'बिना ब्रेक का बुलडोजर हूं मैं, विध्वंस कर दूंगा'- अखंडा के मर्दाना डॉयलॉग के आगे फीका पठान
अखंडा और पठान के संवादों को देखें तो समझ में आता है कि बॉलीवुड लगातार क्यों बर्बाद हो रहा है. पठान एक कन्फ्यूज फिल्म है, समझ ही नहीं आता कि वह दुनिया के किस दर्शक वर्ग के लिए बनाई गई है. बॉलीवुड अपनी बर्बादी का सामान खुद तैयार कर रहा है. इसमें किसी और का दोष नहीं.
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जनता को बालकृष्ण की तेलुगु महाएक्शन एंटरटेनर 'अखंडा' की झलक भर देखने के बाद ट्रांस फील होने लगा है. लोग यकीन ही नहीं कर पा रहे कि दक्षिण में साल भर पहले सिंगल स्क्रीन्स पर गदर मचाने वाली मसाले से भरपूर फिल्म आई थी, बावजूद किसी की नजर तक नहीं पड़ी. अब सालभर बाद जिस तरह से शाह रुख खान की पठान के सामने फिल्म को एक बार फिर सिनेमाघरों में रिलीज किया जा रहा है- हर कोई हैरान है. अखंडा के पावरपैक्ड एक्शन सीन्स ने हर किसी का ध्यान खींचा है. अखंडा को उसके जानदार मनोरंजक विजुअल और संवाद क्षमता की वजह से सरपट्टा परम्बरै, पुष्पा: द राइज, आरआरआर, केजीएफ 2, पोन्नियिन सेलवन 1 और कांतारा की तरह देखा जा रहा है तो गलत नहीं है.
पिछले साल आई साउथ की जिन फिल्मों का जिक्र किया गया है, असल में जनता से संवाद करने के मामले में उनका कोई सानी नहीं है. कॉन्टेंट देखा होगा और अखंडा का ट्रेलर भी संभवत: देख लिया होगा. दक्षिण की फिल्मों के किरदार जिस तरह की सोसायटी से निकल कर आए हैं, उनका जो बैकड्राप है- ये देश के वहीं इलाके हैं जिनसे 95 प्रतिशत आबादी का गहरा जुड़ाव है. उनकी बोली, उनकी भाषा उनकी फ़िक्र और बातचीत की उनकी शैली. असल में दक्षिण के फिल्मों की खूबी भी यही है. वो जनता के दिल को छूने वाले दृश्यों और संवादों को रचते हैं, जो बिल्कुल जनता के बीच से उठाए जाते हैं. इसी ताकत की वजह से कपिल शर्मा बने हुए हैं बावजूद सनसनी फैलाने वाले ना जाने कितने स्टैंडअप कॉमेडियन उनसे पहले और बाद में आते रहे हैं. खैर.
अखंडा में बालकृष्ण
अखंडा का ट्रेलर आते ही उसके दृश्यों का असर अगर लोगों के दिमाग पर दिख रहा है. उसके लगभग सारे संवाद लोगों की जुबान पर चढ़ गए हैं. यह बताने के लिए पर्याप्त है कि ट्रेलर भर से अखंडा का कॉन्टेंट किस तरह की जमीन पर संवाद करने लगा है. अखंडा के कुछ संवाद जो बालकृष्ण और दूसरे किरदारों से बुलवाए गए हैं- गौर करिए. सोशल मीडिया पर मीम्स बनने लगे हैं. लोग उन्हें दोहरा रहे हैं. नीचे के कुछ संवाद, उनकी जमीन और उनकी ताकत को देख लीजिए.
- विधि से विधाता से विश्व से सवाल मत करो.- तू क्या निजाम सागर डैम है या मुंबई का सी लिंक है जो तेरी ताकत को नापूं. कुएं का एक मेंढक है तू.- मैं आत्मा हूं और वो मेरा शरीर है.- सारे चीतों के चीथड़े उड़ जाएंगे.- एक बात तुम कहो तो शब्द है वही बात मैं कहूं तो शासनम, देव शासनम.- एक बार विनाश करने निकल पड़ा तो बिना ब्रेक का बुलडोजर हूं मैं, विध्वंस कर दूंगा. - जिस तकलीफ के सामने आप लोग झुक जाते हैं हम उस तकलीफ को जड़ से काट देते हैं. - बोथ आर नॉट फेथ.
ये ट्रेलर में इस्तेमाल हुए संवाद भर हैं. ये संवाद जिन दृश्यों पर आए हैं उन्हें भी देखना चाहिए. संबंधित दृश्यों में इन संवादों का असर समझना मुश्किल नहीं. ये ऐसे संवाद हैं जिन्हें समझने-समझाने की जरूरत नहीं. यही इनकी ताकत है. यही कंट्रास्ट है इनका. यही चीज इन्हें दर्शकों के साथ कनेक्ट कर देती है. चूंकि फिल्म पहले आ चुकी है, सोशल मीडिया पर तेलुगु ऑडियंस बता भी रहा है कि ट्रेलर तो झाकी भर है. अखंडा का पूरा कॉन्टेंट लगभग इसी तरह के संवादों और दृश्यों से भरा पड़ा है. कहने की बात नहीं कि मास सर्किट के सिनेमाघरों में जब नायक ऐसे सवांद दोहराता है तो समूचा थियेटर तालियों के शोर से गूंज उठता है. साल भर पहले अखंडा की रिलीज के बाद ऐसे तमाम दृश्य सोशल मीडिया पर भरे पड़े हैं. दर्शकों का उत्साह देखने लायक है. 50 करोड़ में बनी अखंडा ने 150 करोड़ से ज्यादा कमाए थे. समझा जा सकता है कि इसके दृश्य-संवादों की ताकत क्या है.
अखंडा में जो संवाद की ताकत है वह पठान में नहीं
असल में भारत का बहुतायत दर्शक अखंडा की भाषा में संवाद करता है. कभी बॉलीवुड भी इसी तरह संवाद करता था. अमिताभ बच्चन से लेकर खान सितारों के उदय तक की फ़िल्में और उनका संवाद उठाकर देख लीजिए. जब अमिताभ ने परदे पर- 'मैं आज भी फेंके हुए सिक्के नहीं उठाता' या फिर 'जाओ सबसे पहले उस आदमी को ढूंढकर लाओ जिसने मेरे माथे पर लिख दिया- तुम्हारा बाप चोर है' बोला और जनता के दिलों पर राज करने लगे और महानायक बन गए. धर्मेंद्र और सनी देओल के संवादों को देखिए- ये हाथ नहीं हथौड़ा है, कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा, बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना या फिर ढाई किलो का हाथ जब किसी पर उठता है तो वह उठ ही जाता है.
उदाहरण के रूप में पेश किए गए ये कुछ संवाद बॉलीवुड की पॉपुलर फिल्मों के ही हैं किसी अवॉर्ड विनिंग फिल्म के नहीं. लेकिन 90 के बाद बॉलीवुड का सिनेमा- कल्चर, बोली, भाषा से अलग होता चला गया. NRI दर्शकों को फोकस कर फ़िल्में बनने लगीं और शाहरुख खान के साथ रेस में दर्जनों NRI टाइप के सुपरस्टार दिखने लगे. जो मास सर्किट के लिए फ़िल्में बन रही थीं उन्हें बी ग्रेड और सी ग्रेड करार दे दिया गया. सिनेमा में भी फर्जी कुलीनता और जाति की दीवार खड़ी कर दी गई. बावजूद कि कोई फिल्म नहीं दिखती जिसका ओवरसीज कलेक्शन बेहतरीन हो, बावजूद शाहरुख खान ओवरसीज स्टार बना दिए गए.
पठान को भी मास सिनेमा कहा जा रहा है लेकिन अगर टीजर और उसके गानों को देखकर पूछा जाए कि उसमें भारत के किस गांव-शहर-महानगर का प्रतिनिधित्व है तो नजर नहीं आता. बांद्रा का जरूर दिखता है. पर महाराज बड़ा सवाल यह है कि बांद्रा भारत थोड़े है. अगर पठान के कंट्रास्ट में बालकृष्ण की अखंडा या दक्षिण की दूसरी फ़िल्में देखें तो यह फर्क और साफ़ नजर आता है और बॉलीवुड की बर्बादी का सूत्र भी पता चला जाता है. उदाहरण के लिए मास एंटरटेनर बताई जा रही पठान के कितने संवाद लोग दोहरा रहे हैं. एक संवाद जो बहुत प्रचार के बाद कुछ शहरी इलीट की जुबान पर चढ़ा नजर आता है, वह भी सिर्फ इसलिए कि उस संवाद पर ना जाने कितना कुछ लिखा गया और विजुअल प्रमोट किए गए. संवाद है- कुर्सी की पेटी बांध लो, मौसम बिगड़ने वाला है. संवाद का मायने यह है कि हवा में जहाज उड़ रहा है. मौसम खराब होने की आशंका में जहाज का क्रू अपने पैसेंजर्स को बताता है कि सुरक्षा के लिहाज से वे सीट की बेल्ट बांध लें. मास पॉकेट के लिहाज से यह संवाद समझने भर में दर्शकों को दिमाग खपाना पड़ सकता है. सिनेमाघर में ज्यादातर दर्शक मनोरंजन के लिए जाते हैं गणित हल करने के लिए नहीं.
वायलेंट पोएट्री का महत्व, दक्षिण-बॉलीवुड और आम जनता
मतलब साफ़ है कि जिसे आप मास फिल्म बता रहे हैं असल में उसमें किसी भी तरह का मास एलिमेंट नजर नहीं आता. ना तो उसका हीरो, ना हीरोइन, ना उसके दृश्य और ना ही संवाद. अब क्लास के लिहाज से दूसरी दिक्कत यह है कि कुर्सी की पेटी वाला संवाद समझने की क्षमता जिन दर्शकों में है- वह पठान में घिसी पिटी देखी दिखाई चीज पर कीमती समय क्यों बर्बाद करेगा? वह डिजनी और मार्वल की फ़िल्में देखेगा. बिकिनी में दीपिका भी उसके लिए आकर्षण का विषय नहीं हो सकती. वह गोवा के बीच पर लंबा वीकएंड एन्जॉय करता है. यूरोप घूमता है. उसके लिए स्कर्ट और स्लीवलेस टॉप में कोई सुंदर लड़की आकर्षण का विषय नहीं है. और यह भी कि शाहरुख खान की तरह वह खुद सिक्स या एट पैक जिस्म का मालिक है. हो सकता है कि आपने जर्मनी के दर्शकों को केंद्र में रखकर पठान बनाई हो. भारत के तो किसी भी क्लास और मास ऑडियंस के लिए पठान में कोई विषय नहीं दिखा. पठान किस दर्शक वर्ग के लिए बनाई गई है समझ ही नहीं आता. अब बताइए, ऐसी फिल्म का अंजाम क्या होगा?
मामला समाज में राजनीतिक ध्रुवीकरण भर का नहीं है. असल में खेल पूरी तरह स्थानीय और सांस्कृतिक है और इसे कोई खारिज नहीं कर सकता. बॉलीवुड को कोई बर्बाद नहीं कर रहा. वह इंटरनेट के बाद आए बदलाव में खुद को अपडेट नहीं कर पाया है अबतक. सक्षम संवाद में नाकाम हो रहा है. लगातार. और सिर्फ इसलिए कि राजनीतिक वजहों से अंधा हो चुका है. उसे कुछ नजर नहीं आ रहा. अखंडा के साथ यह दिक्कत नहीं है. अखंडा के मेकर्स को 'वायलेंस पोएट्री' का महत्व पता है. दक्षिण को यह महत्व पता है. मनमोहन देसाई भी जानते थे- जिन्होंने अमिताभ बच्चन के रूप में भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा महानायक गढ़ा. बॉलीवुड के और निर्माता भी जानते थे जो फिल्मों के जातिगत बंटवारे की वजह से ख़त्म कर दिए गए.
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