Badhaai Do Review: समलैंगिकता बाद की बात, शादी योग्य लड़की बस 30 या 30 से ऊपर का न हो!
Badhaai Do Review : मॉरल ऑफ द स्टोरी वही है जैसा हमारा समाज है. लड़की सफल हो वो मुद्दा ही नहीं है बस उसे 30 या 30 से ऊपर का नहीं होना चाहिए. बाकी फिल्म समलैंगिकता के ताने बाने में बुनी गयी है इसलिए निर्देशक ने इसे बड़ा ही सेंसिबल ट्रीटमेंट दिया है.
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Badhaai Do Review: 31 की हो गई है. तेरा भविष्य क्या है? कट टू कट पॉइंट ये है कि विकास और आधुनिकता की लाख बड़ी बड़ी बातें क्यों न हों लेकिन उपरोक्त बातें उन 'उम्रदराज' लड़कियों (इसके लिए बहुत ज्यादा आहत होने की जरूरत नहीं है. हिंदुस्तान जैसे देश में एक बड़ी आबादी 30 साल या उससे ऊपर की लड़की को उम्रदराज ही कहती है) को जरूर कचोटती होंगी जो कुछ बड़ा करना चाहती हैं. कुछ बनना चाहती हैं. लेकिन ये संगदिल जमाना! इसने तो जैसे ठान ही रखा है कि वो उनकी शादी कराकर ही दम लेगा. शादी हो गई फिर समाज का अगला टारगेट बच्चे हैं. (समाज का प्रेशर ही कुछ ऐसा है कि व्यक्ति को न चाहते हुए भी बच्चे पैदा करने ही पड़ जाते हैं) लंबे इंतेजार के बाद हर्षवर्धन कुलकर्णी डायरेक्टेड ‘बधाई दो’ रिलीज हो गई. 'बधाई दो' फ़िल्म में राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर लीड भूमिका में हैं. यूं तो फ़िल्म अपने आखिर तक होमोसेक्शुएलिटी को नॉर्मलाइज़ करती दिखती है लेकिन जो बात गौर करने वाली है वो हिंदुस्तान जैसे देश में एक लड़की का 30 साल की उम्र को पार कर लेना और शादी न करना है.
फिल्म बधाई दो में ऐसी तमाम बातों को उठाया गया है जो हमारे समाज की तल्ख़ हकीकत हैं
क्योंकि फिल्में समाज का आईना कही जाती हैं इसलिए बधाई दो में भी कई ऐसी चीजों को उठाया गया है जिनसे हमारा समाज दूरी बनाता है.आगे तमाम बातें होंगी लेकिन उससे पहले फ़िल्म बधाई दो पर बात कर ली जाए. फ़िल्म में राजकुमार राव शार्दुल ठाकुर नाम के ऐसे पुलिस वाले के रोल में हैं जो है तो 32 का मगर उसके घरवाले जल्द से जल्द उसकी शादी करवाकर पोते पोतियों के सुख लेना चाहते ही.
वहीं सुमन सिंह बनी भूमि एक ऐसी पीटी टीचर हैं जिन्हें नेशनल खेलना था लेकिन भाई के आगे एक न चली. सुमन 31 साल की लड़की है जिसे न तो शादी में कोई इंटरेस्ट है और न ही लड़कों में. यही बात उसके जी का जंजाल है और इसे लेकर उसे अक्सर ही मां से खरी खोटी सुनने को मिलती है.
भले ही पर्दे की सुमन एक कामयाब महिला हो (सुमन के लेस्बियन होने पर अभी कोई बात नहीं) लेकिन जिस तरह की कंडीशनिंग हमारे समाज की है. सुमन की शादी मां के साथ साथ उससे जुड़े सभी लोगों के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है.
मां सुमन की शादी कराकर अपने जीवन का 'फाइनल गोल' हासिल करना चाहती है (मां की कोई गलती वास्तव में है भी नहीं हमारा समाज है ही ऐसा.)अब चाहे 32 साल का शार्दुल ठाकुर हो या भी 31 साल की सुमन इन लोगों के जीवन में शांति तभी आएगी जब इनके हाथ पीले होंगे.
आखिरकार दोनों शादी कर लेते हैं. चाहे वो शार्दुल ठाकुर हों या सुमन दोनों के जीवन में क्या अप एंड डाउन आते हैं? आखिर कैसे वो अपनी खुशियों को हासिल करते हैं? कैसे शादी के बाद भी ये जालिम जमाना उनका जीना हराम करता है? ऐसे और इस तरह के तमाम सवालों और जवाबों के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
फिल्म में कई मुद्दों को एकसाथ दिखाया गया है इसलिए फिल्म देखते हुए आपको टिपिकल बॉलीवुड के दर्शन तो जरूर होंगे लेकिन फिल्म कई जरूरी सवाल भी खड़े करेगी. (हमें ये बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि फिल्म का बैक ड्राप छोटा शहर है. खुद सोचिये कि शार्दुल और सुमन जैसे युवाओं को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता होगा और ये चुनौतियां तब कैसी होती होंगी जब ज़माने को ये बता चलता होगा कि उनके आसपास का कोई लड़का होमोसेक्सुअल और लड़की लेस्बियन है)
शार्दुल और सुमन का गे या लेस्बियन होना फिर भी एक अलग मुद्दा है लेकिन जिस बात पर हम फिर से ध्यान आकर्षित कराना चाहें गए वो है शादी की उम्र क्लहस्टोर से एक लड़की के लिए. क्या एक लड़की तभी सफल है जब वो 22 या 25 की होते होते शादी कर ले और 30 तक आते आते उसके दो तीन बच्चे हो जाएं.
बधाई हो एक सब्जेक्टिव ड्रामा या ये कहें कि ऑफबीट फिल्म है सवाल ये है कि क्या हमारा समाज इतना परिपक्व है कि ऐसी या इससे मिलती जुलती फिल्मों को पचा पाए? अंत में बस इतना ही कि 'बधाई दो' एक सेंसिबल फिल्म है इसलिए बतौर दर्शक जब भी हम ऐसी या इससे मिलती जुलती फिल्म देखें तो खुले मन से देखें बिना प्रिज्यूडिस या स्टीरियोटाइप किये हुए. वाक़ई सिनेमा और एंटरटेनमेंट काफी बदल चुके हैं अब हमें भी बदल जाने की जरूरत है.
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