खिलजी तक को नायक बनाने पर आमादा बॉलीवुड भूमिपुत्र 'चोलों' से नफरत क्यों करता है?
इतिहास और फिल्मों के जरिए मुगलों की महानता की छवि गढ़ी गई. इसके लिए भारतवंशी नायकों की कहानियों को नजरअंदाज किया गया और उसके सामने सल्तनतों/बादशाहों के जनकल्याणकारी छवि का ऐसा शोर मचाया गया कि हम पत्थरों पर लिखे हजारों साल पुराने इतिहास को देखकर भी यकीन नहीं कर पाते.
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बॉलीवुड में भारतीय इतिहास के सुनहरे दौर की कहानियां नहीं दिखतीं. जबकि इतिहास के नाम पर हिंदी में फिल्मों की कोई कमी नहीं है. ऐसी फ़िल्में जो सल्तनतों और बादशाहों के दौर की हैं. रजिया सुल्तान से लेकर अब तक ढेरों कोशिशें दिखती हैं. इन कोशिशों में सल्तनतों और बादशाहों के दौर को जितना भी महिमामंडित किया जा सकता है- दिखाया गया. भले ही उसके लिए 'जोधा अकबर' जैसी इतिहास की सबसे धूर्त कहानी को ही क्यों ना परोसना पड़ा हो. यहां तक कि ऐतिहासिक किरदारों को कल्पना के सहारे 'मुगल-ए-आजम' के रूप में परोसा गया. भव्यता, संगीत और कला के नाम पर मुगलों की रूमानी छवि 'क्लासिक' के नाम पर प्रस्तुत की जाती रही. इतनी वाहवाही हुई कि अकबर की अराजकता, उसकी अय्याशियों का सबूत होने के बावजूद इतिहास और फिल्मों के जादू ने वो कमाल दिखाया कि हम उसे चाहकर भी 'महान' से रत्तीभर कम नहीं आँक पाते हैं. लंबा सिलसिला है जो फिल्मों वेबसीरीज के रूप में अभी भी जारी है. करण जौहर तख़्त के लिए बजट जुगाड़ रहे हैं सालों से.
बॉलीवुड ने अकेले मुगलों और नवाबों को केंद्र में रखकर जितनी फ़िल्में बनाई हैं, वह बेमिसाल है. सिर्फ मुगलों को लेकर तीन दर्जन से ज्यादा फ़िल्में हैं कम से कम. आप हैरान हो सकते हैं- अकबर के गार्जियन बैरम खान तक पर भी फ़िल्में मिल जाएंगी. बैरम कौन था और कहां से था? इतनी फ़िल्में शायद हिंदी सिनेमा ने स्वतंत्रता संग्राम पर भी नहीं बनाई हैं. संभाजी/शाहूजी बॉलीवुड की कहानी का विषय नहीं बन पाते. वह बाबर को दिखाने में ज्यादा सहज है मगर राणा सांगा की कहानी बनाने में उसका बजट ख़त्म हो जाता है. हसन खां मेवाती, राजा सूरजमल और सम्राट मिहिरभोज को दिखाने से बचता है. लोकप्रिय आल्हा उदल के शौर्य भी उसे प्रेरित नहीं कर पाते. रानी दुर्गावती, रानी चेनम्मा का बलिदान उसे नजर नहीं आता. और सिखों के महान साम्राज्य को शीर्ष पर पहुंचाने वाले इतिहास प्रसिद्ध सरदार हरि सिंह नलवा की कहानी से शायद उन्हें उबकाई ही आती होगी जिन्हें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लड़ाकों में शुमार किया गया है.
जबकि ये कहानियां उन इलाकों की हैं जो हिंदी सिनेमा का क्षेत्र गिने जाते हैं. जिनका जिक्र हुआ है ये महज कुछ नाम भर हैं हमारे इतिहास से. ऐसे दर्जनों प्रेरक किरदार मौजूद हैं. मजेदार यह भी है कि वही बॉलीवुड जब एक मराठा सरदार की गुमनाम कहानी 'तान्हाजी' लेकर आता है तो निर्माता छप्पड़ फाड़कर कमाई करते हैं. सिख लड़ाकों की कहानी 'केसरी' आती है तो बॉक्स ऑफिस के तमाम रिकॉर्ड टूटते नजर आते हैं. बाजीराव पेशवा की कहानी तो कमाई के कीर्तिमान ही गढ़ देती है. ऐसा बिल्कुल नजर नहीं आता कि सिर्फ मुगलों की कहानियां व्यावसायिक रूप से फायदे का सौदा हैं, ज्यादा कलात्मक हैं और दूसरी कहानियां उबाऊ और कारोबारी लिहाज से व्यर्थ.
PS 1
मुगलों को लोकप्रिय और जननेता साबित करने में सिनेमा ने निभाई बड़ी भूमिका
उत्तर को लेकर बॉलीवुड का जब यह हाल है तो भला उससे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह चोलों, पल्लवों, सातवाहनों, चालुक्यों की अमर कहानियों को दिखाएगा. वह आसाम की धरती पर लड़े गए इतिहास के सबसे खूंखार जंग को दिखाएगा, जिसमें बख्तियार खिलजी के ऐतिहासिक बर्बर अभियान को उत्तर पूर्व के लड़ाकों ने ब्रह्मपुत्र से आगे नहीं बढ़ने दिया. इतिहास में बख्तियार के खिलाफ जिस तरह समूचा उत्तर-पूर्व एकजुट होकर लड़ा है, उसके दूसरे उदाहरण दुर्लभ हैं. उस जंग में बख्तियार खिलजी के पांव ऐसे उखड़े कि उसे खून का घूंट पीकर और अपने हजारों फ़ौज को गाजर मूली की तरह युद्ध के मैदान में कटवाकर, उलटे पांव भागना पड़ा. सवाल है कि 'रजिया सुल्तान' और 'अलाउद्दीन खिलजी' तक में नायक तलाशने वाला बॉलीवुड अपने ही पुत्रों की वीरता से संकोच क्यों करता है?
मणिरत्नम के निर्देशन में चोल साम्राज्य की कहानी PS-1 आ रही है. हिंदी बेल्ट में एक पीढ़ी हैरान-परेशान है. वह हैरान इस बात पर है कि आज से हजार साल पहले भारत में एक ऐसा भी महान साम्राज्य था, जो अपने दौर में अकल्पनीय सा दिखता है. लेकिन भारत का भविष्य उसके बारे में नहीं जानता. जब हमीं अपनी चीजों को नहीं जानते तो दुनिया को भला क्या बताएंगे? भारत के आर्किटेक्चर की पहचान दो-चार मकबरे और मुगलों की अय्याशी वाले दो चार महल भर कैसे हो सकते हैं? सोशल मीडिया पर एक धड़ा बहस कर रहा है. फिल्म के बहाने हो रही यह एक जरूरी बहस है. सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ? इतिहास लेखन की तरह यहां भी साफ़ दिख रहा है कि चीजों को सिर्फ इसलिए महिमामंडित किया गया कि हवा हवाई स्थापनाओं और प्रचार में हकीकत को ढँक दिया जाए. ढंका तो गया. पर पत्थरों पर लिखी इबारत दुनिया की, पांडुलिपियों पर स्याही के छींटे किसी भी अबुल फजल जैसे इतिहासकार के शब्दों से ज्यादा प्राचीन ज्यादा ईमानदार और ज्यादा सच्चे नजर आते हैं. इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को लेकर दिक्कत दक्षिण में नहीं है. दक्षिण ने अपने सभी नायकों को सहेज कर रखा है. दक्षिण का सिनेमा अपनी जिम्मेदारी के साथ खड़ा दिखता है.
अमेरिकन फिल्ममेकर ने भी दिखाई है चोलों की कहानी
सिर्फ चोलों की ही बात करें तो मणिरत्नम से बहुत पहले आधा दर्जन फ़िल्में हैं. एमजी रामचंद्रन जैसे दिग्गज ने भी चोलों की महान कहानी को परदे पर उतारा. यहां तक कि जब भारत में सिनेमा अपने शैशवाकाल में था भारत में फिल्मों खासकर तमिल सिनेमा के लिए उल्लेखनीय काम करने वाले अमेरिकन फिल्ममेकर एलिस आर डुंगानो तक ने फिल्म बनाई है. बॉलीवुड का परहेज तो यही साबित करता है कि जैसे इतिहास लेखन में सहिष्णुता दिखाने का पाखंड किया गया बिल्कुल वैसे ही अन्य माध्यमों ने भी कला के नाम पर पाखंडपूर्ण इतिहास का प्रचार प्रसार किया. कुछ मकसद रहे होंगे. इसीलिए उनकी अय्याशियों को नजरअंदाज किया गया और मुग़ल-ए-आजम में इंसानी कल्पना की एक सबसे महान प्रेम कहानी गढ़ दी गई. एकतरफा किस्सों के जरिए रजिया सुल्तान को इतिहास की एक क्रांतिकारी महिला के रूप में स्थापित कर दिया गया.
सिनेमा, इतिहास लेखन और कलाओं के नाम पर यह सारी फितरतबाजी असल में उस सच को भारी शोर में दबाने की कोशिश दिखती है. झूठ और पाखंड का चौतरफा शोर. चाहे वह इतिहास लेखन हो, साहित्य में फिक्शन हो, फ़िल्में हों, टीवी सीरियल हों और भी दूसरे माध्यम हों. सबने मिलकर ऐसा शोर मचाया कि सामने मौजूद अपने इतिहास को ना भारत देख पाता है और ना ही दुनिया को दिखा पाता है. पत्थरों पर लिखा इतिहास, संग्रहालयों में रखा इतिहास अपने सच को कहने में थक कर हार मान लेता है. लेकिन 'इब्न वंशी' अरबी अबुल फजल सबसे मान्य इतिहासकार बन बैठता है. एक ऐसा एकेडमिक्स जो करीब 600 सेना की टुकड़ी रखता था. तलवार पकड़े भारत के दो एकेडमिक्स का नाम नहीं बता सकते आप. वह अकबर का सबसे विश्वासपात्र था और प्रधानमंत्री बन जाता है. वह अकबर की जीवनी भी लिखता है. वह क्या लिखेगा अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं. लेकिन तंजौर से लेकर चीन तक चोलों के निशान साक्ष्य के रूप में भारतीय चेतना को प्रभावित नहीं कर पाते. जो समाज अपने अतीत से ही वाकिफ ना हो- उसका भविष्य तो शर्म और कमतरी से प्रभावित ही रहेगा.
कभी आगरा जाकर मुगलों की अय्याशी और लूटतंत्र अपनी आंखों से देखिए
मुगलों का जनकल्याणकारी इतिहास जानना हो तो सिर्फ आगरा चले जाएं. वहां मुगलों के महल पहुंचे. एक गाइड करें और मुगलों के रिहाइश की जानकारी बटोरें. गाइड आपको इतिहास की तमाम जानकारियां देगा. आईचौक सिर्फ एक बता रहा है. मुग़ल सर्दियों में आराम से सो सकें बस इसके लिए उनके शयन कक्षों की दीवाल को खोखला बनाया जाता था. उसमें यमुना से पानी लाकर उसे गर्म किया जाता था और उसे खोखली दीवालों में भरा जाता था. उस जमाने में मोटर और बिजली थे नहीं. सबकुछ हाथों से किया जाता था. एक बादशाह, उसकी दर्जनों पत्नीयां दर्जनों बच्चे. दर्जनों रिश्तेदार. सोचा जा सकता है कि सिर्फ सर्दी में बादशाहों की सुविधा के लिए 24 घंटे कितने लोगों का हुजूम जनकल्याणकारी बादशाहों की सेवा में लगा रहता होगा. सेवक अरब, तुर्की, ईरान या अफगानिस्तान से नहीं रहे होंगे. रात में रोशनी के लिए दीवारों पर हीरे-जवाहरात-सोने चांदी लगाए जाते थे जो रोशनी रिफ्लेक्ट करते थे. लूट में इसी तरह की अय्याशी की जाती है.
सिर्फ कल्पना करिए. कभी वहां जाइए. यह सिर्फ एक उदाहरण भर है अकबर महान के बादशाही दौर का. चोलों ने इतिहास में क्या किया है वक्त मिले तो उसे खोजकर पढ़िए. भले ही विज्ञान गणित के विद्यार्थी हों, बावजूद इतिहास में दिलचस्पी रखना चाहिए. अच्छा ही है कि दक्षिण अब पैनइंडिया फ़िल्में बना रहा है. कम से कम दक्षिण के रास्ते उत्तर तक भारत अपनी महान कहानियों से रूबरू तो होगा जो उसके भविष्य को दिशा देने में कामयाब हो सकती हैं. इतिहास दृष्टि से विक्रम, जयराम रवि, कार्ति, प्रकाश राज और ऐश्वर्या राय बच्चन की PS-1 एक दर्शनीय फिल्म साबित हो सकती है.
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