Bollywood: कास्टिंग काउच इंडस्ट्री जो फ़िल्में भी बनाती है!
जहां तक किश्वर मर्चेंट की बात है वो कास्टिंग काउच पर अपने अनुभव को बताना भी चाहती हैं और नहीं भी. क्योंकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया. अब इतने साल बाद उन्होंने बोला तो उन्हें नामों का खुलासा करना चाहिए था भले ही वो कितने नामचीन हैं.
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कास्टिंग काउच ग्लैमर इंडस्ट्री खासकर बॉलीवुड में वो शब्द है जिससे जुड़े रहस्योद्घाटन सामने आते ही रहते हैं. इस कड़ी में किश्वर मर्चेंट ताजा नाम हैं जिन्होंने अपने अनुभव को एक इंटरव्यू में साझा किया. बिना नाम लिए मौजूदा दौर के एक नामी प्रोड्यूसर और एक एक्टर का जिक्र किया. दावा किया कि जब वो फिल्मों में काम करने के लिए प्रोड्यूसर के पास पहुंचीं तो रोल के बदले उन्हें हीरो के साथ सोने को कहा गया. उन्होंने ऐसा नहीं किया. स्वाभाविक रूप से उन्हें वो प्रोजेक्ट नहीं मिला.
जहां तक किश्वर मर्चेंट की बात है वो कास्टिंग काउच पर अपने अनुभव को बताना भी चाहती हैं और नहीं भी. क्योंकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया. मैं इसे पीआर प्रैक्टिस तो नहीं कहूंगा, लेकिन अब इतने साल बाद उन्होंने बोला तो उनसे नामों के खुलासे की उम्मीद थी, भले ही वो कितने भी नामचीन क्यों ना हों. उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता? उनसे पहले बॉलीवुड की कई साहसिक महिलाएं सामने आईं और बाकायदे नामों का जिक्र किया. सच्चाई के लिए आखिर डर कैसा?
कास्टिंग काउच के बारे में ज्यादा बताने की जरूरत नहीं. सामान्य अर्थ में इसका मतलब यही है कि काम पाने के लिए अपनी देह दूसरे के हवाले कर दें और उसके कहने पर जिस्मानी संबंध बना लें. जाहिर तौर पर किसी को कास्टिंग काउच का ऑफर मिला या वो शिकार हुआ, इसके बारे में तभी सच्चाई सामने आती है जब विक्टिम खुद बाहर आता है. जैसे कि लोग दावा करते हैं- बॉलीवुड के बिजनेस मॉडल को देख ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि आखिर पहला विक्टिम कौन था और ये कब ख़त्म होगा? यह भी कि ये सिर्फ बॉलीवुड की समस्या नहीं है. ये बीमारी हर उस जगह है जहां कुछ प्रभावशाली लोग चीजों को मनमुताबिक़ तय करते हैं.
किश्वर मर्चेंट.
जहां तक बात बॉलीवुड की है अब तक कास्टिंग काउच के कई दर्जन मामले सामने आ चुके हैं. आरोप कितने सही थे या गलत ये भी बाद की बात है लेकिन कास्टिंग काउच पर बड़े स्तर के बहस की शुरुआत के पीछे सिर्फ दो घटनाएं अहम हैं. पहला- साल 2005 में एक टीवी न्यूज चैनल का चर्चित स्टिंग ऑपरेशन जिसमें बॉलीवुड की हस्तियों ने कैमरे पर कास्टिंग काउच को ना सिर्फ पुष्ट किया बल्कि बॉलीवुड में काम पाने कास्टिंग काउच के लिए तैयार रहने को कहा. उसी स्टिंग से पता चला कि ये नासूर तो बॉलीवुड में बहुत पुराना है.
दरअसल, साल 2005 में कास्टिंग काउच पर स्टिंग ऑपरेशन में शक्ति कपूर ने रिपोर्टर से काम पाने के लिए कास्टिंग काउच के लिए तैयार रहने को कहा था. शारीरिक संबंध बनाने का दबाव भी डाला. हालांकि जब टेप सामने आ गया उन्होंने साजिश बताकर इससे पल्ला झाड़ लिया. 2005 में ही एक्टर अमन वर्मा भी स्टिंग में काम तलाश रही लड़की से छेड़छाड़ करते दिखे थे. अमन ने भी शक्ति की तरह ही स्टिंग को साजिश करार दे दिया था. बाद में कई नामी एक्टर ने उनका बचाव भी किया.
दूसरी घटना सीधे-सीधे कास्टिंग काउच का तो नहीं लेकिन उन प्रभावशाली लोगों के बारे में है जो महिला सहकर्मियों से कुछ अलग तरह की अश्लील उम्मीद पाले रखते हैं. जिन्होंने इनकार किया उन्हें करियर में नुकसान उठाने पड़े और प्रतिकार नहीं कर पाने वाले लोग सालोंसाल इसे झेलने को विवश हुए. 2018 में तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर संगीन आरोप लगाते हुए मीटू आंदोलन की शुरुआत की. जिसके बाद ना जानें कितनी विक्टिम्स ने आगे आकर अपने शोषण की दास्तान सामने रखी. जिन पर आरोप लगे वो बॉलीवुड के नामचीन लोग थे. इसमें आलोकनाथ पर आरोप तो हॉलीवुड के हार्वे वेनस्टीन की तरह सबसे घिनौना दिखा था. सुभाष घई, अनु मालिक, सुभाष कपूर, इरफान खान, मधुर भंडारकर, दिबाकर बनर्जी जैसे दर्जनों नाम उछाले जा चुके हैं.
मीटू के बहाने एक तरह से कास्टिंग काउच की बहस बॉलीवुड और उससे बाहर बहुत मजबूती से खड़ी हुई. विक्टिम्स के आरोपों के बाद फौरी तौर पर कई आरोपियों को उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. तमाम शो, फिल्मों और दूसरे प्रोजेक्ट से निकाले भी गए. कई ने आरोपों को झूठा बताया (ऐसा हो भी सकता है). कई ताकतवर लोगों को सेलिब्रिटीज की तरफ से डिफेंड भी किया गया. लगभग सालभर बहस मजबूत दिखी, लेकिन बाद में क्या हुआ?
शक्ति कपूर-अमन वर्मा सक्रिय ही हैं, मीटू मूवमेंट के बाद जिन्हें शो से निकाला गया था वो वापिस आ चुके हैं. इक्का-दुक्का को छोड़ दिया जाए तो कई ने फिर से इंडस्ट्री में काम शुरू कर दिया है. कास्टिंग काउच की असल वजह और उसके पीछे की मजबूरी यहीं पता चल जाती है.
कायदे से अगर कोई प्रतिभाशाली है तो एक मौके के लिए उसे किसी की शर्तों को मानने की आखिर क्या जरूरत है? ये सैद्धांतिक बात है और कई जगह पूरी ईमानदारी से लागू भी होता है. लेकिन राजनीति और मीडिया-एंटरटेनमेंट जैसे क्षेत्रों में व्यावहारिक तौर पर इसके लागू होने में दिक्कतें हैं. कई तरह की.
जैसे कॉरपोरेट, राजनीति, सिविल सेवा और मनोरंजन जगत अपने चरित्र की वजह से एक तरह के "एकाधिकार" से ग्रस्त है. यह सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. यहां ढांचा ही बहुत हद तक इतना व्यक्तिपरक और कई जगह असंगठित है कि महज कुछ लोगों को ताकत प्रदान करती है. इसी ताकत के जरिए मोलभाव होता है, चीजें तय होती हैं. ऐसी स्थिति में भले ही कोई दक्ष और प्रतिभाशाली हो लेकिन जब "मौका" और "ग्रोथ" तलाशने निकलेगा तो काफी हद तक गुंजाइश है कि उसे कास्टिंग काउच, मीटू, नेपोटिज्म या प्रभावी ताकतों के आगे इससे कुछ कम जलील "समझौते" करने पड़ सकते हैं. हर चीज यूपीएससी की परीक्षा जैसी नहीं कि तीन एग्जाम टॉप करने के बाद बिना जी हुजूरी के कम से कम किसी जिले का कलेक्टर या पुलिस अधीक्षक बनने की कंडीशन में आ ही जाता है.
बॉलीवुड में ये नासूर इसलिए भी पुराना और घातक है क्योंकि अब से कुछ साल पहले तक यहां गिने-चुने लोगों का एकछत्र राज था. करीब आधा दर्जन मेल एक्टर, इतने ही बैनर/प्रोड्यूसर, लगभग इतने ही निर्देशक इंडस्ट्री का कारोबार तय करते थे. कोई कितना भी तीसमारखां हो सालों से ऐसे दर्जनों किस्सों की कमी नहीं कि किसी ने इन्हें नजरअंदाज करके बॉलीवुड में सर्वाइव किया हो या बड़ा बन गया हो. लॉबी साफ़ नजर आती है.
अच्छी बात ये है कि थोड़ा बहुत ही सही लेकिन ये लॉबी वक्त के साथ कुछ कमजोर पड़ी है. क्योंकि काफी हद तक बिजनेस मॉडल बदला है या एक मॉडल के सामने धीरे-धीरे ही सही एक नया मॉडल भी खड़ा हो रहा है. मजबूत बन रहा है. इसी बिजनसे मॉडल ने सहूलियत दी है जो पिछले कुछ सालों में किश्वर मर्चेंट जैसे किस्से आ रहे हैं. अब काम ना मिलने, करियर ख़त्म हो जाने का उतना ज्यादा खौफ लोगों में नहीं रहा. नए माध्यम और नए बन रहे मौके ही एकाधिकार को ख़त्म करेंगे.
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