Bulbbul review: लोग डर क्यों रहे हैं? बुलबुल हॉरर नहीं सोशल कहानी है
नेटफ्लिक्स (Netflix ) पर हालिया रिलीज फिल्म बुलबुल (Bulbbul) को भूतिया फिल्म कहा जा रहा है और तमाम तरह की बातें की जा रही हैं मगर जब इस फिल्म को देखें तो मिलता है कि ये हमारे समाज के परतों को दर्शाती एक सामाजिक फिल्म है.
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Netflix रिलीज़ बुलबुल (bulbbul) के बारे में अगर फिल्मी समीक्षक की नज़र से लिखूं तो कुछ ख़ास नज़र नहीं आता. एक सीधी सरल सी कहानी, छोटी सी लव स्टोरी और कई जगह पर बेतुका स्क्रीनप्ले, लेकिन अनुष्का शर्मा (Anushka Sharma) निर्मित ये फिल्म सिर्फ इतनी ही नहीं है. बुलबुल हमें एक बहुत छोटी सी बात बताती है कि औरत को शादी के बाद बिछुए इसलिए पहनाए जाते हैं कि वो ‘उड़’ न सके. वो हाथ से न निकल जाए. बुलबुल हमें ये भी बताती है कि भारतीय औरत को हर हाल में अपने पति को परमेश्वर मानना होगा, फिर चाहें वो नीम पागल हो या सनकी बुड्ढा. बुलबुल एक और गहरी बात सिखाती है, जिसे समझना सबसे ज़रूरी है कि औरत को सबसे पहले साथी औरत का सगा होना होगा. आदमी के जुल्म-ओ-सितम या पितृसत्ता से बाहर निकलने के लिए शराब और गाली गलौच करने नामक बराबरी से ज़्यादा ज़रूरी होगा कि अगर एक नारी दूसरी नारी की भावनाओं को समझे, क्योंकि बुलबुल हमें ये भी बताती है कि औरत का किसी से बात करना भी उसे ‘कलमुही’ घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा.
बुलबुल को लोग बेवजह ही हॉरर बता रहे हैं जबकि ये एक सामाजिक फिल्म है
इस फिल्म का क्लाइमेक्स उतना बेहतर तो नहीं था जितना आप ‘परी’ या NH10 का क्लाइमेक्स देख चुके हैं पर इसका अंत एक प्रतीकात्मक क्लाइमेक्स था जो ये जताना चाह रहा था कि दुर्गा को ही ख़ुद और समाज पर टूटी मुसीबतों के लिए चंडी या काली का रूप धरना पड़ेगा. कोई न्याय, कोई मसीहा तबतक नहीं हाज़िर होगा जबतक वो औरत ख़ुद न सक्षम हो सकेगी.
इसके इतर मुझे फिल्म में एक वाइटल कमी नज़र आती है. आपको याद हो कि फेमस शेरलॉक होल्म्स सीरीज में 2016 के वक्त एक टेलीफिल्म आई थी जिसका नाम The Abominable Bride था. लेखिका और निर्देशक अन्विता दत्त की इस कहानी की थीम कुछ-कुछ उस फिल्म से मिलती है जिसमें एक नई दुल्हन खुद सबके सामने खुद को गोली मार लेती है लेकिन कुछ समय बाद वही दुल्हन कई लोगों को मौत के घाट उतारती देखी जाती है.
जिस कमी का मैं ज़िक्र कर रहा था वो मुझे ये लगी कि bulbbul फिल्म में दिखाई गयी ऐसी कोई भी घटना, ऐसा कोई भी दंड न्याय और सुधार लाने की बजाए बस बदला पूरा कर सकता है. ज्ञात हो, कि इस असल दुनिया में भी जहां चांद अभी लाल नहीं हुआ है; ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने अदालतों और पुलिस थानों के चक्कर काटने के बाद थकहारकर ख़ुद ही बैटमैन बनने की कोशिश में अपने साथ हुए अपराध की सज़ा अपने अपराधी को ख़ुद ही दी है. लेकिन इस प्रक्रिया को हम न्याय का नहीं, बदले का नाम ही दे सकते हैं. ऐसा क्यों है ये एक और रेफेरेंस से बताता हूं.
2006 में आई आमिर खान की ‘रंग दे बसंती’ सभी ने देखी होगी, उसमें आपने जाना होगा कि पात्र दिलजीत और उसके दोस्त मिलकर रक्षा मंत्री का खून तो कर देते हैं, पर जब वो उसे अखबारों में शहीद होना पढ़ते हैं तो ख़ुद आल-इंडिया-रेडियो से अनाउंस करने निकल जाते हैं कि उन्होंने ही उसे मारा है और इस वजह से मारा है.
न्यायिक दंड मेरी नज़र में वो कहलाता है जिसके मिलने के बाद वो अपराधी और ये समाज, दोनों में उस दंड का भय होने के साथ-साथ अपराध न दोहराने की भावना भी जगे और इसके लिए ज़रूरी है कि दंड मिलने वाले शख्स को और उस समाज को ठीक पता हो कि इसे क्यों दंड दिया जा रहा है. तभी उस जघन्य अपराध से समाज बच सकेगा.
आप रातों को पेड़-पेड़ निकलकर, किसी की गर्दन काटकर ख़ुद को तसल्ली भर दे सकते हैं कि आपने न्याय कर दिया, असल में आप बदला ले रहे होते हैं. यही बदले की कहानी है बुलबुल, जो भले ही बार-बार देखी न जा सके पर एक बार समझी जानी बहुत ज़रूरी है. अतिरिक्त जानकारी के लिए आपको ये फिल्म netflix पर देखनी होगी.
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