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Updated: 19 अक्टूबर, 2015 03:50 PM
ऋचा साकल्ले
ऋचा साकल्ले
  @richa.sakalley
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फिल्म 'प्यार का पंचनामा-2' देखकर यही सोच रही हूं कि क्या आज का युवा प्रेम का सही मतलब समझता है. आखिर क्यों नई पीढ़ी के लिए प्रेम सिर्फ जिस्मानी मायने रखता है. निर्देशक लव रंजन की फिल्म 'प्यार का पंचनामा-2' कुछ यूं संदेश देती है कि – ‘लड़कियां किसी काम की नहीं होती, वो अगर जिंदगी में आ जाएं तो पुरुष की जिंदगी को नर्क बना देती हैं. वो आपको (पुरुष को) कुत्ता बना देती हैं. वो आपको (पुरुष को) एक्सप्लॉयट करती हैं, आपको (पुरुष को) ***या बनाती हैं. अगर लाइफ में सुकून चाहिए तो लड़कियों की तलाश में जिंदगी बर्बाद नहीं करना चाहिए’.

सवाल है कि दिल्ली-एनसीआर या दूसरे किसी मेट्रो में फ्लैट किराए पर लेकर रहने वाले नौजवान, इंडिपेंडेंट लड़के जिनके लिए रोज रात में जमकर शराब पीना, तेज ड्राइविंग करना रोज पार्टी करना ही लाइफ है, क्या वो प्यार को परिभाषित कर सकते हैं. और अगर करेंगे भी तो अपने कंफर्ट जोन में रहकर और ऐसा ही परिभाषित करेंगे जैसे प्यार का पंचनामा-2 के तीनों दोस्त करते हैं.

इस फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट एक बायस्ड माइंड सेट के साथ लिखी है बिल्कुल वैसी ही सोच जो हमारे समाज में आमतौर पर होती है. लड़कियों को लेकर. लड़की फ्लर्ट करे तो वो बुरी है, लड़की बेवकूफ बनाए तो बुरी है, लड़की शादी का भरोसा दिलाकर शादी ना करे और धोखा दे तो वो बुरी है. जबकि सच तो ये है कि फ्लर्टिंग बुरी है, बेवकूफ बनाना बुरा है और धोखा देना बुरी बात है. अब चाहे ये लड़का करे या लड़की.

दरअसल, बात ये है कि हमारे समाज में मानवीय व्यवहारों को लड़की से जोड़कर देखा ही नहीं जाता. क्योंकि समाज तो लड़की को इंसान ही नहीं मानता तो उसके इंसानी व्यवहार को क्यों सही मानेगा. लव रंजन की पीकेपी-2 फिल्म के तीनों किरदार अपने जीवन में आई लड़कियों को भला-बुरा कहते हैं. कोसते हैं और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीवन में बस एक ही शख्स निस्वार्थ प्यार करता है और वो है मां. यानी मां की अहमियत तभी नजर आती है जब गर्लफ्रेंड छोड़ दी जाती है और चाहिए तो बस ऐसी लड़की जो मां की तरह रहे. लड़का जो भी करें उसे सहती रहे, उफ्फ ना करे.

नई पीढ़ी के नौजवान भी अब तक संकुचित सोच से बाहर नहीं निकले हैं. भले ही वो मेट्रो में क्यों ना रह रहे हों. वो इंडिपेंडेट लड़की को बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहे. वो अपनी गर्लफ्रेंड या बीवी के बेस्ट मेल फ्रेंड या किसी लड़के से अपनी गर्लफ्रेंड की प्लेटोनिक रिलेशनशिप को स्वीकार नहीं कर सकते. उन्हें इंडिपेंडेंट लड़की तो चाहिए लेकिन उसकी इंडिविजुएलिटी से उन्हें अपच है. मेट्रो के लड़कों को आज भी ऐसी लड़की चाहिए जो उनके प्रति शत-प्रतिशत समर्पित रहे, बस 'औरत' बनकर रहे.

सुना है फिल्म प्यार का पंचनामा -1 में भी लड़कियों को लेकर ऐसी ही सोच दिखाई गई थी. मैंने वो देखी नहीं लेकिन इतना जरूर कह सकती हूँ कि इस तरह की फिल्में बनाने वाले लोग सोच और सृजनात्मकता के दीवालिएपन का शिकार हैं.

प्रेम एक स्थाई भाव है. प्रेम में विस्तार होता है. जो जैसा हो उसे वैसा ही स्वीकार करना प्रेम का लक्षण है. प्रेम में समर्पण है मगर बंधन नहीं. इसलिए मेरे हिसाब से प्यार का पंचनामा नहीं हो सकता है. सिर्फ विश्लेषण हो सकता है. वो भी एक तरफा नहीं बल्कि स्त्री और पुरुष दोनों के मनोविज्ञान उनके परिवेश और परवरिश को आधार बनाकर. मनोरंजन के लिए और भी कई विषय हैं.

निर्देशक लव रंजन जी...अब आप कृपया लव का पोस्टमार्टम एकतरफा न ही करें तो बेहतर है. और आपसे विनती है कि प्यार का पंचनामा-3 बनाने की जहमत न उठाएं.

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लेखक

ऋचा साकल्ले ऋचा साकल्ले @richa.sakalley

लेेखिका टीवीटुडे में प्रोड्यूसर हैं.

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