्ट से चली कांस्पीरेसी इस पार्ट में अपने मुकाम पर पहुंचती है, हालांकि क्लाइमेक्स इतना बेवकूफाना लिखा है जितना मिर्ज़ापुर वन का भी नहीं था, बस उसे कॉपी करने के चक्कर में ‘shit-on-he-bed’ किया है. अंत में एक मुख्य पात्र को ऐसे गायब कर गाड़ी में दिखाया है मानों शरीर नहीं उठाना था, खाली कुर्ता पायजामा लेकर भागना था.
एक्टिंग
एक्टिंग लाइन से बसे बढ़िया की है. अली फ़जल स्टार अट्रैक्शन हैं, द्विवेंदु का स्क्रीन टाइम ज़्यादा है पर ओवर नहीं है. पंकज त्रिपाठी बिना लाउड हुए कैसे नेगेटिव किरदार करना है ये फिर से सिखाते हैं. अंजुम शर्मा शुरु में बहुत प्रभावित करते हैं, बाद में उनका करैक्टर ही गर्त में घुस जाता है. अमित सिआल औसत रहे, कुछ एक सीन बहुत ज़बरदस्त निभाये हैं. प्रमोद यादव लाजवाब रहे, पर उनका करैक्टर भी ऐसे गायब हुआ जी गधे के सिर से सींग.
प्रियांशु सरप्राइज़ पैक हैं, उनके करैक्टर रॉबिन से आपको मुहब्बत हो जायेगी. विजय वर्मा को वेस्ट किया है, वो इससे बेहतर करैक्टर डिज़र्व करते थे. रसिका दुग्गल बेस्ट हैं. उनके उपर ही सारी कहानी बेस्ड है.
श्वेता त्रिपाठी कहीं-कहीं बहुत अच्छी लगीं, कहीं-कहीं अवेरेज. अनंग्षा बिश्वास की एक्टिंग भी ज़बरदस्त है. ईशा तलवार फीमेल करैक्टर में सरप्राइज़ पैक हैं, उनकी एक्टिंग, ख़ूबसूरती और एक्सप्रेशन, सब अद्भुत हैं. हर्षिता पिछलीबार सी ही औसत लगी हैं. शेरनवाज़ जिजिना के पास सिमित चार एक्सप्रेशन थे, उन्होंने घुमा फिरा के दिखा दिए.
म्यूजिक
म्यूजिक, पिछला तो आकर्षक था ही, इस बार का जोड़ा गया भी अच्छा है. जॉन स्टीवर्ट की मेहनत सफ़ल है.
सिनेमेटोग्राफी
सिनेमेटोग्राफी संजय कपूर ने की है और पहले ही बिच्छु वाले सीन में आपको संजय का फैन बना देती है. अद्भुत शॉट्स हैं.
एडिटिंग
एडिटिंग मानव मेहता और अंशुल गुप्ता की है. 10 एपिसोड्स तक खींची हुई ये कहानी दस जगह भटकाती है और इस बात को बिलकुल इग्नोर करती है कि दर्शक किसको ज़्यादा देखने के इच्छुक हैं. कट्टा फैक्ट्री में आग लगाने के बाद कहानी इतनी रेंगने लगी है. क्लाइमेक्स में 9 घंटे की गाथा का समापन 12 मिनट में निपटाने की कोशिश की है जो ठगे जाने का अहसास कराती है, सिर्फ इसलिए कि नेक्स्ट के लिए कुछ छोड़ना था.
कुलमिलाकर समय बर्बाद है. बहुत बड़े फैन हैं तो एक बार झेल सकते हैं. अगले सीजन के लिए कोई क्रेज़ नहीं बचा है. रेटिंग 10 में 6.5 है.
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