सिनेमाई तकनीक उत्तम पर 'अनेक' रचनात्मक काइयांपन है...
अनुभव सिन्हा ने 'अनेक' को यथार्थपरक बनाने के लिए इसकी रफ्तार के साथ समझौता किया है. इसका क्लाइमेक्स भी जटिल और उलझाऊ है, यहां निर्देशकीय दृष्टि अस्पष्ट है. बेशक ‘अनेक’ तकनीकी रूप से बेहतर है लेकिन यह फिल्म वंचित राज्यों की कहानी सामने लाने के नाम पर एक महीन तरीके से अलगाववाद को सही ठहराती है.
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किसी फिल्म के निर्देशक अगर अनुभव सिन्हा हों तो फिल्म अलग आख्यान गढ़ेगी इसकी उम्मीद रहती है. आपने इससे पहले उनकी पिछली तीन फिल्में देखी होंगी. सिन्हा को सराहना भी मिल है. आर्टिकल 15, मुल्क, थप्पड़ जैसी पिछली तीन फिल्मों की व्यावसायिक कामयाबियों और आलोचकों की सराहना ने सिन्हा का कद अलग बनाया. ऐसा कद हमेशा इस बात के लिए मजबूर करता है कि छवि बनाए रखी जाए. एक किस्म का हैंगओवर होता है, जिसको उतारने के लिए फिर से पीनी होती है. पिछली तीन फिल्मों में एकदम अलहदा विषय चुनकर सिन्हा ने कमाल की सिनेमाई तल्खी परोसी थी. अनेक फिर कैसे अलग होती भला! 'अनेक' में सिन्हा इस दवाब में दिखे हैं.
अनुभव सिन्हा की अनेक है तो अच्छी फिल्म लेकिन इसके पीछे भी एक छिपा हुआ एजेंडा है
इस फिल्म को मैं एक महीन तरीके की भारतविरोधी फिल्म कहना चाहूंगा. आखिर यह कश्मीरी अबरार भट्ट बने मनोज पाहवा... जो रक्षा मंत्रालय में किसी शीर्ष पद पर हैं, ऐसा कैसे कहते हैं और क्यों कहते हैं कि 'शांति होगी तो हर जगह होगी वरना कहीं नहीं!' इस संवाद से निर्देशक क्या कहना चाहता है! फिल्मों के कुछ हिस्सों को रचनाकर्म की पराकाष्ठा बताने वाले लोग आयुष्मान खुराना के किरदार के मुंह से 'उत्तर कहां है, तेलंगाना तमिलनाडु के लिए उत्तर भारत है' जैसे इस संवाद को लेकर लहालोट हो गए.
क्या सिन्हा बताएंगे कि पश्चिमी देश पश्चिमी क्यों हैं... और ओरिएंटल क्या होता है? उत्तरी ध्रुव को उत्तरी ध्रुव क्यों कहते हैं और दिल्ली में राजघाट पर ही जीरो माइल क्यों है. आखिर जीरो माइल होता ही क्यों है? क्या अनुभव सिन्हा अपने पूरे शरीर में अनुभव सिन्हा को खोज पाएंगे? उनके शरीर में दो हाथ हैं.एक को बेशक वह दाहिना हाथ दूसरे को बायां कहते होंगे.
वह होठों के बाल को मूंछ और उसके पड़ोस में होठों के ठीक नीचे वाले को दाढ़ी क्यों कहते हैं. क्यों कहते हैं? ऐसा ही पैर के साथ भी होगा. पैर को वह हाथ और सिर को जांघ क्यों नहीं कहते!सारा खेल नामकरण का न भी हो, पर पॉइन्ट ऑफ व्यू का है, रेफरेंस का है. बेशक, पूर्वोत्तर का प्रश्न कठिन है. पर इसको कठिन बनाया किसने है?
एक और सवाल जो सिन्हा खड़े करते हैं और बौद्धिक लहालोट हो गए कि 'क्या आप नॉर्थ-ईस्ट के सभी राज्यों को मैप पर पहचान सकते हैं यदि नाम हटा दिए गए तो?’ हां क्यों नहीं. सवाल सही इंसान से किए जाने चाहिए. देश में कितने लोगों को जन-गण-मन याद होगा, कितने लोग भारत माता की जय कहने में सहज हैं, कितने लोगों को वंदे मातरम से उज्र नहीं है.
फिर एक किरदार हीरोईन का है. उसको हिंदुस्तान के लिए गोल्ड मेडल जीतना है. पर उसको खुद पर की गई अनुचित टिप्पणियों से एतराज है. किसी को भी होगा. मुझे बतौर गाली बिहारी कहे जाने पर एतराज है. बंबई में यूपीवालों को भैया कहा जाता है. उस पर भी एतराज होगा. सिखों पर हजारों चुटकुले हैं सिखों को उस पर एतराज होगा और होना चाहिए. इस देश में लैंगिक, जातीय, सांप्रदायिक विभेद हैं.
पर, फिल्म में इसी देश में उसी नाराज नायिका को बॉक्सिंग में देश का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलता है. है या नहीं, या फिर वो जाकर किसी और देश से खेली थी? इस देश की कई सीमाएं है. हमारे देश को आजादी के बाद ही कहा गया था कि यह पचास टुकड़ों में बंट जाएगा. हम एक अस्वाभाविक राष्ट् हैं...
पर हम अब भी एक हैं. फिल्म में एक तंज, शर्जिल इमाम की तर्ज पर सिलीगुड़ी के पास के चिकन नेक पर भी है. संवाद लेखक ने खुद को बेशक तोपची समझा होगा. लेकिन बंटवारे में बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) अलग न हुआ होता तो क्या स्थिति होती? सिनेमाई मापदंडों पर फिल्म बेशक बढ़िया है. किरदारों की कई परतें हैं. भावकुता भरे दृश्य हैं.
स्थानीय राजनैतिक संघर्ष हैं. बैकग्राउंड स्कोर, लोक गीतों का बेशक अच्छा इस्तेमाल है. सिनेमाटोग्राफी के जरिए कहानी को और ज्यादा मजबूत बनाया है. फिल्म का विजुअल टोन कमाल का है. लेकिन इसके साथ ही कई दृश्य बेवजह लंबे और उबाऊ हैं. आयुष्मान के मुंह से चक्रवर्ती के साथ बेहद लंबे ज्ञान बांटने वाले संवाद हैं. फिल्म में कई बार ज्ञान देने वाले लंबे-लंबे उबाऊ दृश्य हैं.
क्लाईमैक्स का डायलॉग विचार प्रेरक है, 'ये पीस किसी को चाहिए ही नहीं, वरना सालों से इतनी छोटी प्रॉब्लम सॉल्व नहीं हुई होती?' यह हिंदी फिल्म हिंदी के साम्राज्यवाद का प्रश्न भी खड़ा करती है. बेचारी हर जगह से ठुंकी हुई हिंदी कहां साम्राज्यवाद फैला सकती है भाई. बेचारी हिंदी...
जिसमें प्रखर बौद्धिक अहिंदीभाषी जबरिया उर्दू और फारसी वाला नुक्ता घुसेड़ना चाहते हैं तो कुछ अंग्रेजी के शब्दों के जबरन इस्तेमाल से इसको आसान बनाना चाह रहे हैं. यह भाषा असल में दबी-कुचली है. कहां से आएगी इसमें साम्राज्यवाद वाली ठसक! अभिनय में आयुष्मान के चेहरे के भाव, देहभाषा उम्दा से भी बेहतर है.
लेकिन बड़ा प्रश्न इस फिल्म से खड़े होने वाले आख्यान का है. आखिर, पूर्वोत्तर को शांति नहीं मिली. पर शांत बिहार को क्या मिला? क्या भारत कहलाने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ राज्यों की है? अनुभव सिन्हा ने फिल्म को यथार्थपरक बनाने के लिए इसकी रफ्तार के साथ समझौता किया है. इसका क्लाइमेक्स भी जटिल और उलझाऊ है, यहां निर्देशकीय दृष्टि अस्पष्ट है.
बेशक ‘अनेक’ तकनीकी रूप से बेहतर है लेकिन यह फिल्म वंचित राज्यों की कहानी सामने लाने के नाम पर एक महीन तरीके से अलगाववाद को सही ठहराती है. और इसलिए मुझे लगा कि निर्देशक चालाकी से अपनी विचारधारा थोप रहा है. रचनाकर्म में काइयांपन सुहाता नहीं है.
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