दक्षिण-उत्तर-पूर्व की लड़ाई में 'अनेक' हो सकती है जरूरी फिल्म, बशर्ते...
आयुष्मान खुराना (Ayushmann Khurrana) की अनेक का ट्रेलर आ चुका है. फिल्म में विस्तार से उत्तर पूर्व की तकलीफ बयां करने की कोशिश है. आइए जानते है यह फिल्म क्यों जरूरी है.
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अनुभव सिन्हा के निर्देशन में आयुष्मान खुराना की भूमिका से सजी एक्शन थ्रिलर अनेक में एक संवाद है- अगर भारत के नक़्शे से नाम छिपा दिया जाएं तो कितने भारतीय हैं जो उत्तर पूर्वी राज्यों के नाम पर उंगली (सही जगह) रखने में सक्षम हैं. जो भूगोल और इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं उन्हें जरूर इस ओर ध्यान देना चाहिए. क्योंकि समूचे भारत का हाल यह है कि वह नॉर्थ ईस्ट को पहचानता तो है मगर वहां की विविधता को दक्षिण, उत्तर और पूरब पश्चिम की तरह कभी ना समझ पाता है ना ही स्वीकार कर पाता है. और इस वजह से उसे असम से आगे बढ़ने में अपनी याददाश्त पर बहुत जोर देना पड़ता है. याददाश्त थोड़ी बेहतर हुई तो दो-तीन और राज्यों को पहचान सकता है. बस. संस्कृति के लिहाज से अभी भी उसे असम समेत तमाम उत्तर पूर्वी राज्यों को समझने की सख्त जरूरत है.
अनेक की पूरी कथा इसी सवाल के आसपास है जिसे दो किरदारों के जरिए दिखाने की कोशिश है. एक है आयुष्मान खुराना का किरदार जो भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से में भारतीय संघ की तरफ से सुरक्षा के लिए विद्रोही गुटों से शांति समझौते की जमीन बनाने के लिए तैनात है. दूसरा किरदार दीपलीना डेका का है जो बॉक्सर है. उसके पिता खुद को भारतीय नहीं मानते और अलगाववादी विचारों के साथ दृढ़ हैं. वो क्यों नहीं मानते, उनकी अपनी वजहें हैं. ऊपर के जिस संवाद का संदर्भ लिया गया है वह इन्हीं से बुलवाया गया है. लेकिन दीपलीना खुद को भारतीय साबित करने के क्रम में हर जगह जूझना पड़ता है. भौगोलिक पहचान में उसे चीनी बताया जाता है.
नीचे फिल्म का ट्रेलर देख सकते हैं:-
कुल मिलाकर अनेक के यह दो महत्वपूर्ण किरदार हैं. इनके साथ कई दूसरे अहम किरदार भी ट्रेलर में अपनी त्रासदी के साथ एक-एक कर नजर आते हैं. फिल्म का असल सवाल तो यही है कि भारत है क्या और वह कहां है. भारत उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम के रूप में एक होकर भी "अनेक" क्यों है और जब अनेक ही है तो उसके "एक" होने की वजह क्या है? उत्तर पूर्व अलगाववादी त्रासदियों से गुजरता रहा है. कम से कम एक दशक पहले तक तो वहां कुछ ऐसा ही माहौल था जैसा अनेक की झलकी में नजर आता है. हालांकि डिटेंशन कैम्प जैसी चीजें असम के चिकन नेक को पार कर कभी इधर नहीं आईं. यह सही भी है अनुभव सिन्हा की निजी धारणा जो कई बार उनके सिनेमा पर हावी हो जाती है. इन चीजों का पता फिल्म आने के बाद ही चलेगा.
हालांकि असम में बांग्लादेशी मुद्दे और नागरिकता के सवालों के बाद वहां डिटेंशन कैम्प होने की खबरें शेष भारत तक पहुंची हैं. बावजूद इन कैम्पों का संदर्भ ट्रेलर में दिखाई जा रही कहानी से कितना मेल खाता है देखने का विषय है. उत्तर पूर्व में लंबे वक्त से तमाम विद्रोही गुट सक्रिय रहे हैं. तमाम इलाकों में अस्थिरता थी और खूनी संघर्ष होते थे. नरेंद्र मोदी सरकार में उत्तर पूर्व के लिहाज से कुछ चीजें बेहतर हुई हैं. उत्तर पूर्व के एथलीटों की उपलब्धि ने भी शेष भारत के ध्यानाकर्षण में काफी योगदान दिया. यह कम बड़ी बात नहीं कि अब उत्तर पूर्व भी भारतीय विमर्श का मजबूत हिस्सा बन रहा है.
हालांकि जो पारस्परिकता उत्तर और दक्षिण में है या देश के दूसरे विपरीत इलाकों में है- वैसा गठबंधन उत्तर पूर्व के राज्यों का शेष भारत के राज्यों संग अभी भी उतना गहरा नजर नहीं आता. सोचिए कि दिल्ली के बैकड्राप में हिंदी की एक कहानी में नॉर्थ ईस्ट का संदर्भ आने में दशकों लग जाते हैं. भला हो उदय प्रकाश का जिन्होंने पहली बार पीली छतरी वाली लड़की में शेष भारत में उत्तर पूर्व की एक पीड़ा को जगह दी और लोकप्रिय बहस में आगे बढ़ाया.
अनेक में आयुष्मान खुराना.
सिनेमा में उत्तर पूर्व कहां है?
उत्तर पूर्व भारत का अहम हिस्सा होने के बावजूद खुद को हमेशा भारत से कटा पाता है. इस बिलगाव के कारणों में शेष भारत की मानसिकता का भी कम योगदान नहीं है. उनके शारीरिक नाक-नक्श पर शिकायत की घटनाएं दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु जैसे महानगरों में भी आम है. उनका खान-पान भी बहुतायत लोगों के लिए हैरानी का विषय है. फिल्म के ट्रेलर में उत्तर-पूर्व के सभी तरह के सामजिक-राजनीतिक हालात को दिखाने की तैयारी नजर आती है. ऐसी कहानियां स्वागतयोग्य हैं. उत्तर-पूर्व से अलग शेष भारत के साहित्य में बहुत विस्तार से जिक्र नहीं मिलता.
फिल्मों में भी एकपक्षीय दृष्टि नजर आती है. ऐसी अपरिपक्व दृष्टि जिसमें वहां के अलगाववादी समूहों को एक झटके में आतंकी बताने की जल्दबाजी नजर आती है. या रोमांस के एंगल में जरूरी सवाल कमजोर पड़ जाते हैं या फिर पीछे छूट जाते हैं. दिल से जैसी फिल्मों का उदाहरण देख लीजिए. जबकि उसी सिनेमाई व्याख्या में कश्मीर को लेकर नजरिया बिल्कुल उलटा हो जाता है और हम कई बार ठहर कर विचार करते हैं और उसके पीछे के दूसरे तर्क भी तलाशने लगते हैं. कई बार तो हमारा सिनेमा अपने ही तमाम अंचलों पर परदा डालकर पाकिस्तान के लिए ज्यादा फिक्रमंद नजर आता है.
इसमें कोई राय नहीं कि मौजूदा समय में अनेक एक जरूरी फिल्म बन सकती है. इसके जरिए देश का व्यापक समाज उत्तर पूर्व को समझने और उनके बारे में एक राय तैयार करने में सहज हो सकता है. ट्रेलर से तो फिलहाल यही लग रहा कि अनुभव सिन्हा ने भारत और भारतीयता के लिए अनेकता में एकता के सूत्र तलाशने की कोशिश की है. यह फिल्म उस दौर में और महत्वपूर्ण हो जाती है जब प्रधानमंत्री मोदी समूचे नॉर्थ ईस्ट से आफस्पा हटाने की घोषणा करते हैं. इस घोषणा का आधार पिछले दो दशक में तैयार हुआ है जब देश के तमाम हिस्सों ने एक दूसरे की क्षमता, जरूरत और अहमियत समझी है. इसे दीपलीना और उनके पिता के किरदारों के जरिए बताने की कोशिश झलकी में नजर आती है. यह बड़ी बात है कि उत्तर पूर्व की पीड़ा और उपलब्धि अब हमारे सिनेमा का जरूरी विषय बन रहा है.
अनेक का ट्रेलर संकेत दे रहा है कि इससे एक बेहतर निष्कर्ष की उम्मीद कर सकते हैं. हालांकि दारोमदार अनुभव सिन्हा पर होगा कि उन्होंने अनेक के लिए उत्तर-पूर्व को किस नजरिए से देखा है. क्योंकि इसकी कहानी भी उन्होंने लिखी है. नजरिया बदलते ही नज़ारे बदल जाते हैं. कई बार अनुभव का वाम मार्गी झुकाव उन्हें नई पीढ़ी की परस्पर सहमति और मान्यताओं से बहुत दूर खड़ा कर देता है.
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