Atrangi Re जैसी फ़िल्में उत्तर-दक्षिण को मिला रहीं, अब गुस्सा-प्रेम-तकलीफ की कहानियां साझी हैं!
अक्षय कुमार, धनुष और सारा अली खान की अतरंगी रे सांस्कृतिक रूप से दक्षिण-उत्तर के नजदीक आने का सबूत है. और यह अचानक नहीं हुआ है.
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दक्षिण और उत्तर के सिनेमा में कुछ साल पहले तक बड़ा फर्क और एक किस्म की खाईं नजर आती थी. भाषा की दीवार तो थी ही, चरित्र में कंटेंट भी एक-दूसरे से अलग नजर आते थे. कई पूर्वाग्रह थे एक-दूसरे को लेकर. रजनीकांत, कमल हासन हिंदी पट्टी के दर्शकों के लिए कभी अंजाना चेहरा नहीं रहे. बावजूद एकाध फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो वे बॉलीवुड फिल्मों में वैसे ही नजर आए जैसे उनके समकालीन बॉलीवुड एक्टर्स थे. बॉलीवुड की अभिनेत्रियां तो थोक में दक्षिण से ही आती थीं. मतलब दक्षिण के सितारे हिंदी फिल्मों में थे जरूर पर उनके साथ कभी दक्षिण यहां के सिनेमा में नहीं आया था.
रजनीकांत, कमल हासन, चिरंजीवी, अरविंद स्वामी और वेंकटेश जैसे सितारे हिंदी सिनेमा में आते-जाते रहे, कभी उत्तर-दक्षिण के बीच का पुल परदे पर नहीं दिखा. हिंदी की कहानियों में हिंदी और दक्षिण में दक्षिण. अब तस्वीर बदल रही है.
प्रयास दोनों ओर से हो रहे हैं. अब या तो उत्तर और दक्षिण के फर्क को सिनेमा में मिटाया जा रहा है या फिर उत्तर-दक्षिण दोनों रेफरेंस फिल्मों में अपनी सहज मौजूदगी दिखा रहे. 24 दिसंबर को डिजनी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हो रही आनंद एल रॉय के निर्देशन में बनी प्रेम त्रिकोण कहानी "अतरंगी रे" उन्हीं में से एक हैं. आनंद ने रांझणा के बाद एक और फिल्म बनाई है जिसमें दक्षिण के रेफरेंस सांस्कृतिक रूप से दोनों क्षेत्रों को एक डोर में बांधते नजर आते हैं. जबकि अब तक दक्षिण खासकर तमिल और हिंदी पट्टी में एक ख़ास किस्म की दूरी नजर आती है.
अतरंगी रे की कहानी में प्रेम त्रिकोण है.
आनंद ने कुछ साल पहले रांझणा में इस दूरी को एक खास किस्म की कहानी से पाट दिया था. बनारस में ही तमिलनाडु के एक छोटे से प्रतीक को घुसा दिया जैसे- तमिल सदियों से हिंदी पट्टी में रचे बसे हों और हिंदी पट्टी वाले तमिल क्षेत्रों में. कुछ कुछ दूध में चीनी की तरह. वैसे आपातकाल की वजह से उत्तर-दक्षिण का सिनेमा नजदीक आया था और इसका नतीजा 80 के दशक में दोनों के सिनेमा में दिख जाएगी.
ये नजदीकी राजनीतिक वजहों से आई थी. कमल हासन की "एक दूजे के लिए" जैसी बॉलीवुड फ़िल्में सशक्त उदाहरण हैं जहां कहानियां ही ऐसी बुनी गईं जिसमें दक्षिण, पूरी सांस्कृतिक पहचान के साथ हिंदी सिनेमा के परदे पर दिखा. खानपान, बोली सबकुछ. "एक दूजे के लिए" का नायक तमिल समुदाय का है जो एक गैर तमिल लड़की से प्रेम कर बैठता है. इससे पहले बॉलीवुड फिल्मों में दक्षिण, खासकर तमिल सिर्फ मजाक का विषय होते थे. काली सूरत, मुंडा हुआ सिर, माथे पर त्रिपुंड, चोटी और लुंगी में ना जाने कितने कॉमिक किरदार अब तक हिंदी सिनेमा में दिखाए जा चुके हैं.
पड़ोसन में तो महमूद का कॉमिक किरदार ऐसे ही एक तमिल म्यूजिशियन का है जिसे हर लिहाज से मूर्ख, शातिर, मौक़ापरस्त और भद्दा साबित करने की कोशिश दिखती है. हिंदी में दक्षिण की बस इतनी सी जगह थी. हिंदी के लिए दक्षिण का मतलब भी तमिलनाडु या "मद्रास" भर था. हो सकता है कि हिंदी विरोध, तमिल आंदोलन, हिंदू विरोधी सामजिक आंदोलनों की वजह से राजनीतिक असर हो यह.
पड़ोसन में सायरा बानो के साथ महमूद.
हिंदी फिल्मों में दक्षिण के किरदार अब मजाक का विषय नहीं
अगर गौर करें तो एक दूजे के जरिए 80 के दशक में जो बदलाव दिख रहा था वह आगे जाकर श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति के बाद मजबूत हो रहे लिट्टेवादी तमिल आंदोलन की वजह से टूट गया. 90 के बाद बॉलीवुड फिल्मों में गहरा सन्नाटा इसी वजह से है. लेकिन उदारवाद के बाद बहुत व्यवस्थित हुई कनेक्टिविटी, इंटरनेट ने चीजों को फिर से बदलना शुरू कर दिया. उत्तर-दक्षिण की दीवार कमजोर नजर आने लगी है. इस दौरान एक बार फिर उत्तर दक्षिण सिनेमा में एक-दूसरे का सांस्कृतिक दखल बढ़ा.
अब उत्तर-दक्षिण की अलग-अलग संस्कृति में पले बढ़े किरदारों की प्रेम कहानियां फिल्मों में दिखती हैं. दोस्तियां नजर आती हैं. चेन्नई एक्सप्रेस, टू स्टेट्स, रांझणा जैसी बड़ी फ़िल्में दिखती हैं. कई दर्जनों फिल्मों में तो दक्षिण-उत्तर में रचे बसे सशक्त सपोर्टिंग किरदार नजर आते हैं जो विदूषक की तरह भद्दे नहीं दिखते. वे पढ़े लिखे बुद्धिमान और ईमानदार किरदारों में होते हैं. दक्षिण की मसाला फिल्मों को गौर करिए तो अब वहां भी सिख किरदार दिखेंगे, उत्तर के मजबूत किरदार नजर आएंगे.
अक्षय कुमार, धनुष और सारा अली खान की अतरंगी रे इसी कड़ी को और आगे बढ़ाने वाली फिल्म है. अतरंगी रे एक तमिल युवक का उत्तर भारतीय लड़की से विवाह और प्रेम क्या दर्शाता है? यह पिछले 20 सालों में आर्थिक और राजनीतिक वजहों से तैयार हुए इको सिस्टम में एक नए भारतीय समाज की कहानी है. उत्तर-दक्षिण का यह समाज पहले की तुलना में अब एक-दूसरे के ज्यादा करीब है. उसके करीब आने की वजहें अलग-अलग हैं लेकिन सिनेमा उसे मजबूत ही बना रहा है. उत्तर भारतीय दर्शकों को बाहुबली दक्षिण की फिल्म नहीं लगती. केजीएफ भी उसे अपनी कहानी लगती है. RRR को भी वह अपना मानने के लिए तैयार हो चुका है.
सिनेमा से दूर हो रही क्षेत्रीय झिझक
सोचने वाली बात है कि बचपन में हमारा स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उत्तर के कुछ इलाकों की सैर करके ख़त्म हो जाता था. हम दक्षिण को भारत मानते थे मगर उत्तर-पूर्व को अपना मानने के लिए हमेशा जोर देना पड़ता था. संभवत: हमारे क्षेत्र को लेकर ठीक यही स्थिति वहां भी हो. मगर आज की पीढ़ी से पूछेंगे तो वो दक्षिण के बारे में लगभग वैसे ही बात करता है जैसे कोई यूपी वाला बिहार और हरियाणा के लिए बात करता है. अब उत्तर पूर्व के लिए उसे ज्यादा जोर नहीं देना पड़ता.
यह बदलाव फिल्मों की वजह से भी है. एमसी मैरिकोम पर आई फिल्म और अंतरराष्ट्रीय खेलों में वहां के खिलाड़ियों की उपलब्धियों ने उत्तर पूर्व को लेकर बदलाव किए. दक्षिण को लेकर बदलाव भी फिल्मों की वजह से ही हुआ. छह साल पहले एसएस राजमौली की बाहुबली ने इस बदलाव को और पुख्ता कर दिया था. फिर तो कबाली, 2.0, साहो, केजीएफ चैप्टर 1, जयभीम, असुरन, पुष्पा द राइज उसी कड़ी में नजर आती हैं. अब हमारे प्रेम, गुस्से, परेशानियां एक आवाज में निकल रही हैं. अब फर्क नहीं पड़ता वो कहां से आ रही हैं. सिनेमा की वजह से अब चीजें ज्यादा साझा हैं. अतरंगी रे उत्तर और दक्षिण की साझी कहानी है. सिनेमा का यह असर अच्छा है.
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